पारसी रंगमंच के शेक्सपीयर ‘आगा हश्र काश्मीरी’

गा मुहंमद शाह हश्र काश्मीरी का नाम पारसी रंगमंच के बडे़ नाटककारों में शुमार किया जाता है। वे एक ऐसी अजीम शख्सियत हैं, जिन्होंने भारतीय रंगमंच में नाटककारों को प्रतिष्ठा दिलाने का अहमतरीन काम किया।

3 अप्रैल, 1879 को बनारस के एक मध्यवर्गीय, पारंपरिक और धार्मिक परिवार में जन्मे आगा हश्र काश्मीरी ने धारा के खिलाफ चल रंगमंच को अपना कार्यक्षेत्र बनाया और थोड़े से ही अरसे में ‘पारसी रंगमंच’ की अहम शख्सियत बन गए।

अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, गुजराती, बांग्ला, संस्कृत आदि कई भाषाओं के जानकार आगा हश्र थियेटर से रूमानियत और उसके जानिब हद दर्जे की दीवानगी के चलते हालांकि आला तालीम से महरूम रहे, लेकिन अपने शौक और स्वाध्याय से उन्होंने भरत मुनि के नाट्य शास्त्र, भारतीय लोक नाट्य और यूरोपियन रंगमंच के इतिहास और वहां के प्रमुख नाटककारों विलियम शेक्सपीयर, शेरेटन, हेनरी आर्थर जोन्स, डब्ल्यू टी मांट्रिफ के नाटकों का विशद एवं गहन अध्ययन किया।

याद में तेरी जहां भूल जाता हूं

भूलने वाले कभी तुझे भी याद आता हूं।

नाट्य लेखन पर शेक्सपीयर के प्रभाव, भारतीय रंगमंच में महत्वपूर्ण योगदान और अवाम में उनकी मकबूलियत ने आगा हश्र काश्मीरी को हिन्दोस्ताँनी शेक्सपीयर बना दिया। आगा हश्र काश्मीरी का दौर, वह दौर था जब देश में आज की तरह सर्व सुविधासम्पन्न स्थाई थियेटर हॉल नहीं थे। पारसी थियेटर कम्पनियां शहर-दर-शहर खुले मैदान और मेलों में ओपन थियेटर करती थीं।

आगा हश्र कश्मीरी का नाम किसी भी नाटक की कामयाबी की जमानत होता था। हजारों की संख्या में लोग उनके नाटकों के मंचन का लुत्फ लेने के लिए दूर-दूर से पहुंचते थे। लाईन लगाकर लोग नाटक के टिकिट खरीदते और नाटक का शो होने से पहले ही हॉल हाऊसफुल हो जाया करते। उनके नाटकों के प्रति ऐसी गजब की दीवानगी थी, लोगों की।

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पारसी रंगमंच में कैसे हुआ आगाज?

आगा हश्र काश्मीरी को किशोरावस्था से ही शेरो-शायरी और ललित कलाओं से लगाव था। उन दिनों वाराणसी में जब भी पारसी थियेटर का मंचन होता, वे जरूर नाटक देखने जाते। मुंशी मेंहदी हसन ‘अहसान लखनवी’ के ‘चन्द्रावली’ नाटक से प्रभावित होकर, उन्होंने अपना पहला नाटक ‘आफताब-ए-मुहब्बत’ लिखा।

इस नाटक को लेकर वे मशहूर नाटक कम्पनी ‘अल्फ्रेड थिएट्रीकल कम्पनी’ के पास पहुंचे और उन्हें अपना नाटक दिखाया। लेकिन कम्पनी मालिक को यह नाटक पसंद नहीं आया और उन्होंने नाटक को नामंजूर कर दिया। इस वाकए से नौजवान आगा हश्र की खुद्दारी और जज्बात को गहरा धक्का लगा, लेकिन उन्होंने हिम्मत न हारते हुए, दिल ही दिल में नाटककार बनने का पक्का इरादा कर लिया।

बनारस से वे जब सपनों की नगरी बम्बई पहुंचे, तब उनकी उम्र महज उन्नीस साल थी। मुंबई पहुंचकर उन्होंने एक बार फिर अल्फ्रेड कम्पनी के मालिक कावसजी पालनजी खटाऊ से मुलाकात की। कावस जी, आगा हश्र काश्मीरी की विलक्षण प्रतिभा से बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने आगा हश्र को अपनी कम्पनी में पन्द्रह रूपए माहवार में नौकर रख लिया।

