अफगान में तालिबान से हारा अमेरिका, अब आगे क्या !

स समय पूरी दुनिया की नज़र अफगानिस्तान की हलचल पर है, जब से अमेरिकी सेना की पूर्ण वापसी की समय सीमा नज़दीक आ रही है अफगान के पड़ोसियों के माथे पर शिकन बढ़ती जा रही है। वजह है तालिबान का अफगानिस्तान में फिर बढ़ता दायरा। 

अब सवाल यह है कि तालिबान के मजबूत होने से किसे अपना फायदा दिख रहा है और किसे चिंता हो रही है? भारत और अफगानिस्तान का रिश्ता दशकों पुराना है लेकिन उस मुल्क में तालिबान के पैर पसारना क्या हमारे हक में होगा? ऐसे कई सवाल लोगों के जेहन में हैं। 

आइए समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर तालिबान कौन हैं? तालिबान आज क्यों मजबूत हुआ? इस में अमेरिका की क्या भूमिका रही हैं? अमेरिका अपने सैनिक क्यों वापस बुला रहा हैं? और इस से भारत क्यों चिंतित है?

दुसरे विश्वयुद्ध के बाद 1945 से 1990 के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध चल रहा था। दोनों ही देश वैचारिक और भौगोलिक स्तर पर अपना विस्तार करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे। इसी बीच 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। 

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तालिबान का जन्म

अफगान में सोवियत संघ का प्रभुत्व, अमेरिका से बर्दाश्त नहीं हुआ। इसे देखते हुए उस ने ओसामा बिन लादेन का सहारा लिया और उसे अफगान भेजा, जहां उस ने स्थानीय लोगों को सोवियत के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया। इसी दौरान अफगान मुजाहिदीन का गठन हुआ, जिस का एकमात्र लक्ष्य सोवियत सेना को अपने देश से बाहर खदेड़ना था। 

अमेरिका और पाकिस्तान भारी मात्रा में महंगे से महंगे सैन्य उपकरण और आर्थिक सहयोग इन मुजाहिदीनों को पहुंचा रहे थे, जिस के बल पर अफगान मुजाहिदीन सोवियत सेना से लड़ रहे थे। इस युद्ध में मुजाहिदीनों ने सोवियत सेना को भारी नुकसान पहुंचाया। 10 साल तक चली इस लड़ाई में सोवियत सेना ने अपने 15,000 सैनिकों को खो दिया। इस कारण सोवियत संघ को मजबूरन अफगान को छोड़ना पड़ा।

इस के बाद अहमद शाह मसूद के नेतृत्व में मुजाहिदीन ने अफगानिस्तान की राजधानी को घेर लिया। सैयद मुहंमद नजीबुल्लाह के नेतृत्व में अफगानिस्तान में सरकार की स्थापना हुई। हालांकि इस दौरान देश में अस्थिरता का माहौल बना रहा। 

1994 में अफगान मुजाहिदीन का ही एक अंग ‘तालिबान’ देश में उभरा। 1994 में अफगानिस्तान के भीतर तालिबान एक शक्तिशाली आंदोलन बन गया था। इस दौरान पाकिस्तान ने तालिबान से जुड़े लोगों को भारी मात्रा में आर्थिक सहायता, सैन्य सहायता और हथियार मुहैया कराया, ताकि तालिबान के जरिए सेंट्रल एशिया से पाकिस्तान का व्यापार मार्ग खुलवाया जा सके। 

पाकिस्तान की इस सहायता के चलते तालिबान काफी मजबूत हो गया और देखते ही देखते उस ने 1996 में राजधानी काबुल को अपने कब्जे में ले लिया। धीरे-धीरे उस ने बाकी हिस्सों को भी अपने गिरफ्त में लेने की शुरुआत की। इस बीच अफगानिस्तान की सरकार और तालिबान के बीच कई युद्ध हुए। 

इस दौरान पाकिस्तान ने तालिबान के साथ विभिन्न स्तरों पर अपने रिश्ते मजबूत कर लिए थे। उस ने कई तालिबानी नेताओं को अपने यहां पर ट्रेनिंग दी। इसी बीच 1996 के आसपास ओसामा बिन लादेन दोबारा अफगानिस्तान में आता है, जहां उस का तालिबान के नेताओं ने पुरजोर ढंग से स्वागत किया। 

ओसामा बिन लादेन के मंसूबे कुछ और थे, जिसे पूरा करने के लिए उस ने तालिबान के भीतर चरमपंथीयोंको भर्ती करने की शुरुआत की। इसे देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए प्रस्ताव पारित किया, जिस का कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला।

