भारतीय मूल के प्रसिद्ध बुद्धिजीवी फ़रीद ज़कारिया महामारी की ज़िम्मेदारी किसी एक देश पर थोपने के बजाय चाहते हैं कि हम सब इससे कुछ सबक़ सीखें। उनका तर्क है कि ‘अगला वायरस भारत या किसी और देश से भी शुरू हो सकता है।’
उनकी नई किताब ‘Ten Lessons for a Post Pandemic World’ आयी हैं, जिसमें उन्होंने कोरोना महामारी के बाद की दुनिया के लिए कुछ सीखों का ज़िक्र किया है। बीबीसी के बातचित पर आधारित उनका ये लेख।
दुनिया भर में तेज़ी से हो रहे शहरीकरण ने बहुत से जानवरों के प्राकृतिक आवासों को नष्ट किया है। जंगल खत्म हो रहे हैं और जानवर इन्सानों के रिहायशी इलाक़ो के पास पहुंच रहे हैं। इसलिए पशु और मानव आवास एक दूसरे के नज़दीक होते जा रहे हैं और जानवरों में मौजूद वायरस इन्सानों तक पहुँच रहे हैं।
मीट (मांस) के लिए चीन में उनका इस्तेमाल काफ़ी बढ़ गया था और चमगादड़ों में कई तरह के वायरस होते हैं। हमें ख़ुद से पूछना होगा कि क्या हम अधिक सुरक्षित रूप से जी सकते हैं? यह इस महामारी की ख़ास सीखों में से एक है।
इस ‘टेन लेसन्स फ़ॉर ए पोस्ट-पैंडेमिक वर्ल्ड’ यानी ‘महामारी के बाद की दुनिया के लिए 10 नसीहतें’ किताब में एक बात साफ़ तौर पर कही गई है कि महामारी के बाद अवसर और चुनौतियाँ दोनों ही होंगी।
इस किताब में कही गई बातों का सारांश यह है कि एक दिन आएगा जब दुनिया में कोरोना वायरस नहीं होगा, तब दुनिया अलग होगी जिसमें हमारे लिए चुनौतियाँ भी होंगी लेकिन अवसर भी।
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कमज़ोर हुआ लोकतंत्र
भारत और अमेरिका कोराना के फैलाव से ठीक तरह से निपटने में नाकाम रहे हैं जिससे लोकतंत्र कमज़ोर हुआ है। इस महामारी से हमने एक सबक़ ये भी सीखा है कि लोकतंत्र बहुत नाज़ुक है। अगर आप इसका दुरुपयोग करते हैं तो यह लोकतंत्र की गुणवत्ता को नुक़सान पहुँचाता है, फिर चाहे वो भारत हो या अमेरिका।
दुनिया भर में स्वतंत्र पर्यवेक्षकों की एक बड़ी संख्या यह देख रही है कि भारत में क्या हो रहा है। मेरा मानना है कि भारतीय लोकतंत्र की गुणवत्ता में गिरावट दिख रही है। पर्यवेक्षक एक व्यक्ति, एक पार्टी और एक सत्तारुढ़ गठबंधन की केंद्रीय शक्ति का उदय देख रहे हैं।
पहले भारत में लोकतंत्र मज़बूत रहा है, मगर मेरी नज़रों में अब यह कमज़ोर हो रहा है। मुझे लगता है कि भारत में उसके धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के विचार पर निरंतर हमला हो रहा है, जो भारत में परवरिश पाने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए बहुत दुख की बात है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षतावाद भारत का एक ख़ास आकर्षण रहा है।
1980 के दशक में जब मैं अमेरिका आया तो मैं ने एक जगमगाता देश देखा। अमेरिका जितना अमीर था, भारत उतना ही ग़रीब। दोनों के बीच फ़ासले आज की तुलना में काफ़ी बड़े थे। लेकिन एक बात जो मैं ने यहाँ आकर महसूस की थी वो ये कि अमेरिकी समाज खुला और सहिष्णु ज़रूर था लेकिन ये भारत से अलग था। अमेरिकी एक दूसरे के धार्मिक और नस्लीय मतभेदों को सहन करते थे लेकिन वो एक दूसरे से घुले-मिले नहीं थे।
