किताबीयत : कशकोल
बीते साल आई किताब ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ की चर्चा अभी थमी नहीं है कि वरिष्ठ लेखक, पत्रकार और हिंदी सिनेमा के गहन अध्येता राजकुमार केसवानी की एक और शानदार किताब ‘कशकोल’ आ गई है। किताब की टैगलाइन ‘सफीना–ए–उर्दू के ना–खुदाओं की दास्तानें’ है। किताब वाकई इस टैगलाइन से पूरा इन्साफ करती है।
लेखक ने बड़े रिसर्च और जतन से उर्दू अदब के उन ना खुदाओं की दास्तानें लिखी हैं, जिनसे उर्दू अदब का कारवां बनता है। उत्तर प्रदेश हुकूमत ने हाल ही में जिस तरह सूबे की दूसरी जुबान उर्दू के साथ गैर जरूरी सलूक और भेदभाव भरा बर्ताव किया है। उस पसमंजर में इस किताब की अहमियत और भी ज्यादा बढ़ जाती है।
मामला सूबे के ‘ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती उर्दू अरबी फारसी विश्वविद्यालय’ का है। पहले हुकूमत ने इस विश्वविद्यालय का नाम बदला। विश्वविद्यालय के नाम से ‘उर्दू अरबी फारसी’ लफ्ज हटाकर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय कर दिया।
बात यहीं तक खतम नहीं हो गई, बल्कि यूनीवर्सिटी के लोगो और लेटर हेड से भी उर्दू को हटा दिया गया है। लोगो में उर्दू के बजाय अंग्रेजी को जगह दी है, तो लेटर हेड में शामिल अरबी की जगह पर संस्कृत को रखा गया है। उर्दू के मुखालिफीन के लिए यह बात बतलाना लाजिमी होगी कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी उर्दू के परस्तार थे।
‘कशकोल’ में ‘मिर्जा गालिब’ अध्याय में लेखक ने दिसम्बर, 1998 में आयोजित गालिब इंटरनेशनल सेमिनार का हवाला देते हुए कहा है कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अपनी तकरीर में खुलकर इस बात का इजहार किया था, “अहद–ए–मुगलिया’ने भारत को तीन चीजें दी हैं – ताजमहल, उर्दू जबान और गालिब की शायरी।”
यही नहीं उन्होंने अपनी इस तकरीर में इस बात की भी नसीहत दी थी, “उर्दू गजल की खास बात यह है कि कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा बात बखूबी बयान हो जाती है। उर्दू की इस खूबी की तरफ हिंदी और दूसरी भाषाओं को ध्यान देना चाहिए।”
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उर्दू अदब की हस्तियों पर तफ्सील
उर्दू, गंगा जमुनी तहजीब की मुश्तरका जुबान है। इसी खित्ते यानी गंगा–यमुना के दोआब में पैदा हुई। उर्दू में वर्ब, प्रीपोजीशन, जुमलों का कंस्ट्रक्शन सब हिन्दी का है। सिर्फ उसका रस्मुलख़त फारसी है।
यही नहीं इस जुबान को परवान चढ़ाने में जितना योगदान मिर्जा गालिब, मिर्जा हादी रुस्वा, इस्माइल मेरठी, नादिर काकोरवी, कतील शिफाई, आगा हश्र कश्मीरी, इब्ने सफी, मजाज़ और शौकत थानवी का है, उतना ही योगदान मुंशी नवल किशोर, पंडित रतननाथ सरशार, कन्हैयालाल कपूर और फिक्र तौंसवी (रामलाल भाटिया) का है।
उर्दू जुबान से इनकी क्या मुहब्बत थी?, उर्दू को बनाने-बढ़ाने में इन सब हस्तियों का क्या रोल है?, किताब ‘कशकोल’ के जरिए जाना जा सकता है। राइटर राजकुमार केसवानी ने इस किताब में उर्दू अदब की इन तेरह हस्तियों पर तफ्सील से लिखा है।
लेखक ने इन शख्सियतों के न सिर्फ जानदार ख़ाके खींचे हैं, बल्कि उनके अदब की खासियत पर भी बात की है। इनमें से कुछ शख्सियत ऐसी हैं, जिनके बारे में हम में से बहुत लोग थोड़ा-बहुत जानते हैं, लेकिन मुंशी नवल किशोर, पंडित रतननाथ सरशार, इस्माइल मेरठी और नादिर काकोरवी के मुताल्लिक ऐसी-ऐसी जानकारियां हैं कि हैरत होती है।
