भाषा के धर्मकरण में हमने सृजन खो दिया हैं। संस्कृत और उर्दू इसके पहले शिकार बने हैं। साहित्य जगत में सांस्कृतिक राजनीति नें भाषाई विधा तथा अभिव्यक्ति पर बंदिशे लगा दी हैं। जिसके परिणामस्वरूप कुदरती अभिव्यक्ति और सहजता को हमने खो दिया हैं।
अंग्रेजी भाषा के नाटकियता नें हमे कृत्रिमता कि ओर धकेला हैं। जिससे हम कॉस्मोपॉलिटिन होने का और अभिव्यक्त होने का स्वांग रचा रहे हैं। पर आज भी कुछ लोग ऐसे जो अपनी मूल भाषा में बोलना-लिखना पसंद करते हैं। जिनके बलबुते भाषाएं बची हैं।
प्रसिद्ध साहित्यिक नासिरा शर्मा का यह आलेख भाषा के इसी तत्व पर मंथन करता हैं, जिसमें उन्होने मातृभाषा उर्दू को अपनी असल अभिव्यक्ति मानी हैं।
अंग्रेज़ी के अध्यापक एवं ज्ञानी जब सृजन करते हैं तो वे अपनी ज़बान उर्दू या हिन्दी में ही करना पसंद करते हैं। मगर अपवाद मौजूद हैं। रघुपति सहाय ‘फिराक़ गोरखपुरी’ ने हिन्दी की जगह उर्दू को चुना। यहाँ मसला ज़बान का न होकर अपनी पसंद की अभिव्यक्ति का होता है।
तो भी मेरे सिलसिले से यह बात अपने में अहम है कि पूरे खानदान में शायर और लेखक उर्दू में लिखते रहे हैं। फिर मैंने क्यों हिन्दी को चुना? उसका जवाब है कि मेरी हिन्दी की टीचर खुराना बहिन जी थीं। उर्दू की टीचर कुबरा बाजी मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी के खानदान से थीं।
उनकी बातों का अन्दाज़ कटाक्षभरा होता। वह सर पर दुपट्टा रखने और नमाज़ पढ़ने की हिदायत देतीं और कभी-कभी मेरी जरा सी चक पर कक्षा में खडा कर कहती ‘यह उर्दू के प्रोफेसर की बेटी की राइटिंग है!’
उसके विपरीत हिन्दी टीचर सजी-धजी एक ख़ास मुस्कान वाली थीं। हमारा संबंध दोस्ताना-सा था। जब वह सूर-तुलसी-केशव पढ़ातीं तो उनका उच्चारण हमें मजबूर करता यह कहने के लिए कि बहिन जी, एक बार फिर दोहराइए। यह वाक्य कहने की हिम्मत हममें कुबरा बाजी से नहीं थी।
बचपना था। मातभाषा क्या होती है इन प्रश्नों से हम दूर थे। जो अच्छा लगा, वह अपनाया और यही कारण रहा कि हमारे कालेज से निकली मुस्लिम लड़कियों ने न केवल हिन्दी, बल्कि संस्कृत में भी एम. ए. किया।
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सामाजिक परिवेश
जो परिदृश्य पिछले 10-15 वर्षों में साहित्य में जाति के आधार पर दाखले का है, वह पहले नहीं था। तब दो तरह की रचनाएँ मानी जाती थीं-अच्छी या ख़राब, मगर इतना ज़रूर कहूँगी कि हिन्दी में दो भाषा जानने वाले लेखकों की जो चाश्नी ज़बान में आती है और भारत के अन्य सामाजिक परिवेश उभरते हैं, उन्हें पसंद करने के साथ बडे शौक़ और ललक से पढ़ा जाता रहा है, चाहे वह बदीउज़्जमा हों या शानी या फिर भीष्म साहनी हों या राजेन्द्र सिंह बेदी।
मैं यहाँ उर्दू भाषा के लेखक क़ाज़ी अब्दुल सत्तार की बात कहना चाहूँगी, जो उन्होंने दस पन्द्रह वर्ष पहले मुझसे ‘संगसार’ सुनने के बाद पूछी थी कि क्या बात है कि तुम्हारे लिए मैं किसी के मुँह से सुपरलेटिव नहीं सुनता हूँ, जब दूसरी ख़ातून की मामूली कमज़ोर तसानीफ़ पर ज़मीन आसमान के कुलाब मिलाते हिन्दी वालों को देखा है। मेरा जवाब सिर्फ इतना था कि यह तो आप उन्हीं से पूछे।
यह ग़लतफ़हमी बराबर लोगों में ज़ोर पकड़ रही है कि चूँकि उर्दू को सरकार नहीं पूछ रही है, इसीलिए उसका कोई भविष्य नहीं है; जब कि अदब पहले से ज़्यादा रफ़्तार में लिखा जा रहा है और इसका उदाहरण बशीर बद्र जैसे अनेक नाम हैं, जो ग़ज़लों में किस तरह ग़मे हिजाँ और ग़मे दौराँ को मिला नया रंग पैदा करते हैं।