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अफगानिस्तान में अमेरिका की एंट्री

11 सितम्बर 2001 को फिलिस्तीन के मसलों को ले कर लादेन ने अमेरिका के ‘वर्ल्ड ट्रेड सेंटर’ और पेंटागन पर हवाई हमला कर दिया, जिस में कई लोगों की जानें गईं। इस घटना के बाद अमेरिका हरकत में आया और उस ने तालिबान से लादेन को सौंपने के लिए कहा। 

अमेरिका के इस प्रस्ताव को तालिबान ने अस्वीकार कर दिया। इसे देखते हुए अमेरिका भड़क गया और उस ने तालिबान के कई स्ट्रैटेजिक बेस पर खतरनाक हवाई हमले किए। हमले में तालिबान को काफी क्षति पहुंचती है, जिस के चलते काबुल से उस का नियंत्रण पूरी तरह टूट जाता है।

इस हमले के कारण तालिबान के कई नेताओं को भाग कर पाकिस्तान में शरण लेनी पड़ी थी। इस के बाद लंबे समय तक अफगानिस्तान में अस्थिरता का माहौल बना रहा, जिसे देखते हुए अमेरिका अपनी सेना वहां पर तैनात करता है।

करीब 20 साल तक अफगानिस्तान में रह कर तालिबान और अलकायदा के खिलाफ लड़ने वाली अमेरिकी सेना अब अपने पैर वापस खीच रही है। 

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन पहले ही कह चुके हैं कि इस साल 11 सितम्बर तक अमेरिकी सेना की पूरी तरह से वापसी हो जाएगी। इस फैसले से तालिबान के हौसले फिर से बुलंद हैं और तालिबान इसे अपनी जीत और अमेरिका की हार के रूप में देख रहा हैं। 

वहीं दूसरी तरफ अफगान सेना और तालिबनियों के बीच लगातार युद्ध चल रहा है। दरअसल 9/11 हमले के बाद अमेरिका ने न सिर्फ तालिबान को अफगानिस्तान की सत्ता से बेदखल किया बल्कि अलकायदा से भी अपना बदला पूरा कर लिया लेकिन इस दौरान अमेरिका को भी इस की भारी कीमत चुकानी पड़ी। 

उस के 2300 से ज्यादा सैनिकों की जान चली गई और 20,000 से ज्यादा सैनिक घायल हो गए। अंतर्राष्ट्रीय मंचों के अलावा अमेरिका के चुनाव में भी कई बार ये मुद्दा बना। अब सवाल यह है कि अमेरिकी फौज के जाने के बाद अब अफगानिस्तान का क्या होगा?

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अमेरिका की नीति

अमेरिका की तालिबान के खिलाफ अफगानिस्तान नीति पूरी तरह सत्ता के इर्द-गिर्द केंद्रित रही है। जब-जब अमेरिका में सत्ता बदली है, तब-तब उस का असर अफगानिस्तान पर पड़ा है। 20 वर्ष पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने तालिबान के खात्मे के लिए जंग छेड़ी थी। 

उन के बाद बराक ओबामा ने पूरी ताकत झोंक दी। फिर ट्रंप के दौर में तालिबान से दोहा डील नामक समझौता हुआ। इस के बाद, बाइडन के कार्यकाल में सेना लगभग पूरी तरह वापस आ चुकी है। जबकि अफगानिस्तान में तालिबान वापस सक्रिय तौर पर पैर जमा चुका है। बुश ने जंग छेड़ी थी, ओबामा ने तेज की, ट्रंप ने समझौता किया और बाइडन ने सेना वापस बुलाई।

तालिबान के खात्मे के उद्देश्य के साथ शुरू हुए इस जंग में अमेरिका ने 20 सालों के दौरान दो ट्रिलियन डॉलर यानी लगभग दो लाख करोड़ डॉलर खर्च किए। इतना ही नहीं इस जंग में अमेरिका के 2300 से ज़्यादा और नाटो देशों के लगभग 700 से ज़्यादा सैनिकों की जाने गई है। 

वहीं, अफगानिस्तान की सेना के 60 हजार जवान और 40 हजार नागरिकों को भी जान से हाथ धोना पड़ा है। लेकिन फिर भी नतीजा वहीं ढाक के तीन पात ही है। तालिबान ने अफगानिस्तान में वापस पैर जमाना शुरू कर दिया है।