मसलन उन्नीसवीं सदी में पैदा हुए मुंशी नवल किशोर और ‘नवल किशोर प्रेस’ का अपने जमाने में यह मर्तबा था कि साल 1885 में अफगानिस्तान के शाह अब्दुर्रहमान और 1888 में ईरान के शाह की भारत में आमद हुई, तो उनकी एक हसरत मुंशी नवल किशोर के दीदार और उनसे एक मुलाकात थी।
यह बतलाना भी लाजिमी होगा कि मुंशी नवल किशोर उर्दू, अरबी, फारसी जबान के दिलदादा थे और उन्हीं के प्रेस से गालिब की पहली किताब और उनका ‘कुल्लियात’ (समग्र) शाया हुआ था। एक अहम बात और, जो किताब से ही मालूम चलती है कि 19वीं सदी में नवल किशोर प्रेस ने फारसी जबान की जो किताबें छापीं, वे फारसी जुबान वाले मुल्क ईरान में छपी फारसी किताबों से भी ज्यादा थीं।
पंडित रतननाथ सरशार जिन्हें हम ‘फसाना-ए-आजाद’ के तख्लीक-कार के तौर पर जानते हैं, उन्होंने ही उर्दू अफसाना नवीसी की बुनियाद रखी थी। लखनऊ से कुछ दूर काकोरी में 1867 में पैदा हुए शायर नादिर काकोरवी की शायरी और उनके अंग्रेजी से उर्दू तर्जुमे के अल्लामा इकबाल और अब्दुल हलीम ‘शरर’ भी मुरीद थे।
‘कशकोल’ में शामिल उर्दू अदब की सभी तेरह अजीम हस्तियों पर लेखक ने दिल से कलम चलाई है, लेकिन मिर्जा गालिब की जिन्दगी और उनकी शायरी पर लिखे अध्याय ‘जहां तेरा नक्श-ए-कदम देखते हैं’, का कोई जवाब नहीं। यह गालिब की शायरी की तरह ही लाजवाब है।
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नई पीढ़ी के लिए नायाब
उर्दू अदब में तंज-ओ-मिजाह के तीन नुमायां चेहरे शौकत थानवी, कन्हैयालाल कपूर और फिक्र तौंसवी के भी ऐसे-ऐसे किस्से इस किताब में मौजूद हैं, जिनसे ज्यादातर हिंदी वाले वाकिफ न होंगे। खास तौर से नई पीढ़ी। किताब का मकसद भी यही है कि हमारी नई पीढ़ी उर्दू अदब के इस नायाब विर्से से अच्छी तरह से वाकिफ हो।
किताब में सिर्फ मुल्क की माया-ए-नाज शख्सियतों के किरदार और उनके अदबी कारनामों पर ही अकेले रोशनी नहीं डाली गई है, बल्कि जरूरत के मुताबिक उनके अदब के कुछ हिस्से भी कोट किए गए हैं। ताकि उस शख्सियत के अदब से पाठक का मुख्तसर सा तआरुफ हो जाए।
जहां तक ‘कशकोल’ की भाषा का सवाल है, किताब चूंकि ‘सफीना-ए-उर्दू के ना-खुदाओं की दास्तान’ है। लिहाजा लेखक ने पूरी किताब में उस उर्दू जुबान का इस्तेमाल किया है, जिसको अरबी, फारसी जुबान के लफ्ज गुलजार करते हैं। अलबत्ता इन कठिन अल्फाजों के मायने भी साथ-साथ दिए गए हैं। ताकि हिंदी वालों को इन्हें समझने में दिक्कत पेश न आए।
एक लिहाज से कहें, तो किताब की ताकत इसकी जुबान और लेखक का किस्सागोई भरा अंदाज है। जो कोई पाठक इस किताब को शुरू करेगा, वह इसे मुकम्मल पढ़कर ही दम लेगा। ‘कशकोल’ की एक और खासियत, किताब में शामिल खूबसूरत कैलिग्राफी और तस्वीरें हैं। यह तस्वीरें हमें उस दौर में ले जाती हैं, जिनका किस्सा किताब में बयान किया जा रहा है।
किताब की कमी या नुक्स की गर बात करें, तो कई अध्यायों में लेखक ने कोटेशन का इतना ज्यादा इस्तेमाल किया है कि उसमें लेखक इन कोटेशन को आपस में जोड़ने वाले कारीगर की तरह नजर आता है। बावजूद इसके मंजुल पब्लिशिंग हाउस से आई ‘कशकोल’ उर्दू जुबान के शैदाईयों के लिए एक नायाब तोहफा है।
गुजरे जमाने के इल्म-ओ-अदब, मोहब्बत और इंसानियत के पैरोकारों को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए जनाब राजकुमार केसवानी को एक बार शुक्रिया कहना तो बनता ही है ! उन्हें तहे दिल से मुबारकबाद !
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किताब का नाम : ‘कशकोल’(ख़ाके)
लेखक : राजकुमार केसवानी
भाषा : हिन्दी
कीमत : 298 (पेपरबैक संस्करण)
पन्ने :294
प्रकाशक : मंजुल पब्लिशिंग हाउस
ऑनलाइन : कशकोल
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।