हर व्यक्ति इस बात से सहमत है कि चैनलों की डिबेट ड्रामा बन गई हैं। टीवी चैनलों की चर्चाओं पर हर तरफ से पक्षपाती होने के भी आरोप लग रहे हैं। आरोप इस हद तक पहुंच गए हैं कि कुछ चैनलों की डिबेट्स का कांग्रेस ने बहिष्कार कर रखा है तो कुछ चैनलों पर भाजपा के प्रवक्ता नहीं जाते।
इसके लिए राजनीतिक पार्टियां एंकर्स को तो एंकर्स‚ प्रवक्ताओं और राजनीतिक दलों को जिम्मेदार बताते हैं। ‘जिम्मेदार कौन’‚ इस बहस में पड़े बिना मैं मानता हूं कि इस ‘बहिष्कार’ ने टीवी डिबेट्स के गिरते स्तर को और गिराने में बड़ी भूमिका निभाई है क्योंकि राजनीतिक प्रवक्ताओं की खाली जगह को भरने के लिए नये-नये ‘विशेषज्ञ’ आ गए हैं‚ जिनकी विशेषज्ञता सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध करने की होती है और क्योंकि इनकी कोई जवाबदेही नहीं होती इसलिए ये बहस में कुछ भी कह देते हैं।
कुछ मुट्ठी भर प्रवक्ताओं को छोड़ दें तो ज्यादातर प्रवक्ता ‘मुंह-तोड़’ जवाब देने की प्रक्रिया में इन ‘विशेषज्ञ’ मेहमानों के स्तर पर उतर आते हैं। इस तरह जहरीली डिबेट्स को और जहरीला बनाने में इनकी भी अहम भूमिका है। दुर्भाग्य से टीआरपी के कारण चैनल्स को ये विशेषज्ञ अब भाने भी लगे हैं।
मीडिया मंथन :
डिबेट के हत्यारे
वैसे तो आजकल ज्यादातर ‘विशेषज्ञों’ को न्यूज चैनलों के पूर्व संपादकों को यह कहना बहुत सूट कर रहा है कि मुंबई से चलने वाला एक न्यूज चैनल और उसके चिल्लाने वाले संपादक अर्णब गोस्वामी ‘न्यूज चैनलों की डिबेट के हत्यारे’ हैं।
एक बड़े चैनल के संपादक पद से इस्तीफा देकर राजनीति में जाने और वहां असफल रहने पर वापस संपादक बन जाने वाले आशुतोष ने इन्हें गिद्ध की संज्ञा दे दी है। सोशल मीडिया पर मुहीम चलाई हुई है कि टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) की व्यवस्था को तुरंत खत्म किया जाए।
अभी पिछले महीने ही जब कांग्रेस के प्रवक्ता राजीव त्यागी की एक टीवी चैनल पर बहस करने के तुरंत बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई‚ तब कांग्रेस के कई नेताओं ने मांग की थी कि चैनलों पर होने वाली बहस के लिए आचार-संहिता बनाई जाए।
सबके अपने-अपने एजेंडा हैं‚ अपने-अपने दर्द हैं पर क्या सिर्फ एक चैनल‚ एक संपादक के माथे पर सारा दोष मढ़ कर हम अपने-अपने ‘पाप’ छुपाने की कोशिश नहीं कर रहे? मैं अर्णब की डिबेट शैली का न तो प्रशंसक हूं‚ न ही समर्थक लेकिन कैसे भूल जाऊं कि टेलीविजन के जो पूर्व संपादक अर्णब पर टीवी डिबेट्स की हत्या करने का आरोप लगा रहे हैं‚ उन्होंने अपने दौर में न्यूज चैनलों पर सांप-संपेरों की कहानियां दिखाई‚ स्वर्ग की सीढ़ियां चढ़वाई और युधिष्ठिर के कुत्ते से मिलवाया।
जो आशुतोष आज टीवी पत्रकारों को अपने ट्वीट में गिद्ध कहते हैं‚ टीआरपी को बंद करने की मुहिम चलाए हुए हैं‚ उन पर खुद टीआरपी के लिए फर्जी स्टिंग ऑपरेशन दिखाने का आरोप है जिस पर अदालत में उन्हें माफी भी मांगनी पड़ी। और जिस डॉक्टर की जिन्दगी उनके फर्जी स्टिंग ऑपरेशन से बर्बाद हो गई वो डॉक्टर गिद्ध वाले रूपक पर कैसे अट्टहास करें?