अल्फ्रेड कम्पनी के लिये आगा हश्र काश्मीरी ने पहला नाटक ‘मुरीद-ए-शक’ लिखा, जो शेक्सपीयर के नाटक ‘अ विन्टर्स टेल’ पर आधारित था। उनका पहला ही नाटक बहुत लोकप्रिय हुआ और इस नाटक के नौ महीने में साठ मंचन हुये। इस नाटक से नाटक कम्पनियों ने उनके हुनर का लोहा मान लिया। थोड़े से ही अरसे में वे नाट्य जगत पर छा गए।

आगा हश्र काश्मीरी की उस दौर में क्या मकबूलियत थी?, इसको अपनी किताब ‘आग़ा हश्र और उनके ड्रामे’ में बयां करते हुए लेखक, समीक्षक वक़ार अज़ीम लिखते हैं, “हमारे ड्रामे की तक़रीबन सौ बरस की तारीख़ में आम-ओ-ख़ास दोनों में जो मक़बूलियत आग़ा हश्र के हिस्से में आई, उससे दूसरे लिखने वाले महरूम रहे। जिस ज़माने में हश्र ने ड्रामे की दुनिया में कदम रखा अहसन लखनवी और नारायण प्रसाद बेताब का बड़ा शुहरा था।

नाटक कम्पनियों में उनके ड्रामें मुंह मांगे दामों में बिकते थे। लेकिन जब आग़ा हश्र के ड्रामे स्टेज पर आए, तो कम्पनी के मालिकों ने महसूस किया कि इस नौजवान ड्रामाटिस्ट के ड्रामों में कोई न कोई ऐसी बात है, जो देखने वालों को अपनी तरफ़ खींचती है। चुनांचे हर अच्छी कम्पनी की कोशिश होती थी कि आग़ा हश्र उनके लिए ड्रामे लिखें। और हुआ भी यूं की हश्र का तालुक़ जिस कम्पनी के साथ हुआ उसके दिन फिर गए।”

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काश्मीरी का थिएटर गंगा-जमना तहजीब का प्रतीक

साल 1910 से 1932 तक का दौर, आगा हश्र काश्मीरी का सुनहरा दौर था। इस दौर में उन्होंने हिन्दी, उर्दू दोनों ही भाषाओं के प्रमुख नाटकों की रचना की। पारसी रंगमंच के लिये उन्होंने जिन नाटकों की रचना की उनमें शास्त्रीय, लोक, यथार्थवादी, धार्मिक-पौराणिक ग्रन्थों, ऐतिहासिक कथानकों और अंग्रेजी रंगमंच के तत्वों का अद्भुत मिश्रण मिलता है।

भारतीय जीवन दर्शन, इतिहास, भारतीय रीति-रिवाज और सभ्यता-संस्कृति उनके नाटकों में साफ परिलक्षित होते हैं। सदियों से भारतीय जनमानस के चेतन और अवचेतन में अन्तर्निहित धार्मिक, पौराणिक ग्रन्थों के कथानकों को उन्होंने खास तौर से अपने नाटकों का विषय बनाया।

उनका नाटक ‘सीता वनवास’-रामायण और ‘भीष्म प्रतिज्ञा’-महाभारत पर आधारित थे। वहीं नाटक ‘भगीरथ गंगा’ उनके संस्कृत ज्ञान का अनुपंम उदाहरण है। आगा हश्र काश्मीरी की लोकप्रियता ने उनके कई आलोचक भी बना दिये। आलोचकों ने प्रचारित किया कि हिन्दी के ड्रामें उनके लिखे नहीं है। वे हिन्दी जबान से नावाकिफ है, लिहाजा वे इतने अच्छे हिन्दी नाटक लिख ही नहीं सकते।

जब आगा हश्र काश्मीरी तक यह बात पहुंची, तो इस बात का जवाब उन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज में दिया। नाटक प्रदर्शन के पहले आगा हश्र काश्मीरी ने तकरीबन दो घन्टे तक लगातार हिन्दी में तकरीर की, जिसमें एक भी शब्द उर्दू या फारसी का नहीं था। अपने अंदाज़ में आलोचकों को यह उनका कड़ा जवाब था।

