आज भी कर्नाटक में उस पर लिखे हुए कई लोकगीत प्रचलित हैं। वे राज्य के लोगों की स्मृति में अब तक जिन्दा हैं। कन्नड़ के प्रसिद्ध नाटककार गिरीश कर्नाड टिपू के इतने जबरदस्त प्रशंसक थें कि उन्होंने यह मांग की थी कि बेंगलुरू के हवाईअड्डे का नाम टिपू के नाम पर रखा जाना चाहिए।
कर्नाड का यह भी कहना था कि अगर टिपू हिन्दू होते तो उन्हें कर्नाटक में वही दर्जा मिलता जो शिवाजी को महाराष्ट्र में मिला हुआ है।
टिपू सुलतान को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलवाने में टीवी सीरियल ‘स्वोर्ड ऑफ टीपू सुलतान’ का महत्वपूर्ण योगदान है। भगवान गिडवानी की पटकथा पर आधारित इस सीरियल के 60 एपीसोड प्रसारित हुए थे, जिनमें ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ टीपू की लंबी लड़ाई का चित्रण किया गया था।
टिपू ने मराठाओं और हैदराबाद के निज़ाम से पत्राचार कर उनसे यह अनुरोध किया था कि वे अंग्रेज़ों का साथ न दें। टिपू का यह मानना था कि ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारत के लिए अहितकर होगा। अपनी इसी सोच के चलते उसने अग्रेज़ों के साथ कई लड़ाईयां लड़ी। 4 मई सन 1799 के चौथे अंग्रेज़-मैसूर युद्ध में वे मारा गया।
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पटवर्धन की मराठा सेना द्वारा श्रेंगेरी मठ में लूटपाट किए जाने के बाद टीपू ने इस मठ का पुराना वैभव बहाल किया। उसके शासनकाल में 10 दिन का दशहरा उत्सव मैसूर की सामाजिक जिंदगी का अभिन्न हिस्सा था।
अपनी पुस्तक ‘सल्तनत ए खुदादाद’ में सोलापूर के सरफराज अहमद ने ‘टिपू के घोषणापत्र’ प्रकाशित किये है। इस घोषणापत्र में टिपू कहता हैं कि वे धार्मिक आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेंगा और अपनी अंतिम सांस तक अपने साम्राज्य की रक्षा करेंगा।
इस पुस्तक के लेखक आगे कहते हैं, “टिपू की नीतियां धर्म से प्रेरित नहीं थीं। कामकोटि पीठम के शंकराचार्य को लिखे अपने पत्र में उन्होंने शंकराचार्य को ‘जगत गुरू’ के नाम से संबोधित किया था। उन्होंने कामकोटि पीठम को ढेर सारी धन दौलत भी दान में दी थी।”
यह आरोप लगाया जाता है कि टिपू ने कुछ समुदायों को प्रताड़ित किया। यह सही है। परंतु इसका कारण धार्मिक न होकर राजनीतिक था।
इतिहासकार केट ब्रिटिलबैंक लिखती हैं, ‘‘यह उनकी धार्मिक नीति नहीं थी बल्कि लोगों को सज़ा देने की नीति थी।’’ उसने उन समुदायों को निशाना बनाया जिनके बारे में वे यह मानते थे कि वे राज्य के प्रति वफादार नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने सिर्फ हिन्दू समुदायों को प्रताड़ित किया।
इतना ही नही टिपू ने महेदवी जैसे कुछ मुस्लिम समुदायों को भी अपना निशाना बनाया था। इसका कारण यह था कि ये समुदाय अंग्रेज़ों के समर्थक थे और ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के घुड़सवार दस्ते में इन समुदायों के बहुत सारे व्यक्ति शामिल थे।
एक अन्य इतिहासविद् सुसान बैली लिखती हैं कि अपने राज्य के बाहर के हिंदुओं और ईसाईयों पर उनके हमलों को उनकी राजनीति का भाग माना जाना चाहिए क्योंकि अपने राज्य के भीतर इन समुदाय के लोगों से उनके निकट और सौहार्दपूर्ण संबंध थे।
उसके वे तथाकथित पत्र, जो ब्रिटिश सरकार के कब्जे में हैं, के बारे में जो कुछ कहा जा रहा है उसे भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की ज़रूरत है। अभी तो यह भी पक्का नहीं है कि वे पत्र असली हैं या नहीं।
