साल 2021, शायर-नग्मा निगार साहिर लुधियानवी का जन्मशती साल है। इस दुनिया से रुखसत हुए, उन्हें एक लंबा अरसा हो गया, मगर आज भी उनकी शायरी सिर चढ़कर बोलती है। उर्दू अदब में उनका कोई सानी नहीं। 8 मार्च, 1921 को लुधियाना के नजदीक सोखेवाल गांव में जन्मे साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हाई था। शायरी से लगाव ने उन्हें साहिर लुधियानवी बना दिया।
साहिर का बचपन बेहद तनावपूर्ण माहौल में गुजरा। उनके अब्बा फाजिल मुहंमद और उनकी अम्मी सरदार बेगम के वैवाहिक संबंध अच्छे न होने की वजह से घर में हमेशा तनाव बना रहता था। जाहिर है कि इसका असर साहिर के दिलो दिमाग पर भी पड़ा।
बगावत उनके मिजाज का हिस्सा बन गई। रिश्तों पर उनका एतबार न रहा। जिन्दगी में मिली इन तल्खियां को आगे चलकर उन्होंने अपनी शायरी में ढाला। मसलन
दुनिया ने तज्रबातों हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हूं मैं।
साहिर को लिखने-पढ़ने का शौक बचपन से ही था। पढ़ाई के साथ-साथ उनकी दिलचस्पी शायरी में भी थी। लुधियाना में कॉलेज की पढ़ाई के दरमियान ही वे गजलें-नज्में लिखने लगे थे। स्टूडेंट लाइफ में ही साहिर लुधियानवी की गजलों, नज्मों का पहला मजमुआ ‘तल्खियां’ प्रकाशित हुआ।
इस संग्रह को उनके चाहने वालों ने हाथों हाथ लिया। वे रातों-रात पूरे मुल्क में मशहूर हो गए। उर्दू के साथ-साथ हिंदी में ‘तल्खियां’ के कई संस्करण प्रकाशित हुए। इस किताब की सारी गजलें मोहब्बत और बगावत में डूबी हुई हैं। इन गजलों में प्यार-मोहब्बत के नरम-नरम अहसास हैं, तो महबूब की बेवफाई, जुदाई की तल्खियां भी।
अपनी मायूस उमंगों का फसाना न सुना
मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़। (मुझे सोचने दे !),
किसी-किसी गजल में तो उनके बगावती तेवर देखते ही बनते हैं। अपनी मकबूल गज़ल ‘ताजमहल’ में वे लिखते हैं,
ये चमनजार, ये जमना का किनारा, ये महल
ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये महराब, ये ताक
इक शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक।
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आज़ादी के सिपाही
साहिर लुधियानवी अपनी तालीम पूरी करने के बाद, नौकरी की तलाश में लाहौर आ गए। ये दौर उनके संघर्ष का था। उन्हें रोजी-रोटी की तलाश थी। बावजूद इसके साहिर ने लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा। तमाम तकलीफों के बाद भी वे लगातार लिखते रहे।
एक वक्त ऐसा भी आया, जब उनकी रचनाएं उस दौर के उर्दू के मशहूर रिसालों ‘अदबे लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सबेरा’ में अहमियत के साथ शाया होने लगीं। लाहौर में कयाम के दौरान ही वे प्रगतिशील लेखक संघ के संपर्क में आए और इसके सरगर्म मेम्बर बन गए। संगठन से जुड़ने के बाद उनकी रचनाओं में और भी ज्यादा निखार आया।
साहिर लुधियानवी का शुरुआती दौर, देश की आजादी के संघर्षों का दौर था। देश के सभी लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपनी रचनाओं एवं कला के जरिए आजादी का अलख जगाए हुए थे। साहिर भी अपनी शायरी से यही काम कर रहे थे। उनकी एक नहीं कई गजलें हैं, जो अवाम को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उठने की आवाज देती हैं। एक गजल में वे कहते हैं,
सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं
बरसों नए निजाम के नक्शे बनाये हैं।
अपनी क्रांतिकारी गजलों और नज्मों की वजह से साहिर लुधियानवी का नाम थोड़े से ही अरसे में उर्दू के अहम शायरों की फेहरिस्त में शामिल हो गया। नौजवानों में साहिर की मकबूलियत इस कदर थी कि कोई भी मुशायरा उनकी मौजूदगी के बिना अधूरा समझा जाता था।
जिस ‘अदबे लतीफ’ में छप-छपकर साहिर ने शायर का मर्तबा पाया, एक दौर ऐसा भी आया जब उन्होंने इस पत्रिका का संपादन किया और उनके सम्पादन में पत्रिका ने उर्दू अदब में नए मुकाम कायम किए।
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मिली अवाम की मुहब्बत
‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें’ साहिर लुधियानवी की वह किताब है, जिसने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इस किताब से उन्हें अवाम की मुहब्बत भी मिली, तो आलोचकों से जी भरकर सराहना। इस काव्य संग्रह पर उन्हें कई साहित्यिक पुरस्कार मिले।
किताब में उनकी ज्यादातर नज्में संकलित हैं और ये सभी नज्में एक से बढ़कर एक हैं। एक लिहाज से देखें, तो ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें’ साहिर लुधियानवी की प्रतिनिधि किताब है। शीर्षक नज्म ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें’ में उनके जज्बात क्या खूब नुमायां हुए हैं,
