रविवार 31 जनवरी को सुबह मशहूर साहित्यिक, शायर और ग़ज़लकार इलाही जमादार का निधन हुआ। बीते कुछ दिनों से वह बिमार चल रहे थे। अपने पैतृक गांव स्थित रिहायशी मकान में 75 वर्षीय जमादार का इंतकाल हुआ हैं।
वरीष्ठ समाजसेवी और इलाही के दोस्त अमर हबीब ने फेसबुक पर यह जानकारी दी हैं। मराठी और उर्दू भाषा में एक साथ शायरी करनेवाले इलाही जमादार का जन्म सांगली जिले के दुधगाव में 1 मार्च 1946 में हुआ था।
एक इंटरव्यू में वह कहते हैं, शुरू से ही पढ़ने का शौक रहा। करीबी लाइब्रेरी के मंथली मेंबर रहा। कहानियां, उर्दू शायरी तथा गद्य लेखन जो भी मिलता उसे वह बड़े चाव से पढ़ता।
इलाही जमादार गेले! पुन्हा वेदनेचा आघात झाला!
Posted by Amar Habib on Saturday, 30 January 2021
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जो दिल में आता उसे लिख देते
साल 1970 लेखन कार्य आरंभ किया था। इस बारे में वे लिखते हैं, शुरू में कुछ शब्दों को जोड़कर लिखता जाता था। उसे कागज पर नोट कर रखता। पर मुझे एहसास नहीं था कि यह कविताएं हैं। लिखे सबको संभाल कर रखता था। एक दिन किसी दोस्त ने उसे देखा और कहा यह तो कविताए हैं। उसने मुझे डांट लगाई तब से मैं इन शब्दों को एक नोटबुक में लिखने लगा।
बहरहाल 1980 के दशक में एक हिंदी उर्दू और मराठी का मिलाजुला मुशायरा हुआ जिसमें वह दोस्त के कहने पर शामिल हुए। नहीं की मगर कुछ शायर अजीब और कवियों से उनकी मुलाकात हो गई।
इस बारे में वह कहते हैं इस मुशायरे तक मुझे मुशायरा नाम और शायरी का तंत्र पता नहीं था। इन्हीं लोगों से मैंने काफिया, रदिफ जैसा तंत्र सिखा।
इन्हें कवियों के कहने पर आगे चलकर उन्होंने अपनी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में तथा अखबारों में छपने के लिए भेजना शुरू किया। यहीं से उनके लेखन कि इब्तिदा हुई। क्षेत्रीय भाषा मराठी के साथ उर्दू और हिंदी पर भी उनकी खासी पकड थी।
मराठी, उर्दू और हिंदी भाषा में उनके कई कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। मराठी और उर्दू मुशायरों में भी उनकी मौजूदगी खासी चर्चित रही थी। गज़ल, नज्म और शायरी के साथ उन्होंने गद्य लेखन में भी हाथ आजमाया हैं। हालांकि वे गद्य में ज्यादा नहीं लिख पाये। अमर हबीब के मुताबिक मराठी गज़ल में सुरेश भट के बाद इलाही जमादार का नाम ही आता हैं।
बता दे की महाराष्ट्र में सुरेश भट प्रसिद्ध और चर्चित ग़जलकार थे। कहते हैं, मराठी में ग़ज़ल कि परंपरा भट ने ही शुरू की थी। इलाही जमादार ने इस परंपरा को बहुत आगे लेकर जाने का काम किया हैं। यहीं वजह हैं, पुणे में हर महीने मराठी गज़ल मुशायरे का आयोजन होता हैं। जिसमे दर्शकों और गज़लप्रेमीयों की भीड लगी रहती हैं।
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ग़ज़ल लिखने में महारत