उसको लोग कवि-सम्मेलनों और मुशायरों में सुनते हैं, यदि वे लिखित कहानियाँ या उपन्यास नहीं पढ़ पाते हैं। यहाँ पर मैं उस तहज़ीब का भी ज़िक्र करना चाहूँगी; जो भारतीय है, जहाँ अपने से ज़्यादा दूसरों को सम्मान दिया जाता है। हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं का ही नहीं, बल्कि अन्य देशों के अदब का भी अनुवाद होता है। मगर जब ‘बाज़ार’ को नज़र में रख कर इसमें असंतुलन बढ़ जाता है, तब खलता ज़रूर है।
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कला की दृष्टि
किश्वर नाहीद ने यह जुमला एक महफ़िल में कहा था कि “ऐसी चीज़ यहाँ लिखी नहीं जाती, इसीलिए लोग हमें बार-बार सुनना पसंद करते हैं।”
उस तरह की कविताओं का हिन्दी में ढेर है। मगर जब अपनों को दबाने और पीछे धकेलने की कोशिश अपनों के हाथों की जाती है तो गुस्से का फटना लाज़मी है।
‘खुलापन’ लेखन में लाना है तो हिम्मत की बात, मगर उसमें कला की दृष्टि से सबसे बड़ा जोख़िम यह होता है कि जब सब-कुछ आपने खोल दिया तो समझना, सोचना, महसूस करना और जीने की सारी संभावना पर पानी फेरना जैसा है।
लेकिन एक सच यह भी है कि यदि किसी के जीवन-अनुभव यही हैं तो वह वही लिखेगा। मगर यह सच नहीं है कि हिन्दी साहित्य में सभी इसमें लिप्त हैं या हिन्दी में वही छप रहे हैं या पसंद किये जा रहे हैं।
हर बात के दो रुख हैं। दूसरा पक्ष ऐसी बातों को पसंद नहीं करता है, क्योंकि उनका विश्वास है कि साहित्य ‘भोंडेपन’ का प्रस्तुतिकरण नहीं, बल्कि ज़िन्दगी के भोंडे यथार्थ को कलात्मक कसौटी पर कसने का नाम है, जिसमें संकेत की बहुत अहम भूमिका है।
जो अनकहा छूट जाये, उसे आत्मसात कर समझना, उससे लुत्फ़ उठाना ही दरअसल सृजनात्मक कृतियों का भेद है और जब तक यह भेद रचना में मौजूद है, तब तक वहाँ सौंदर्यबोध भी है। वरना जो मर्द-औरत का रिश्ता आदिम काल से चला आ रहा है, उसके खुले बयान की ऐसी ज़रूरत होती नहीं है कि हम उसके सारे आयामों को मेडिकल पाठ की तरह खुल कर विद्यार्थियों के संमुख रखें।
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साहित्य की रुकावट
मैं आज तक एक बात समझ ही नहीं पाती हूँ कि जिस बात को करने में आप अंदर से मर जाते हों, वह क्यों करते हैं? केवल स्पर्धा बनाए रखने और अपने आपको ज़बरदस्ती जिलाये रखने में? शायद क्या, यक़ीनन इस घालमेल ने आज लेखन को बहुत क्षति पहुँचायी है।
इस दृष्टि से भी कि छोटी पुस्तक की बड़ी समीक्षा और बड़ी पुस्तक के प्रति ख़ामोशी बेहतर साहित्य की रुकावट बनती जा रही है। इसी लेन-देन की संस्कृति के कारण, जब हम प्रचार प्रसार से हट संजीदगी से रचनाओं पर बात करते हैं, तब हम ‘बेदख़ल सूरज सब का है’ और ‘कितने पाकिस्तान’, ‘सभापर्व’, ‘डोला बीबी का मज़ार’, ‘खुशबू बन कर लौटेंगे’, ‘पहला गिरमिटिया’ की तरह हर उस रचना पर बात करेंगे, जिसने क़लम द्वारा गम्भीर हस्तक्षेप किया है।
रही मेरी बात, तो इतना मैं कह सकती हूँ कि हर छोटे-बड़े इन्सान के पास अपना साम्राज्य होता है। मैं तो बिना पैसा दिये ही अपने पति के उन शागिर्दो पर सवारी गाँठ सकती थी, जो मंत्रालय, विश्वविद्यालय और प्रशासन में छाये हैं। मेरी यात्रा तो जेट की तरह होती, मगर मुझे ज़िन्दा रहने का शौक़ है।
(यह आलेख अक्तूबर-दिसंबर 2007 के ‘हिंदुस्तानी जबान’ त्रैमासिक (हिंदी और उर्दू) शोध पत्रिका से लिया गया हैं)
जाते जाते :
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