‘बिल्वमंगल’, ‘मधुर मुरली’, ‘भारत रमणी’, ‘भीष्म’, ‘प्राचीन और नवीन भारत’, ‘सूरदास’, ‘लवकुश’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘औरत का प्यार’, ‘आंख का नशा’, ‘भारतीय बालक’, ‘धर्मी बालक’, ‘दिल की प्यास’, ‘पाक दामन’, ‘दोरंगी दुनिया उर्फ मीठी छुरी’, ‘वन देवी’ आगा हश्र काश्मीरी के वे हिन्दी नाटक हैं, जो काफी प्रसिद्ध हुये।

हिन्दी नाटकों के अलावा उर्दू नाटक को भी उन्होंने फार्म, तकनीक, भाषा, विषयवस्तु के स्तर पर नये क्षितिज तक पहुंचाया। आगा हश्र काश्मीरी का थियेटर, सही मायने में गंगा-जमुनी सांझा तहजीब का प्रतीक था। जहां तक इन नाटकों की भाषा का सवाल है, तो हिन्दी, उर्दू जबान से इतर भारतीय भाषा को उन्होंने अपने थियेटर और नाटकों के माध्यम से पूरे देश में लोकप्रिय बना दिया।

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शेक्सपीयर का असर

पारसी रंगमंच पर शुरू से ही शेक्सपीयर के नाटकों का असर था और आगा हश्र काश्मीरी भी इससे अछूते नहीं रहे। सच बात तो यह है कि उनके कई नाटक शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटकों के अनुवाद, रूपांतर, छायानुवाद, भावानुवाद थे। नाटक ‘सैद-ए-हवस’-किंग जॉन, ‘बज्म-ए-फानी’-रोमियो एंड जूलियट, ‘दिल फरोश’-मर्चेंट ऑफ वेनिस, ‘शहीद-ए-नाज’-मेजर फॉर मेजार,  ‘मार-ए-आसीन’-ऑथेलो, ‘सफेद खून’-किंग लियर, ‘ख्वाब-ए-हस्ती’-मेकबेथ पर आधारित थे।

आगा हश्र काश्मीरी की निजी जिन्दगी पर शेक्सपीयर का खासा असर था। आगे चलकर उन्होंने साल 1912 में जब अपनी ड्रामा कम्पनी बनाई, तो उसका नाम भी शेक्सपीयर के ही नाम पर ‘इंडियन शेक्सपीयर थिएट्रिकल कम्पनी ऑफ कलकत्ता’ रखा।

आगा हश्र के नाटकों में ऐतिहासिक कथानक, राजसी दरबार और सियासती दांव-पेंच, षडयंत्र, कूटिनीति आदि तमाम तत्व शेक्सपीयर के नाटकों की ही देन हैं। बावजूद इसके अपने नाटकों को उन्होंने जिस तरह भारतीय परिवेश, वेशभूषा और भारतीय भाषा में ढाला, वह निसंदेह ही प्रशसंनीय है।

यहां तक कि कई बार तो उन्होंने इन नाटकों का अंजाम तक बदल दिया। जिन्दगी के आखिरी दिनों में लिखा उनका ऐतिहासिक नाटक ‘रुस्तम-सोहराब’ फारसी के प्रसिद्ध कवि फिरदौसी के ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय महाकाव्य ‘शाहनामा’ पर आधारित है।

‘रुस्तम-सोहराब’ उनके दीर्घकालीन नाटकीय अनुभव, कलात्मकता और साहित्यिक अभिरूचि का जीता जागता प्रमाण है। नाटक ‘यहूदी की लड़की’, ‘खूबसूरत बला’, ‘सीता वनवास’, ‘मशरिकी हूर’, ‘असीरे-हिर्स’ और ‘रुस्तम-सोहराब’ अपने जीवन्त और सशक्त कथ्य, बेजोड़ संरचना से साहित्यिक कोटि में रखे जा सकते है।

एक लिहाज से देखें, तो आधुनिक रंगमंच का परिवर्तित, परिवर्धित, परिष्कृत स्वरूप पारसी थियेटर और आगा हश्र के लोकप्रिय नाटकों की ही देन है। उन्होंने भारतीय रंगमंच को समृद्ध करने का बेमिसाल काम किया।

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बेजोड़ शख्सियत के मालिक

आगा हश्र, बेजोड़ प्रतिभा के धनी थे। उनकी शख्सियत के कई पहलू थे। उनके बारे में कई बाते प्रचलित थीं, जो आज किंवदंती बन गई हैं। मसलन आगा साहब टहलते-टहलते मुंशी के मार्फत एक ही साथ कॉमेडी व ट्रेजडी लिखवा सकते थे।