इलाही जमादार के बारे में लिखे एक मराठी लेख में अमर हबीब कहते हैं, “हर एक फैन की ऐसी अलग कहानी होती है। यह सच है कि कविता भावना का एक क्षेत्र है, लेकिन इलाही की शायरी ये साबित करती हैं, की विचारों का आधार मिली हुई रचना सिंहासन पर काबिज होती हैं।
भावनाओं के संगीत को बाहर निकालने के लिए एक साधन (वाद्ययंत्र) लगता है। यदि साधन अच्छा नहीं है, तो इससे अच्छा संगीत कैसे निकल सकता है? इसलिए इलाही सर की किसी भी रचना को देखें, वह आशयपूर्ण नजर आती हैं। शब्दों के साथ खेलकर महल बनाया जा सकता है, लेकिन वह तूफान में गिर जाता हैं। पर इलाही कि कविता दटे रहती हैं, क्योंकि इसकी नींव मजबूत है। यह उनकी वैचारिक सोच से निर्मित है।”
ग़ज़ल लिखने के बारे में उनका मानना था कि ग़ज़ल को लिखना कोई साधारण सी बात नहीं है। एक इंटरव्यू में इस बारे में जो कहते हैं,
महाराष्ट्र में 80 के दशक में एक ऐसा दौर गुजरा है, जब किसी भी रचनाओं को गजल के रूप में पेश किया जाता है या फिर उसे ग़ज़ल कहा जाता। लोग भी धड़ल्ले से इसे ग़ज़ल के रूप में सुनते और सुनवाते। यह गलत रिवाज 80 के दशक में बहुत ज्यादा चल निकला जिसमें बड़े-बड़े नामी-गिरामी कवि शामिल थे।
बचपन नहीं रहा
गुलशन नहीं रहा
आंसू समझ गए
साजन नहीं रहा
कौस-ए-क़ज़ा कहाँ
सावन नहीं रहा
घर के सिवा कभी
आँगन नहीं रहा
पत्थर के शहर में
दर्पण नहीं रहा
मुफ़लिस हूँ इस क़दर
दुश्मन नहीं रहा
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भीड़ से अलहिदा
इलाही एक प्रतिभावान शायर थे। किसी भी झगमगाट और पब्लिसिटी के बगैर वे अपना काम करते रहे। पुणे में आये दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, पर मजाल की इलाही ने कभी किसी कार्यक्रम मे शिरकत की हो। इसी तरह वे कवि संमेलनों मे भी ज्यादा नजर नही आते थे।
मुस्लिम मराठी साहित्य आंदोलन के संस्थापक प्रो. फकरुद्दीन बेन्नूर कहते हैं, “उन्हें चापलुसी करने वाले लौग और फैन पसंद नही आते। साथ ही उनका कोई इस्तेमाल करे ऐसे आयोजकों से भी वे कोसों दूर रहते हैं।”
उनके मराठी ग़जल और कविताओ कि कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जिसमें, ‘अनुराग’, ‘अभिसारिका’, ‘अनुष्का’, ‘गुफ्तगू’ (हिंदी) आदी प्रमुख हैं।
अब तक उनके 15 से ज्यादा कविता और गजल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
उन्होंने टीवी और फिल्मों के लिए गीत भी लिखे हैं। उनके लिखे गीत आज भी सदाबहार नगमे की तरह गुनगुनाए और सुने जाते हैं।
सोलो कार्यक्रम करना उनकी विशेषताएं की। अक्सर होता यूं है कि एक कवि की ज्यादा रचनाएं सुनना आमतौर पर लोग पसंद नहीं करते। इलाही जमादार के बारे में यह नियम जरा हटके था लोग उन्हें अकेला सुनना पसंद करते और उतनी ही दाद देते हैं।
इक मुसाफिर को खज़ाना मिल गया
मुझको इक नीला दुपट्टा मिल गया
मंजिलें मुश्किल नहीं मरे लिए
मुझको ऊँगली का सहारा मिल गया
जिसने देखे उम्रभर साहिल के ख़्वाब