इधर कुछ लोग टीआरपी खत्म करने की मुहिम को भी प्रायोजित बताते हैं‚ इसलिए क्योंकि 18 साल से टीआरपी के बादशाह चैनल को 18 महीने पुराने चैनल ने पीट दिया है। और कांग्रेस के जो प्रवक्ता राजीव त्यागी की मृत्यु के बाद आचार संहिता के बिना टीवी चैनलों की डिबेट का बहिष्कार करने की बात कर रहे थे उन्हें आप चीन पर डिबेट में चिल्लाते हुए देख सकते हैं। दरअसल‚ इस हमाम में सब नंगे हैं।
मीडिया मंथन :
‘नाटकीयता’ बड़़ा फैक्टर
न्यूज चैनलों की डिबेट्स पर हम जब भी बहस करें‚ हमें नहीं भूलना चाहिए कि दुर्भाग्य से भारत में ‘नाटकीयता’ (संभ्रांत तरीके से बात करना चाहें तो आप इसे रोचकता कह सकते हैं) न्यूज चैनलों की सफलता का बड़ा फैक्टर है। और ऐसा नहीं है कि ये कोई आज की बात है।
90 के दशक में जब भारत में न्यूज चैनलों की शुरुआत हुई तब भी रजत शर्मा को इंटरव्यू आधारित कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाने के लिए ‘अदालत’ का नाटक क्रिएट करना पड़ा। आज ‘जनता की अदालत’ चैनलों पर चलने वाला सबसे लंबा और सफल शो है। जहां एंकर पत्रकार न होकर जनता का वकील है‚ कठघरा है‚ मुल्जिम है और जज साहब भी हैं।
नब्बे के उस दौर से लेकर अब तक‚ हर दौर में टीवी पर सफलता के लिए कुर्सी पर बैठा हर संपादक अपने-अपने स्तर पर ‘नाटकीयता’ के प्रयोग करता रहा है। टीआरपी के बोझ तले दबे संपादक को ‘खबरों की मौत’ पर दुख जताते नहीं देखा‚ लेकिन कुर्सी से हटते ही ये संपादक मातम शुरू कर देते हैं।
बकौल कुछ रिटायर्ड संपादकों के आज टीआरपी की व्यवस्था को हम बंद भी कर दें तो क्या इससे टीवी चैनलों की बहस का स्तर सुधर जाएगा? हरगिज नहीं। आज तो सोशल मीडिया का दौर है जहां लोग टीवी से ज्यादा मोबाइल में यूट्यूब पर‚ ट्विटर पर डिबेट देख रहे हैं और वहां एक-एक हेड काउंट होता है।
कहने के लिए आज लोग कह देते हैं कि हम टीवी डिबेट्स देखते ही नहीं‚ या कि प्राइवेट चैनलों की जहरीली डिबेट्स देखने से अच्छा है डीडी न्यूज की डिबेट देखना जहां सभ्यता के साथ चर्चा होती है‚ पर जरा सोशल मीडिया पर भी जाकर देखें‚ जिन्हें जहरीली डिबेट्स कहा जाता है उनकी दर्शक संख्या लाखों में होती है तो सभ्यता के साथ सार्थक बहस को हजार दर्शक ही मिल पाते हैं।
हमें समझना होगा कि बात चाहे सोशल मीडिया के हिट्स की हो या टीआरपी की‚ ये आंकड़े और कुछ नहीं दर्शकों की पसंद बताते हैं। और बाजारवाद के इस दौर में कोई भी संपादक‚ कोई भी चैनल मालिक दर्शकों की पसंद को नजरंदाज नहीं कर सकता।
आखिर‚ जिस संपादक को आज आप टीवी डिबेट्स का/खबरों का हत्यारा बता रहे हैं‚ दर्शक उसे नंबर वन का ताज पहना चुके हैं। इसलिए अगर हम कुछ संपादकों को कुछ न्यूज चैनलों को ही टीवी डिबेट्स के गिरते स्तर का दोष देना चाहते हैं‚ तो जरूर दें‚ यह हमारा अधिकार है और ऐसा करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। लेकिन यह तय है कि इससे हमें हासिल हमें कुछ न होगा।
( ये आलेख 19 सितम्बर 2020 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ था।)
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लेखक ड़ीड़ी न्यूज वरिष्ठ संपादक हैं।