मैं जब भारत में बड़ा हो रहा था तो मेरा परिवार दीवाली और होली मनाता था। हमारे यहाँ ईद में आने वाले लोग दूसरे धर्मों के होते थे। हम एक-दूसरे के त्यौहार और संस्कृति में शामिल होते थे। विविधता के इस जश्न को नष्ट किया जा रहा है। उस विविधता को नष्ट किया जा रहा है जो दुनिया में अनोखी है।
मैं कभी-कभी लोगों को भारत के पहले मंत्रिमंडल की तस्वीर दिखाता हूँ जिसमे आप राजकुमारी अमृत कौर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना आज़ाद और जवाहरलाल नेहरू को देख सकते हैं, इनमें से हर एक अलग भाषा और देश के अलग प्रांत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। वो सब एक साथ जुड़े और उस समय लोकतंत्र को बनाए रखना एक चमत्कार से कम नहीं रहा होगा।
आप ‘लव जिहाद’ का उदाहरण लीजिये। ज़ाहिर है कि यह असंवैधानिक है। आप दो राज़ी बालिग़ लोगों के बीच विवाह पर प्रतिबंध कैसे लगा सकते हैं? जिस तरह से प्रेस को दबाया जा रहा है और जिस तरह से अदालतों की निष्पक्षता घट रही है। ये सब लोकतंत्र के कमज़ोर होने की तरफ़ इशारा करते हैं।
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बाइडन प्रशासन में भारत के रिश्ते
मोदी को ट्रंप से प्यार था और ट्रंप को मोदी से। मुझे लगता है कि उन्होंने एक-दूसरे में समान शख़्सियत देखी – ताक़तवर पुरुष, लोकलुभावन (पाप्युलिस्ट) और राष्ट्रवादी नेता।
वॉशिंगटन में भारत पर दोनों दलों की सहमति है। यानी राष्ट्रपति रिपब्लिकन पार्टी का हो या डेमोक्रेटिक पार्टी का, भारत के प्रति उनकी विदेश नीति ज़्यादा अलग नहीं होती।
भारत अपना रवैया ‘अनिच्छुक दुल्हन’ की तरह रखता है। अगर भारत चाहता है कि चीन के उदय का मुक़ाबला और देशों क साथ मिलकर करना है तो अमेरिका के साथ एक रणनीतिक साझेदारी बनानी पड़ेगी।
अमेरिका के लोगों ने भारत को हमेशा पसंद किया है क्योंकि ये उनके देश की तरह एक बड़ा और अराजक लोकतंत्र है। अमेरिकी चीन को नहीं समझते हैं इसलिए भारत के प्रति उनका हमेशा एक स्वाभाविक झुकाव रहा है।
समस्या ये है कि भारत ने अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंध रखने के लिए रणनीतिक निर्णय नहीं लिया है। भारत को अमेरिका की ज़रूरत ज़्यादा है। पिछले 25 सालों में एकमात्र भारतीय सरकार जो विदेश नीति के बारे में रणनीतिक दृष्टिकोण रखती थी, वो मनमोहन सिंह की सरकार थी।
मनमोहन सरकार ने अमेरिका से कहा कि हम चाहते हैं कि आप हमारे परमाणु कार्यक्रम को वैध बताएं और उन्हें ये मिल गया। उन्होंने माँगा और उन्हें मिल गया। भारत (मोदी सरकार को) को अब कुछ ऐसा ही करने की ज़रूरत है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की मुहिम के दौरान जो बाइडन, कमला हैरिस (उप-राष्ट्रपति) और अंटोनी ब्लिंकेन (विदेश मंत्री) ने भारत के मानवाधिकार के रिकॉर्ड और इसकी कश्मीर नीति जैसे मुद्दे उठाए थे। लेकिन अब वो सत्ता में आ रहे हैं तो क्या उनके लिए ये मुद्दे उठाना अब कठिन होगा?