लाश को उसकी किनारा मिल गया
अब मज़े में ज़िंदगी कट जाएगी
उनकी यादों का खिलौना मिल गया
लौटकर जब आ गया वोह शाख़ पर
तिनका तिनका ख़्वाब बिखरा मिल गया
पत्थरों के गाँव में आई बहार
आज उनको इक दीवाना मिल गया
देखते ही आइना बोला मुझे
“शुक्रिया ऐ दोस्त चेहरा मिल गया”
आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उनकी रचना नियमित रूप से पेश की जाती थी। वे नये कवि और शायरों के लिए गज़ल वर्कशॉप भी लिया करते थे।
बीते कुछ सालों से उन्हें याददाश्त जाने कि बिमारी शुरू हो चुकी थी। पिछले साल जुलाई में गिर जाने के वजह से उन्हें पुणे के एक अस्पताल में भर्ती किया गया था। यहीं उनके ‘दोहे इलाही के’ नामक संग्रह का प्रकाशन किया गया था।
बचपन नहीं रहा
गुलशन नहीं रहा
आंसू समझ गए
साजन नहीं रहा
कौस-ए-क़ज़ा कहाँ
सावन नहीं रहा
घर के सिवा कभी
आँगन नहीं रहा
पत्थर के शहर में
दर्पण नहीं रहा
मुफ़लिस हूँ इस क़दर
दुश्मन नहीं रहा
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कभी प्रभाव में नहीं लिखा
उन्होंने कभी भी किसी के प्रभाव में आकर ग़ज़ल या अपनी रचनाएं नहीं लिखी है। इस बारे में उनका कहना था कि अगर हम किसी का पढ़ते हैं या किसी के प्रभाव में आते है तो अपनी रचनाएं उसके इर्द-गिर्द ही घूमती है।
उनकी मराठी ग़ज़ल
बर्फाहुनही थंडगार तू बनविलेस मजला
किती लीलया गुन्हेगार तू ठरविलेस मजला
काळोखाच्या कैचीमध्ये असावीस तेव्हा
सूर्याची चाहूल लागता विझविलेस मजला
मिळविलास तू परवाना हा स्वैर वागण्याचा
तुझे डोरले एक दागिना सजविलेस मजला
तुझ्या प्रीतीच्या छायेमध्ये घटकाभर बसलो
लगेच नंतर जीवनातुनी उठविलेस मजला
अमृत म्हणुनी घोट घोट तू मजला वीष दिले
असे ‘इलाही’ असे आजवर पोस्लेस मजला
जैसे ही इलाही जमादार के निधन कि खबर आते ही सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि देनेवाले उमड पड़े। हर कोई उनके बारे मे लिख रहा हैं, तो कोई उनके साथ अपनी फोटो साझा कर रहा हैं।
मी नजरेला खास नेमले गस्त घालण्यासाठी
तुला वाटते ती भिरभिरते तुला पाहण्यासाठी
म्हणून तू जाहलीस माझी, माझी केंवळ माझी
किती बहाणे केले होते तुला टाळण्यासाठी
घडीभराने मलूल होतो गजरा वेणीमधला
खरे सांगतो खरेच घे हे हृदय माळण्यासाठी
गुपचुप येऊन भेटत असते तुझी आठवण मजला
तिचा दिलासा मला पुरेसा आहे जगण्यासाठी
कधी कवडसा बनून यावे तुझ्या घरी एकांती
उघडझाप करशील मुठीची मला पकडण्यासाठी
तू म्हणजे गं फुल उमलते गंध तुझा मी व्हावे
दवबिंदू व्हावेसे वाटे तुला स्पर्शिण्यासाठी
तुझी साधना करता करता अखेर साधू झालो
निर्मोही जाहला ‘इलाही’ तुला मिळवण्यासाठी
जाते जाते :
- शायरी कि बारीकियां सिखाते गालिब के कुछ खत
- भावों को व्यक्त करना हैं ग़ज़ल लिखने की चुनौती
- क्या हिन्दोस्ताँनी जबान सचमूच सिमट रही हैं?
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