आओ कि कोई ख्वाब बुनें, कल के वास्ते
वरना यह रात, आज के संगीन दौर की
डस लेगी जानो-दिल को कुछ ऐसे, कि जानो-दिल
ता उम्र फिर न कोई हंसी ख्वाब बुन सके।
साहिर की इस नज्म को खूब मकबूलियत मिली। गुलाम मुल्क में नौजवानों को यह नज्म अपनी सी लगी। एक ऐसा ख्वाब जो उनका भी है। जैसे मुस्तकबिल के लिए उन्हें एक मंजिल मिल गई। इस किताब में ही साहिर लुधियानवी की लंबी नज्म ‘परछाईयां’ शामिल है।
चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहें
कि हम को जंगो-जदल के चलन से नफरत है।
जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आए
हमें ख्याल के उस पैरहन से नफरत है।
बगावत और वतनपरस्ती में डूबी हुई इस पूरी नज्म में ऐसे कई उतार-चढ़ाव हैं, जो पाठकों को बेहद प्रभावित करते हैं। ‘परछाईयां’ के अलावा ‘खून फिर खून है !’, ‘मेरे एहद के हसीनों’, ‘जवाहर लाल नेहरू’, ‘ऐ शरीफ इंसानों’, ‘जश्ने गालिब’ ‘गांधी हो या गालिब हो’, ‘लेनिन’ और ‘जुल्म के खिलाफ’ जैसी शानदार नज्में इसी किताब में शामिल हैं। यह किताब वाकई साहिर का शाहकार है। यदि इस किताब के अलावा वे कुछ भी न लिखते, तो भी अजीम शायर होते। उनकी अज्मत मंजूर करने से कोई इंकार नहीं करता।
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यादगार फिल्मी सफर
साहिर लुधियानवी को अपनी नज्मों से पूरे मुल्क में खूब मकबूलियत मिली। अवाम का ढेर सारा प्यार मिला। कम समय में इतना सब मिल जाने के बाद भी साहिर के लिए रोजी-रोटी का सवाल वहीं ठिठका हुआ था। मुल्क की आजादी के बाद अब उन्हें नई मंजिल की तलाश थी। साहिर की ये तलाश फिल्मी दुनिया पर खत्म हुई।
‘आजादी की रात’ (साल 1949) वह फिल्म थी, जिसमें उन्होंने पहली बार गीत लिखे। इस फिल्म में उन्होंने चार गीत लिखे। लेकिन अफसोस न तो ये फिल्म चली और न ही उनके गीत पसंद किए गए। बहरहाल फिल्मों में कामयाबी के लिए उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। साल 1951 में आई ‘नौजवान’ उनकी दूसरी फिल्म थी। एसडी बर्मन के संगीत से सजी इस फिल्म के सभी गाने सुपर हिट साबित हुए।
फिर नवकेतन फिल्मस की फिल्म ‘बाजी’ आई, जिसने साहिर को फिल्मी दुनिया में बतौर गीतकार स्थापित कर दिया। इत्तेफाक से इस फिल्म का भी संगीत एसडी बर्मन ने तैयार किया था। आगे चलकर एसडी बर्मन और साहिर लुधियानवी की जोड़ी ने कई सुपर हिट फिल्में दीं।
‘सजा’ (साल 1951), ‘जाल’ (साल 1952), ‘बाजी’ (साल 1952), ‘टैक्सी ड्राइवर’ (साल 1954), ‘हाउस नं. 44’ (साल 1955), ‘मुनीम जी’ (साल 1955), ‘देवदास’ (साल 1955), ‘फंटूश’ (साल 1956), ‘पेइंग गेस्ट’ (साल 1957) और ‘प्यासा’ (साल 1957) वह फिल्में हैं, जिनमें साहिर और एसडी बर्मन की जोड़ी ने कमाल का गीत-संगीत दिया है।
फिल्मी दुनिया में साहिर को बेशुमार दौलत और शोहरत मिली। एक वक्त ऐसा भी था कि उन्हें अपने गीत के लिए पार्श्व गायिका लता मंगेशकर से एक रूपया ज्यादा मेहनताना मिलता था।
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गीतों मे अलग नजरिया
साहिर लुधियानवी के फिल्मी गीतों को उठाकर देख लीजिए, उनमें से ज्यादातर में एक विचार मिलेगा, जो श्रोताओं को सोचने को मजबूर करता है।
‘‘वो सुबह तो आएगी’’ (फिर सुबह होगी), ‘‘जिन्हें नाज है हिंद पर’’, ‘‘ये तख्तों ताजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो’’ (प्यासा), ‘‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमां बनेगा’’ (धूल का फूल), ‘‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को’’ (साधना) आदि ऐसे उनके कई गीत हैं, जिसमें जिंदगी का एक नया फलसफा नजर आता है।
ये फिल्मी गीत अवाम का मनोरंजन करने के अलावा उन्हें शिक्षित और जागरूक भी करते हैं। उन्हें एक सोच, नया नजरिया प्रदान करते हैं। अपनी फिल्मी मशरुफियतों की वजह से साहिर लुधियानवी अदब की ज्यादा खिदमत नहीं कर पाए। लेकिन उन्होंने जो भी फिल्मी गीत लिखे, उन्हें कमतर नहीं कहा जा सकता। उनके गीतों में जो शायरी है, वह बेमिसाल है।
‘तल्खियां’, ‘परछाईयां’, ‘आओ कि कोई ख्वाब बुने’ आदि किताबों में जहां साहिर लुधियानवी की गजलें और नज्में संकलित हैं, तो ‘गाता जाए बंजारा’ किताब में उनके सारे फिल्मी गीत एक जगह मौजूद हैं।
उर्दू अदब और फिल्मी दुनिया में साहिर के बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। जिसमें भारत सरकार का पद्मश्री अवार्ड भी शामिल है।
साल 1964 में फिल्म ‘ताजमहल’ के गीत ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’ और साल 1977 में फिल्म ‘कभी कभी’ के गाने ‘कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ फिल्म गीतकार का फिल्म फेयर अवार्ड मिला।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।