इसके जवाब में मैं कहुंगा, मेरे विचार में तीनों ही इन मुद्दों को उठाएंगे क्योंकि ये वास्तविक मुद्दे हैं और लोकतंत्र के रूप में भारत को इन मुद्दों पर किसी भी बातचीत का स्वागत करना चाहिए।
लोकतंत्र की जाँच क्यों नहीं होनी चाहिए? मुझे लगता है कि भारत की सबसे दुखद बातों में से एक है-विदेशी फ़ाउंडेशन, विदेशी पत्रकारों और सवाल करने वाले विदेशी सरकारों के ख़िलाफ़ एक अजीब से राष्ट्रवादी तत्वों का कड़ा विरोध करना।
नया अमेरिकी प्रशासन भारत के साथ नज़दीकी संबंध बनाये रखने के लिए बाध्य होगा। मुझे नहीं लगता कि अमेरिकी प्रशासन उन मानवाधिकार चिंताओं को भारत के साथ घनिष्ठ संबंध की राह में आने देगा। वो जानते हैं कि भारत एक लोकतंत्र है, लेकिन वो भारतीय लोकतंत्र की गुणवत्ता को लेकर चिंतित हैं और उन्हें होना भी चाहिए।
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महामारी के बाद भारत
इस किताब के आख़िर में लिखा है कि लोग कुछ भी कहें, कुछ भी सलाह सामने रखें महामारी के बाद अलग-अलग देश और समाज अपने हिसाब से आगे का रास्ता तय करेंगे।
महामारी के बाद भारत क्या रास्ता तय करेगा? भारत इस समय दो अलग-अलग आयामों पर एक चौराहे पर खड़ा है। एक चौराहा यह है कि क्या भारत वास्तव में पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं के विकास का अनुकरण करने की कोशिश करना चाहता है? अगर हाँ, तो इसे आर्थिक सुधार के बारे में गंभीर होने की ज़रूरत है। अगर इसे सही मायने में ग़रीबी मिटाना है तो आर्थिक नीति के बारे में गंभीर होने की ज़रूरत है।
भारत जिस दूसरे चौराहे पर जो खड़ा है, वो है इसका लोकतंत्र। क्या भारत नाम के वास्ते अधिक और वास्तविक रूप से कमज़ोर लोकतंत्र बन कर रहना चाहता है?
क्या ये, जैसा कि लेखक एलेक्सिस डी टोकेविल ने कहा था, एक बहुमत के अत्याचार वाला लोकतंत्र बनना चाहता है? दूसरे शब्दों में, आपके पास बहुमत है लेकिन उस बहुमत से आप धार्मिक, जाति और भाषाई अल्पसंख्यकों पर अपनी इच्छा को लागू करना चाहते हैं। लोकतंत्र कुछ हद तक समझौता, सहिष्णुता और सम्मान पर निर्भर होता है।
मुझे उम्मीद है कि ये सब नहीं होगा क्योंकि भारत एक विशाल देश है जिसमें सहनशीलता और विविधता है। लेकिन चिंता की बात ये है कि इनके (बहुमत की इच्छा को थोपने के) संकेत मिलने शुरू हो चुके हैं।
जाते जाते :
भारतीय मूल के अमेरिकी पत्रकार और लेखक हैं। वे सीएनएन में जीपीएस कार्यक्रम के होस्ट भी हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों, व्यापार और अमेरिकी विदेश नीति आदी मुद्दों के मुखर आलोचक के रूप में इनकी पहचान हैं। इन्हें 2010 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया।