आपसी बातचीत हैं समाजी गलत फहमियाँ दूर करने का हल

ज की दुनिया बहुत बहुरुपता वाली है। दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जो एक सा और बिना विविधता के हो। हालांकि पहले भी भिन्नता मौजूद थी लेकिन उपनिवेशीकरण, वैज्ञानिक विकास और परिवहन के साधनों के विकास ने दुनिया के विविधता को बढ़ाया है और ग्लोब्लाइजेशन (वैश्वीकरण) ने इसकी तेज़ी में इज़ाफ़ा कर दिया है।

पहले आम तौर पर लोग बेहतर संभावनाओं के लिए देश के भीतर ही एक जगह से दूसरी जगह आया जाया करते थे, आज लोग रोजगार और शिक्षा के लिए दूरदराज के देशों में या उससे आगे दूसरे महाद्वीपों में जाते हैं।

इसके अलावा, ये अपने मख्लूक़ (प्राणियों) के बीच विविधता पैदा करने की अल्लाह की मर्ज़ी है। अल्लाह कुरआन में फरमाता है,  “और अगर ख़ुदा चाहता तो सबको एक ही शरीयत पर कर देता लेकिन जो हुक्म उसने तुमको दिए हैं उनमें वो तुम्हारी आज़माइश करना चाहता है सो नेक कामों में जल्दी करो। (सूरह अल माईदाह,48)

इस तरह विविधता अल्लाह की मर्ज़ी है और ये हमारे लिए इम्तेहान है कि हम इस बहुरुपता के बावजूद एक दूसरे के साथ अमन और भाईचारा के साथ रह सकते हैं। इसके अलावा, अल्लाह चाहता है कि हम दूसरों से बरतरी का दावा न करें बल्कि नेक कामों में एक दूसरे के साथ मुक़ाबला करें।

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अशांति से बचे

इसके अलावा, अगर कहीं विवधता तो वहां मुमकीन है कि एक दूसरे से इख्तेलाफ़ात (मतभिन्नता) और गलत फहमियाँ होंगी जो अक्सर विवादों और अशांति पैदा कर सकती हैं। जिसके बाद अविश्वास और अंतर धार्मिक विवाद दोनों पनप सकते हैं। मजहबों के बीच भी धार्मिक विवाद जैसे, शिया और सुन्नी या बोहरा या गैर-बोहरा मुसलमानों के बीच या बरेलवियों और देवबंदियों के बीच आम है। इन गलत फहमियों को दूर करने के लिए एक मात्र रास्ता एक दूसरे के साथ बातचीत करना है।

इस तरह जम्हूरीयत (लोकतंत्र), विविधता और बातचीत तीनों अहम हो जाते हैं। लोकतंत्र और विविधता एक दूसरे के पूरक हैं,  हालांकि बहुत से लोगों का मानना ​​है कि एकसमानता (मोनोलिथ) एक ताकत है जबकि ऐसा नहीं है। एकसमानता के कारण सैन्य शासन पैदा हो सकता है जबकि विविधता लोकतंत्र के लिए लाइफ लाइन (जीवन रेखा) बन जाती है। अनुभव बताता है कि जितना अधिक बहुरुपता होगी लोकतंत्र इतना मज़बूत होगा।

लेकिन विविधता भी एक चुनौती पेश करती है और इसका सामना एक दूसरे के साथ आपसी बातचीत के जरिए बेहतर ढंग से एक दूसरे को समझ कर किया जा सकता है। काबिले गौर बात ये है की बातचीत, अंतर धार्मिक संवाद सहित आधुनिक या समकालीन कल्पना नहीं हैं।

मध्यकाल के हिन्दुस्तान में अक्सर सूफी हज़रात और योगियों के बीच वार्तालाप हुआ करती थी। इसके अलावा, सूफी हज़रात के ईसाई मजहबी नुमाईंदे (धार्मिक नेताओं) और यहूदी संतों के साथ भी आपसी बातचीत होती रहती थी। उनमें से कुछ ने कई साल दूसरों की धार्मिक परंपराओं को समझने में बिताए।

मिसाल के तौर पर दारा शिकोह या मज़हर जाने जनान को हिन्दू परंपराओं का पूरा ज्ञान था। दारा शिकोह ने तो उपनिषद को संस्कृत से फ़ारसी में अनुवाद किया और इसका नाम रखा मजमा उल बहारैन याने दो सागरों का संगम (Majma’ul Baharain) मैंने आज़मगढ के दारुल मुसन्निफीन में उसका कलमी नुस्खा (पांडुलिपि) देखा है। ये हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच बातचीत की एक महान किताब है।