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भारत पर कितना असर

पाकिस्तान के बाद अपने पड़ोस में एक और हुकुमत भारत के लिए बड़ी चुनौती है। पड़ोस में अफगानिस्तान की मजबूती भारत के हक में है क्योंकि इस के जरिए भारत पाकिस्तान को तो घेर ही सकता है, साथ ही चरमपंथी गतिविधियों पर नकेल कसने में भी मददगार साबित हो सकता है, लेकिन तालिबान का चीन की तरफ झुकाव भारत के लिए किसी लिहाज से फायदेमंद नहीं है। 

इस से व्यापारिक और कूटनीतिक दोनो तरह का नुकसान हो सकता है। भारत ने अपने पुराने पड़ोसी अफगानिस्तान में करीब 3 अरब डॉलर का भारी भरकम निवेश कर रखा है। कई प्रोजेक्ट पूरे हुए तो कई पर काम चल रहा है जो अफगान के विकास में बेहद मददगार साबित हुए हैं, चाहे सड़क और पुल का निर्माण हो, बिजली के पावर प्रोजेक्ट हों या स्कूल अस्पताल। 

भारत की सब से बड़ी चिंता फिलहाल उन प्रोजेक्ट को सुरक्षित रखने की है जिसे लगाने में भारत ने न सिर्फ अरबों डालर लगाए हैं बल्कि जिन के साथ उस के रणनीतिक हित भी जुड़े हुए हैं। इन में सब से अहम परियोजना ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान के देलारम तक की सड़क परियोजना है। 218 किलोमीटर लंबी ये सड़क आने वाले दिनों में अफगानिस्तान को सीधे चाबहार बंदरगाह से जोड़ेगी।

अफगान में तालिबान का फिर से उभार चिंता का विषय इसलिए भी है क्योंकि इस के करीब 20 से ज्यादा चरपंथी संगठनों से तार जुड़े हैं। यह सभी संगठन रूस से ले कर भारत तक में ऑपरेट होते हैं। अफगानिस्तान में बिगड़ते हालात को देखते हुए भारत सरकार ने कंदहार से अपने दूतावास में तैनात कर्मचारियों को भारत वापस बुला लिया है। 

हालाकि  विदेश मंत्रालय का कहना है कि इस का ये मतलब नहीं है कि हम ने अफगानिस्तान में अपना दूतावास बंद कर दिया है।

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तालिबान से क्या खतरा

अफगानिस्तान की खूबसूरत वादियों से होते हुए भारत ने मध्य एशिया तक पहुंचने, कारोबार आदि को बढ़ाने का सपना संजोया था। इसे करारा झटका लग सकता है। ताजकिस्तान, किर्गिस्तान, तर्कुमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे देशों के साथ भारत के व्यापार, कारोबारी रिश्ते में समस्या खड़ी हो सकती है। 

गैस पाइपलाइन जैसी तमाम योजनाओं को करारा झटका लगने का खतरा दिखाई दे रहा है। भारत ने पिछले 20 साल में वहां की अफगान सरकार से सहयोग का रिश्ता बना कर तीन अरब डालर से अधिक का निवेश किया है। अफगानिस्तान में ऊर्जा संयंत्र, बांध का निर्माण, राजमार्ग के निर्माण, स्कूल, भवन, संसद भवन के निर्माण में भारत ने अहम भूमिका निभाई है। 

अफगान के सैनिकों को ट्रेनिंग समेत अन्य तमाम सुविधाएं प्रदान की हैं। भारत की योजना अफगान में सड़क और रेल लाइन बिछाने तथा मध्य एशिया तक फर्राटा भरने की थी। ऐसा माना जा रहा है कि तालिबान के आने के बाद इन सभी कोशिशों को करारा झटका लग सकता है।

सबसे बड़ा खतरा भारत के सामने तालिबान में अस्थिरता फैलने के बाद चरमपंथ, उग्रवाद, अलगाववाद फैलने का है। इस से वहां अस्थिरकारी ताकतें हावी हो सकती हैं और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. पाकिस्तान से संचालित चरमपंथी संगठन इस के सहारे भारत में अस्थिरता की गतिविधियां बढ़ा सकते हैं। 

गौरतलब है कि अफगान में मुल्ला उमर के नेतृत्व में तालिबानी शासन के दौरान ही जैश-ए-मुहंमद के चरमपंथीयों ने भारतीय विमान IC814 का अपहरण किया था और बदले में भारत को जैश सरगना मौलाना मसूद अजहर समेत तीन खूंखार चरमपंथी छोड़ने पड़े थे। चिंता की लकीरें

भारत सरकार ने पिछले 20 साल में तालिबान और इस के नेताओं से कभी कोई संपर्क नहीं साधा। यहां तक कि 2008-09 में पाकिस्तान की तालिबान के नेताओं से अमेरिकी प्रतिनिधियों की बातचीत जैसे प्रयास का विरोध किया था। भारत ने अच्छे और बुरे तालिबान के तर्क को भी खारिज कर दिया था। 

भारत सरकार ने अपने हित और अफगान के निर्माण का रास्ता वहां की सरकार के माध्यम से तय किया। भारत की इस कोशिश के सामानांतर पाकिस्तान तालिबान की सरकार को सब से पहले मान्यता देने वाले देशों में शामिल था। पाकिस्तान ने ही सब से अंत में तालिबान सरकार के साथ अपने राजनयिक रिश्ते समाप्त किए। 

विदेश, रक्षा, खुफिया जानकारों की मानें तो तालिबान के तमाम सैन्य कमांडरों और कई शीर्ष नेताओं को पाकिस्तान से सहायता मिलती है। चीन ने भी अफगान में अपनी योजना को साकार करने के लिए पाकिस्तान का सहारा लिया है। चीन के ही प्रयास से रूस ने पाकिस्तान के साथ संबंध ठीक किए हैं और चीन, रूस, ईरान, पाकिस्तान अपना हित साधने का रोडमैप बना रहे हैं। 

तुर्की ने अफगान में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के प्रयासों को तेज कर दिया है। उस ने एक तरफ अमेरिका तो दूसरी तरफ पाकिस्तान को साधने की भी कोशिशें तेज की हैं। इस रोडमैप में भारत के पास सब से विश्वस्त सामरिक साझीदार सहयोगी देश केवल रूस है। यह चिंता केवल भारत की नहीं है। उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान की भी है। हालांकि ये अफगानिस्तान के पड़ोसी देश हैं।

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भारत के हाथ में क्या है?

सामरिक और सुरक्षा के जानकार कभी अफगानिस्तान में सीरिया जैसे हालात पैदा होने की आशंका से पीड़ित हो रहे हैं तो कभी वहां बड़े पैमाने पर गृहयुद्ध भड़कता दिखाई दे रहा है। अब देखना है कि, अमेरिका क्या कदम उठाता है। 

अफगान मामलों से जुड़े और विदेश मंत्रालय के अवकाश प्राप्त राजनयिक ने ऑफ द रिकार्ड कहा कि अफगान टाइम बम की तरह है। वह कहते हैं कि चुनौती बड़ी है और चुनौती के लिहाज से समय काफी कम है। 

वह कहते हैं कि समस्या कुछ खास कारणों से बड़ी है। पहली तो यह कि पिछले 15 साल में तालिबान ने अपनी ताकत खूब बढ़ा ली है। पश्तो समूह के लड़ाके तालिबान में यकीन रख रहे हैं। दूसरे हजारा, बलोच, उज्बेक और नॉदर्न अलायंस के सैन्य कमांडरों में एकता नहीं है। इस्माइल खान जैसे लोगों के क्षेत्र में तालिबान ने कब्जा कर लिया है।

भारत के हाथ में क्या है?, यह सवाल पेचीदा है। इस का जवाब किसी के पास नहीं है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की टीम इसी का जवाब तलाशने में लगी है। इस टीम को पता है कि अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता पर काबिज हुआ तो हालात 90 के दशक से कई गुना अधिक खराब हो सकते हैं। 

अफगान और तालिबान से संबंधों तथा हितों के मामले में भारत को ऐसी स्थिति में दूसरे देशों पर अधिक निर्भर रहना पड़ सकता है। सऊदी अरब, यूएई, रूस, ईरान अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं।

इस पुरे विवेचन से एक बात तो साफ़ हैं कि जैसे जैसे तालिबान अफगानिस्तान में मज़बूत होता जा रहा हैं वैसे वैसे भारत की चिंता में भी इज़ाफा होता जा रहा हैं। हमें यहाँ यह नहीं भुलना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई किसी का स्थायी शत्रू या मित्र नहीं होता अगर कुछ स्थायी होता हैं तो वह हैं हमारे हित। 

और इन ही हितों की रक्षा के लिए भारत को बीच का मार्ग खोजना होगा। यहाँ भारत सॉफ्ट पावर का प्रयोग कर सकता हैं क्योंकि दोनों देशों के बीच एक साझी विरासत की डोर हैं जो दोनों को एक दुसरे से करीब ला सकती हैं।  हमें साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते।

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