सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी, ये गुलिस्ताँ हमारा..
हर साल 15 अगस्त और 26 जनवरी की सुबह यह गीत सीधा दिल में उतर जाता है और देशभक्ति का जोश हमारी रगों में दौड़ने लगता है। लेकिन एक खास बात ये है कि इस गीत को लिखा है महान कवि अल्लामा इक़बाल यानी सर मुहंमद इक़बाल ने।
डॉ. इक़बाल को जानने के लिए शायद कुछ देर काले चश्मे को उतार कर इतिहास को देखना होगा। उस दौर की तब्दीलियों को बारीकी से समझना पड़ेगा। इस बात को शायद पहेली करार दिया जाए कि 19वीं शताब्दी में एक कश्मिरी ब्राह्मण परिवार इस्लाम को कबूल कर पंजाब प्रोविंस यानी अब के पाकिस्तान में जा बसा।
इसी परिवार में शेख नूर मुहंमद और इमाम बीबी के घर 9 नवंबर 1877 को सियालकोट में इक़बाल का जन्म हुआ। 6 बरस की उम्र में किसी मस्जिद में कुरआन शरीफ पढ़ते हुए उन्होंने अपनी तालीम का सफर शुरू किया था। जो बाद में ‘अल्लामा’ कहलाए।
इक़बाल ने 1885 में आर्ट्स में बैचलर की डिग्री हासिल की और आगे की तालीम के लिए विदेश चले गए। 1905 में ट्रिनिटी कॉलेज कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की। साल 1907 में डॉक्टर इन फिलॉसफी (पीएचडी) म्युनिख, जर्मनी से किया।
बाग-ए-बहिशत से मुझे हुक्म-ए सफर-दिया था क्यों
कार-ए-जहान दराज़ है अब मेरा इंतजार कर
बरसरे रोजगार का इंतजार खत्म हुआ लाहौर आकर। यहीं के एक कॉलेज में इक़बाल ने जूनियर प्रोफेसर के तौर पर नौकरी शुरू कर ली। कुछ वक्त तक लाहौर कोर्ट में वकालत भी की। इस के बाद अंजुमन-ए-हिमायत-ए-इस्लाम नाम की संस्था के सदस्य बने।
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तेज़-तर्रार वकील से राजनेता
इक़बाल साहब इस्लामिक रवायतों के हिमायती थे। इस को लेकर उन का नज़रिया काफी सख्त था। वे मुसलमानों के अधिकारों के पैरोकार थे। उनका सिद्धान्तों से समझौता करने का सवाल ही नहीं था। एक राजनेता, स्कॉलर और तेज़-तर्रार वकील तो वो थे ही, लेकिन उनका दूसरा पहलू एक फिलॉसफर और कवि का भी था जिसका दिल साफ और नाज़ूक भी था।
इक़बाल साहब जिन्दादिल इन्सान थे। वो अक्सर हौसले के साथ यूथ से मुखातिब हुआ करते थे।
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
उनका यह शेर आज भी जोश भर देता है। उनकी तकरीरें सुनने वालों पर गहरा असर छोड़ती थी। इस्लामिक राइट स्कोर को लेकर उनका नज़रिया बिल्कुल साफ था। यहीं वजह है की 1930 में उन्हें मुस्लिम लीग का अध्यक्ष चुन लिया गया।
उनका नज़रिया कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ था। उन्होंने गोलमेज कांफ्रेंस में मुसलमानों के लिए अलग ज़मीन का पक्ष रखा। इस सपने को पूरा करने के लिए उन्हें मुहंमद अली जिन्ना में लीडरशिप की काबिलियत दिखाई दी।
डेमोक्रेसी को लेकर उनका नजरिया बाकी लोगों से काफी अलग था। उनका कुछ नायाब लिटरेचर हैं, जिस से उनकी शख्सियत का परिचय मिलता है। ‘असरार-ए-खुदी’ एक रिलीजियस स्पिरिचुअल पर्सपेक्टिव से लिखी फिलॉसफी है, जिसमें खुदी यानी सेल्फ के बारे में कहा गया है। रूह एक डिवाइन स्पार्क है जो हर इन्सान में मौजूद है।
अपने मन में डूब कर पा जा सुराग-ए-जिंन्दगी
तू अगर मेरा नहीं बनता, न बन,अपना तो बन