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श्रेष्ठता का रवैय्या न हो

बातचीत को सफल बनाने और जरुरी नतीजे पाने के लिए आवश्यक है कि कुछ नियमों पर अमल किया जाये। सबसे पहली जरूरत है कि बातचीत में भाग लेने वालों में दूसरो पर श्रेष्ठता का रवैय्या नहीं होना चाहिए। यह बातचीत की आत्मा के खिलाफ है। दूसरे, बातचीत ठोस मुद्दों जैसे महिला अधिकार या युद्ध या अहिंसा आदि पर होनी चाहिए।

आज इन मुद्दों पर बहुत सी गलत फहमियाँ हैं। अधिकांश गैर मुसलमानों और विशेष रूप से पश्चिम के लोगों का खयाल है कि इस्लाम महिलाओं को कोई अधिकार नहीं देता है और उन्हें अपने अधीन रखता है और ये सब मुसलमानों के बीच कुछ रिवाजों जैसे हिजाब या कई शादियों या सम्मान के नाम पर हत्या (आनर किलिंग) आदि के कारण है।

इसी तरह, जिहाद के विचार के बारे में बड़े पैमाने पर गलत फहमियाँ हैं और कुछ फतवा या ओसामा बिन लादेन के बयान हैं जिसमें न्यूयॉर्क के ट्विन टावर पर हमले के औचित्य के तौर पर जिहाद को पेश किया है। वास्तव में मुसलमान और मुस्लिम विद्वानों के बीच कई शादियों और जिहाद जैसे मुद्दों के बारे में बहुत मतभेद हैं। इन लोगों के भी साथ बातचीत की ज़रूरत है। और गैर मुसलमानों के साथ बहुत अधिक बातचीत की जरूरत है।

बातचीत की प्रक्रिया में धार्मिक कार्यकर्ताओं, ऐसे विद्वानों को जिनको समस्याओं का गहरा इल्म हो, पत्रकारों (जो गलत विचारों को लिखते और फैलाते हैं) और आम लोगों के साथ ऐसे लोगों को जो गलत फहमियों का अक्सर शिकार रहे हैं,  इसमें शामिल होना चाहिए।

दूसरे, उन लोगों में सीखने की विनम्रता होनी चाहिए न कि इल्म के बजाए जिहालत (अज्ञानता) के आधार पर बहस करने वाले हों। लेकिन इसमें हिस्सा लेने वालों को एक दूसरे के प्रति संदेह और अविश्वास को दूर करने के लिए प्रश्न उठाने का अधिकार होना चाहिए।

तीसरे,  इन लोगों में अपने विश्वास की परंपरा की मजबूत नींव होना जरुरी है और उसे खास अमल के कारणों की व्याख्या या शिक्षा की दलील देने के काबिल होना चाहिए। कोई शक या अशिक्षा बातचीत की आत्मा को नुकसान पहुंचा सकती है। इसके अलावा चर्चा के दौरान उठाए गए संदेह और अविश्वास को पूरे ज्ञान, विश्वास और स्पष्टीकरण के द्वारा दूर करने में सक्षम होना चाहिए।

चौथे, उनमें बहुत धैर्य, दूसरों को सुनने की क्षमता और दूसरों की स्थिति को समझने और व्यक्त किये गए संदेह और अविश्वास को दूर करने में सक्षम होना चाहिए और बहस करने की महारत के ज़रिए दूसरे को चुप करने और वाद विवाद का इस्तेमाल करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। ये बातचीत के विचार को ही नष्ट कर देगा। बहस और वार्तालाप के बीच बुनियादी अंतर है।

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मतभेद को स्वीकार करे

इसके अलावा अपने ईमान की रिवायतों में मजबूत आधार रखते हुये भी दूसरों को उनके मतभेद की आलोचना किए बिना ही उनके मतभेद को स्वीकार करना चाहिए। बातचीत एक दूसरे की समझ को बढ़ावा देने के लिए है और न कि दूसरे की आस्था को खारिज करने या दूसरों की आस्था में गलती को खोजने के लिए है।

बातचीत कभी दूसरों को बदलने के लिए नहीं होनी चाहिए बल्कि सिर्फ दूसरे को समझने के लिए होने चाहिए। दोनों या बातचीत में शामिल एक से अधिक साझेदारों को अपने विश्वास की परंपरा की रोशनी में संबंधित मामले पर रोशनी डालनी चाहिए और सवालों के साथ सलीके और नफासत के साथ निपटना चाहिए।

इस तरह आयोजित बातचीत वाकई करामात कर सकती हैं और दूसरे की आस्था को समझने के दौरान,  अपने विश्वास के बारे में वास्तविक समझ को बढ़ावा देने का काम कर सकती हैं। मैं 40 साल से ज्यादा से बातचीत की प्रक्रिया का एक हिस्सा रहा हूँ और विश्वास के साथ कह सकता हूं कि बातचीत एक विविधतापूर्ण समाज में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इल्मा (ज्ञान), विश्वास और स्पष्टीकरण और दूसरों के दृष्टिकोण की सराहना बातचीत के लिए बहुत उपयोगी साधन हैं।

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