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हम किसी भी व्यक्ति को उसकी पूर्णतः में ही देख-समझ सकते हैं। जब पुर्णैया नामक एक ब्राह्मण उसका मुख्य सलाहकार थे और वे कांची कामकोटि पीठम के शंकराचार्य के प्रति सम्मान भाव रखते थे, तब इस बात की संभावना बहुत कम रह जाती है कि उसने हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया होगा।
अंग्रेज़ उससे बहुत नाराज़ थे क्योंकि वे अंग्रेज़ों के भारत में बढ़ते प्रभाव के कड़े विरोधी थे और उन्होंने मराठाओं और निज़ाम से यह कहा था कि हमें अपने झगड़े आपस में मिल बैठ कर सुलझाने चाहिए और अंग्रेज़ों को इस देश से बाहर रखना चाहिए।
अंग्रेज़ों ने टिपू सुलतान का दानवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस योद्धा और शासक के बारे में हमें संतुलित ढंग से सोचना होगा।
हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि टिपू ने प्राणपन से अंग्रेज़ों का विरोध किया क्योंकि उसे एहसास था कि भारत पर जिन शक्तियों ने कब्ज़ा जमाया, उनसे अंग्रेज़ कई मामलों में एकदम भिन्न थे। एक तरह से टिपू सुलतान अंग्रेज़ों के खिलाफ भारतीय प्रतिरोध के अग्रदूत थे।
यह आरोप बार-बार किया जाता हैं कि, टिपू ने अपने दरबार की भाषा फारसी को क्यों बनाया? यहां यह याद रखा जाना आवश्यक है कि उस समय भारतीय उपमहाद्वीप के कई राजदरबारों की भाषा फारसी थी।
शिवाजी भी फारसी में पत्राचार किया करते थे और इसके लिए उन्होंने मौलाना हैदर अली को अपना प्रमुख सचिव नियुक्त किया था। टिपू धार्मिक कट्टरवादी नहीं था, जैसा कि आज बताया जा रहा है।
टिपू सुलतान के मुद्दे पर आरएसएस-भाजपा परिवार में भी मतभेद हैं। सन 2010 में चुनाव के ठीक पहले, भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा ने टीपू सुलतान की पगड़ी पहनकर, तलवार हाथ में लेकर तस्वीरें खिंचवाईं थीं।
सन 1970 के दशक में आरएसएस ने अपनी भारत-भारती श्रृंखला के तहत प्रकाशित एक पुस्तिका में टिपू की प्रशंसा करते हुए उन्हें देशभक्त बताया था।
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2018 में बीजेपी ने कर्नाटक सरकार के कार्यक्रम को लेकर फिर से बवाल खडा किया था। केंद्रीय मंत्री और कर्नाटक भाजपा के वरिष्ठ नेता अनंत कुमार ने टिपू जयंती समारोह में भाग लेने का कर्नाटक सरकार का निमंत्रण ठुकरा दिया।
उन्होंने कहा कि टीपू सुलतान पर तरह-तरह के आरोप लगाये थे। जिसके बाद देश में हडकंप मचा था। कुछ स्थानों पर भाजपा ने टिपू की जयंती मनाए जाने का विरोध भी किया।
यह दिलचस्प है कि भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद नें जो संघ की विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं, कर्नाटक विधानसभा में टिपू सन्मान में एक भाषण देकर बीजेपी के सांप्रदायिक राजनिती की धज्जीया उडाई थी।
उन्होंने कहा, ‘‘टिपू सुलतान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए एक नायक की मौत मरे। उसने रॉकेटों का विकास किया और युद्ध में उनका इस्तेमाल किया।’’
सांप्रदायिक ताकतें पेंडुलम की तरह टिपू को सिर-आंखों पर बिठाने के बाद अब उस पर कालिख पोतने में जुटी हुई हैं। यह सब केवल और केवल उनकी राजनीति का हिस्सा है।
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* आज भी अपनी महानतम सभ्यता को संजोए खडा हैं परंडा किला
लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।