उनके बारे में एक किस्सा और मशहूर था कि वे मुक्कमल नाटक नहीं लिखते थे, बल्कि सेट पर रिहर्सल के साथ ही नाटक का अगला अंक लिख दिया करते थे। फिर उसके बाद नाटक का जनता में रिस्पॉन्स देखते और सकारात्मक राय मिलती, तो उसका मंचन करते।

सब कुछ खुदा से मांग लिया, तुझे मांग कर

उठते नहीं हैं हाथ, मेरे इस दुआ के बाद।

उनकी याददाश्त भी गजब की थी। पूरा का पूरा नाटक पर्दे के पीछे से डिक्टेट कर सकते थे। पढ़ने-लिखने के निहायत ही शौकीन थे। एक मर्तबा दोस्तों की महफिल में बैठे हुये थे, नौकर ने कागज में लिपटा पान आगा साहब को दिया। आगा साहब ने पान खाकर, कागज को संभालकर जेब में रख लिया।

आगा साहब की इस हरकत से दोस्तों की हैरानगी पर उनका जवाब था, “छपे हुये कागज का कोई भी टुकड़ा, जो मुझे मिला है, मैने उसे जरूर पढ़ा है।” आगा हश्र के कई नाटक उनकी जिन्दगी में अप्रकाशित रहे, जिनका प्रकाशन बाद में हुआ।

अपने नाटकों के प्रकाशन से ज्यादा, उन्हें मंचन पर विश्वास था। नाटकों के प्रकाशन पर उनका कहना था, “ला हौल विला… आगा हश्र काश्मीरी के ड्रामें, चीथड़ों पर छपें। बगैर इजाजत के इधर-उधर से सुन-सुनाकर छाप देते है।” ऐसा अजब-गजब मिजाज और स्वाभिमान था उनका, जो ताजिन्दगी बरकरार रहा।

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डाली आधुनिक रंगमंच की नींव

आगा हश्र ने अपनी जिन्दगी में 27 नाटक लिखे। रंगमंच में उन्होंने हमेशा नये-नये प्रयोग किये। उनके नाट्य लेखन से पहले नाटक, पूरी तरह काव्यमय होते थे और उनमें कई गानों का समावेश होता था। उन्होंने नाटक में गद्य को महत्व दिया। रंगमंच को चुटीली, मुहावरेदार भाषा दी।

यही नहीं उन्होंने पुराने नाटकों की रंग शैली तथा भाषा को बदलकर आधुनिक रंगमंच की नींव डाली। देशकाल, सामाजिक समस्याओं और जनता के मिजाज को देखकर अपने नाटकों की रचना की। नाटकों से मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक संदेश देने का प्रयास किया।

अपने नाटकों पर उनका कहना था, “मेरे नाटक देखकर लोग रोते-धोते हुये नहीं, बल्कि मुस्कराते हुये एक संदेश लेकर जायें।” उनके बारे में एक बात जो बहुत कम लोगों को मालूम होगी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक पाने वाले वे अकेले मुस्लिम लेखक थे।

आगा हश्र बहुत उम्दा शायर भी थे। उनकी कई गजलें आज भी जनता में बेहद मकबूल हैं। मसलन.

आह जाती है, फलक पर रहम लाने के लिए

बादलों हट जाओ, दे दो राह जाने के लिए।

आगा हश्र काश्मीरी ने कुछ मूक फिल्मों में अभिनय और निर्देशन भी किया। बी.एन. सरकार के ‘न्यू थिएटर्स’ में संवाद लेखक और गीतकार के तौर पर भी अपने आप को आजमाया। उनके नाटक ‘बिल्वमंगल’ और ‘यहूदी की लड़की’ पर इसी नाम से फिल्में बनी।

के.एल. सहगल की सुपर हिट फिल्म ‘चंडीदास’ के सभी नौ गीत उन्होंने ही लिखे थे, जो उस वक्त काफी लोकप्रिय हुए। आगा हश्र काश्मीरी अपने जीते जी भारतीय ड्रामें का इतिहास लिखना चाहते थे, मगर उनकी यह इच्छा अधूरी ही रह गई। वे यह काम पूरा नहीं कर पाये।

पारसी थिएटर को शोहरत की बुलन्दी पर पहुंचाने वाले, आगा हश्र काश्मीरी का 28 अप्रैल, 1935 को लाहौर में निधन हो गया। भारतीय रंगमंच का जब भी इतिहास लिखा जाएगा, आगा हश्र काश्मीरी को हमेशा पारसी रंगमंच के शेक्सपीयर के तौर पर याद किया जाएगा।

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