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उच्च कोटी के कवि
1924 में उनकी लिखी पैगाम-ए-मशरिक (मैसेज फ्रॉम द ईस्ट) में उन्होंने वेस्टर्न वर्ल्ड के बहुत ज्यादा मैटेरियलिस्टिक होने को निशाना करते हुए दावा किया है कि ईस्ट ही दुनिया को उम्मीद का पैगाम और स्पिरिचुअल वैल्यूज़ वापस लौटाएगा।
उन्होंने मोरालिटी, रिलीजन और सिविलाइज़ेशन पर ज़ोर दिया है। इक़बाल साहब के और भी कई कलाम हैं, जिनमें ज़बूर-ए-अजम, जावेद नामा, बांग-ए-दरा, तराना-ए-हिंद जैसे कई बेहतरीन कलेक्शन की लंबी फेहरिस्त है। फ़ारसी और अंग्रेज़ी में लिखे उनके थीसिस, ‘डेवलपमेंट ऑफ मैटर फिजिक्स’, या फिर ‘द रिकंस्ट्रक्शन आफ रिलिजियस थॉट इन इस्लाम’ उन्हें बुद्धिजीवियों में अमर कर देते हैं।
यूं तो इक़बाल साहब के विचारों से हर कोई इत्तेफाक नहीं रखता, लेकिन उनके कलाम उन्हें एक बेहतरीन शायर के तौर पर हमेशा याद करने पर मजबूर करते रहेंगे। अल्लामा इक़बाल जैसे शायर कम ही हुआ करते हैं जैसा कि वह खुद ही फरमा गए …
हज़ारो साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
उन्नीसवीं सदी के आख़िर में उर्दू साहित्य विक्टोरियाई (महारानी विक्टोरिया 1819-1901) मूल्यों (निष्ठा) के रंग में रंगने लगा था, हालाँकि ऐसी कई ताक़तें भी थीं जो इसे अलग-अलग दिशाओं की तरफ़ खींच रही थीं। इस दौर में लिखने वाले ज़्यादातर लोग ‘अलीगढ़ स्कूल’ से ताल्लुक़ रखने वाले या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैय्यद अहमद ख़ान और उनके साथी अल्ताफ़ हुसैन से प्रभावित थे।
लेकिन लिखने वालों की एक दूसरी धारा भी थी जो ये मानने लगी थी कि ब्रितानी हित और मुस्लिम हित अलग-अलग हैं। मिसाल के तौर पर शिबली नोमानी (1857-1914) और सज्जाद हुसैन ने राष्ट्रवादी और ब्रिटेन विरोधी आवाज़ों को धार देना शुरू किया।
बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवियों में से एक इक़बाल (1877-1938) को हमें इसी पृष्ठभूमि में पढ़ना चाहिए। उनको ज़्यादातर लोग अल्लामा इक़बाल के नाम से जानते हैं। अल्लामा का अर्थ होता है विद्वान।
इक़बाल में हमें सिर्फ़ इसलिए दिलचस्पी नहीं है क्योंकि वो पहले कवि थे जिन्होंने न केवल पहली बार ये जानने-समझने की कोशिश की कि मुसलमानों के दिल-व-दिमाग़ में क्या चल रहा है, बल्कि इसलिए भी है क्योंकि अपनी कविताओं से मुस्लिम समाज को जगाने और क्रांति के लिए प्रेरणा भी दी- शायद ही उनसे पहले किसी उर्दू कवि ने ऐसी कोशिश की हो।
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लेक्चरर से दार्शनिक तक
लाहौर के प्रतिष्ठित गवर्नमेंट कॉलेज से 1899 में ग्रेजुएट करने के बाद इक़बाल ने इसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के लेक्चरर के रूप में नौकरी भी की। इसके बाद उन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज और जर्मनी के हाइडलबर्ग और म्यूनिख़ में दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने क़ानून की भी पढ़ाई की।
विलायत से लौटने के बाद उन्होंने गवर्नमेंट कॉलेज में दो साल और पढ़ाया और उसके बाद सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। फिर वकालत से अपना किसी तरह गुज़ारा करने लगे और सारा ध्यान पढ़ने-लिखने में लगा दिया।
तू शाहीन है, परवाज़ है काम तेरा
तेरे सामने आसमां और भी है
सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क के इम्तिहाँ और भी हैं
इक़बाल ब्रितानी सरकार के मुखर आलोचक थे, लेकिन 1922 में उन्होंने ‘नाइटहुड’ (सर) की उपाधि स्वीकार कर सभी को हैरान कर दिया। 1927 में वो पंजाब असेंबली के लिए चुन लिए गए। 1928-29 में अलीगढ़, हैदराबाद और मद्रास विश्वविद्यालयों में उन्होंने छह लेक्चर दिए थे जिससे उनके धार्मिक विचारों का पता चलता है।
बाद में इसको एक किताब की शक्ल में छापा गया जिसका नाम ‘रीकंस्ट्रक्शन ऑफ़ रिलिजियस थॉट इन इस्लाम’ था। 1931 में उन्होंने लंदन में गोलमेज़ सम्मेलन में भारतीय मुस्लिम प्रतिनिधि के सदस्य के रूप में हिस्सा लिया। इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व आग़ा ख़ान ने किया था।
उनके समकालीन कवि अकबर इलाहाबादी (1846-1921) भी पश्चिम सभ्यता के कड़े विरोधी थे लेकिन पश्चिमी सभ्यता और ख़ासकर अंग्रेज़ों से उनका विरोध संस्कृति, सामाजिक मूल्यों और राजनीतिक कारणों से था, लेकिन इक़बाल ने धर्म और दर्शन के आधार पर पश्चिमी ज्ञान और अंग्रेज़ी भौतिकवाद पर सवाल खड़े किए।
शुरुआती दौर में इक़बाल और अकबर दोनों जीवन के लिए कला (आर्ट फ़ॉर लाइफ़ सेक) के समर्थक थे। दोनों ही पूरी तरह से राजनीतिक कवि थे और मुस्लिम समाज के भीतर चल रहे द्वंद्व से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे।
ब्रितानी हुकूमत में ज़्यादातर मुसलमान बहुत ही मामूली नौकरी में थे और अंग्रेज़ सरकार से मुसलमानों को मिल रही मान्यता या प्रशंसा दिखावे से ज़्यादा कुछ नहीं थी। इन सब के कारण कवि इक़बाल को यक़ीन हो चला था कि इस्लामिक समाज में पुनर्जागरण की ज़रुरत है और वो इससे कम पर कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।
ढूंढता फिरता हूं मैं एक बार अपने आप को
आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंजिल हूं मैं
दिल को छू लेने वाली अपनी शायरी से उन्होंने भारतीय मुसलमानों को उनके गौरवशाली इतिहास की याद दिलाई और इस गौरवशाली इतिहास से सीखने और उसके रास्ते पर चलने की नसीहत दी।
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वैचारिकता के बदलाव
अपनी शुरुआती कविताओं में इक़बाल अखंड और स्वतंत्र भारत की बात किया करते थे, जहाँ हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रह सकेंगे। लेकिन भाईचारे और बहुलवाद का ये विश्वास जल्द ही एकेश्वरी और व्यक्तिवाद में बदलने लगा। इक़बाल का ये सफ़र इस तरह देखा जा सकता है …
1904 में तराना-ए-हिंदी (हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा) लिखने वाले इक़बाल ने 1910 में तराना-ए-मिल्ली (मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहाँ हमारा) लिख दिया। दो दशक बाद 1930 में इलाहाबाद में मुस्लिम लीग की बैठक की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने मुसलमानों के लिए स्वायत्त प्रांतो का विचार उछाल दिया। जिसमें बहुल इलाको को जोडा जाए, उसमें मुसलमानों की राजनैतिक, सांस्कृतिक सहभागिता बढ़े।
परंतु आगे चलकर यही विचार अलग राष्ट्र की विचारधारा के रूप में पनपने लगा। जबकि इक़बाल ऐसा नही चाहते थे। बहरहाल उनके निधन के 10 साल बाद पाकिस्तान बना। इसीलिए इक़बाल को पाकिस्तान अपना राष्ट्रीय कवि मानता हैं।
यह भी याद रहे की, इक़बाल की इस्लामिक राष्ट्रीयता की विचारधारा में इन्सानों के ज़रिए बनाए गई इस तरह के भौगोलिक सरहदों के लिए कोई जगह नहीं थी। यहीं वजह रही की अलग राष्ट्र कि मांग का खंडन उन्होंने अपने जिते जी किया था।
अपनी एक कविता ‘शिकवा’ में इक़बाल भारत से शिकायत करते हैं …
यूरोप की ग़ुलामी पे रज़ामंद हुआ तू
मुझ को तो गिला तुझ से है, यूरोप से नहीं
पूर्व और पश्चिम में सामंजस्य बिठाने में नाकाम इक़बाल तब सर्वश्रेष्ठ नज़र आते हैं, जब वो अन्याय और असमानता के ख़िलाफ़ बोलते हैं। मिसाल के तौर पर ‘पंजाब के दहक़ां से’ में वो सामंतवाद से संघर्ष कर रहे किसानों को संबोधित करते हैं। अपनी एक और मशहूर नज़्म ‘फ़रमान-ए-ख़ुदा : फ़रिश्तों से’ में वो लिखते हैं,
जिस खेत से दहक़ां को मयस्सर नहीं रोज़ी
(जिस खेत से किसान को ही दो वक़्त की रोटी न मिल सके)
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो
(उस खेत में उगने वाली गेहूँ को जला देना चाहिए)
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न्यू टेस्टामेंट ऑफ़ उर्दू पोएट्री
इक़बाल की शुरुआती कविताओं में जो राष्ट्रवाद दिखता है वो धीरे-धीरे बदलने लगता है। जर्मन दार्शनिक नीत्शे, फ़्रांस के दार्शनिक बर्गसन और जर्मनी के मार्क्स के प्रभाव में इक़बाल की शायरी में एक नया बदलाव आया। इक़बाल की शायरी पर क़रीब से नज़र रखने वाले आले अहमद सुरूर ने इस नई शायरी को ‘न्यू टेस्टामेंट ऑफ़ उर्दू पोएट्री’ क़रार दिया है।
बाल-ए-जिबरील (1935) से ज़र्ब-ए-कलीम (1936) और अरमग़ान-ए-हिजाज़ (1938) तक इक़बाल ने अपनी कविताओं के संकलन में मानव क्षमताओं की असीम संभावनाओं पर ज़ोर दिया है।
इन कविताओं की अहमियत इसलिए भी बहुत ज़्यादा है क्योंकि यही वो वक़्त था जब भारत में प्रगतिशील लेखक अपने क़लम से क्रांति कर रहे थे। उस समय इक़बाल और प्रगतिशील लेखक संघ दोनों ही क्रांति और बदलाव की बात कर रहे थे। दोनों ने भारतीय लोगों को सामंतवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया।
लेकिन ऐसा करने के लिए इक़बाल ने ‘आध्यात्मिक समाजवाद’ का सहारा लिया जबकि प्रगतिशील लेखकों ने इसके लिए सोवियत मॉडल के सामाजिक यथार्थवाद को अपनाया।
इक़बाल के गीतों और शेरों का अर्थ अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग था। उनकी शायरी भारतीय मुसलमानों के लिए बुराइयों से लड़ने और कथित तौर पर दीन से भटके हुए लोगों को सही रास्ता दिखाने का एक ज़रिया थीं, लेकिन ब्रितानियों को इससे कोई परेशानी नहीं थी।
लेकिन सिब्ते हसन (1916-1986) जैसे इंक़लाबी शायर से अंग्रेज़ ख़तरा महसूस करते थे और शायद यही वजह है कि उन्होंने सिब्ते की कविताओं के संकलन, ‘आज़ादी की नज़्में’ पर पाबंदी लगा दी। विक्टर किरनान ने इक़बाल पर अपने लेख ‘द प्रौफ़ेट ऑफ़ चेंज’ में लिखा है, “इक़बाल ने बेहद जटिल माहौल के भ्रम और विरोधाभासों को अपनी शायरी से प्रतिबिंबित किया है।”
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लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।