शायरी कि बारीकियां सिखाते गालिब के कुछ खत

पंधरा फरवरी को शायर मिर्झा गालिब कि पुण्यतिथी थी वे उर्दू और फारसी के बेहतरीन शायर माने जाते हैं उनका मूल नाम असदुल्ला खाँ ग़ालिब था। आर्थिक तंगहाली और गरिबी में 1869 में उनका निधन हुआ

गालिब को हमसे बिछडे करीबन 200 साल गुजर चुके हैं आज भी गालिब समकालीन कवि और शायरों के लिए एक मार्गदर्शक के रुप में खडे हैं। उनके पुण्यतिथि पर हम उनके कुछ खत दे रहे हैं, जो शायरी कि समझ रखने वालों के लिए उपयुक्त साबित हो सकते हैं..

गालिब कि अपने जमाने के कई होनहार शायरो से परिचय था वह शायर अपनी शायरी दुरुस्त करने गालिब के पास भेजा करते थें गालिब उन्हे न सिर्फ मार्गदर्शन करते बल्कि शायरी कि बारीकियां भी सिखाते

आज के लेख में हम गालिब के वह पत्र पढते हें जिन्हे उन्होंने ख्वाजा गुलाम गौसखा बेखबर के नाम लिखे थें इस पत्रों से मिर्झा गालिब की शायरी कि बारिकियों के समझ हमे पता चलती हैं 

7 जुलाई, 1865

किब्ला, आपका खत पहला पाया और मैं उसका जवाब लिखना भूल गया। कल दूसरा खत पाया मगर शाम को उसी वक्त पढ़ लिया। आदमी के हवाले किया। उसने आज सुबह दम मुझको दिया। मैं जवाब लिख रहा हूँ। बाद इस्तिता मे तहरीर (लिखने के समाप्ती पर) मुअनवन (शीर्षक देकर) करके डाक में भिजवा दूंगा।

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वाली ए रामपूर को खुदा सलामत रखे। अप्रैल, मई, इन दोनों महीनों का रुपया मुआफ़िक दस्तूरे क़दीम आया। जून माहे आइन्दा का रुपया खुदा चाहे तो आ जाये। जुमा, 7 जुलाई है, मामूल ये है कि दसवीं-बारहवीं को रईस का खत मयहुंडी आया करता है। मैंने क़सीद ए तहनियते जुलूस भेजा, उसका जवाब आ गया। अब मैं नज्म व नस्र (पद्य और गद्य) का मस्विदा नहीं रखता।

दिल इस फ़न से नफ़र है। दो-एक दोस्तों के पास उसकी नक़ल है, उनको इस वक़्त कहला भेजा है, अगर आज या गया कल, और अगर कल गया, परसो भेज दूंगा। भाई अमीनुद्दीनखां के इसरार मे खुसरो की गजल पर गजल लिखी है।

अलाउद्दीन खाँ ने उसकी नकल उनको भेज दी है। मैं दिवान पर मी चढ़ाता, मस्विदा भेजता हूँ। तकदीम व तारबीर हिंदुसो के मुताबिक याद रहे। गर्मी को शिद्दत ने हवास बजा नहीं, माहाजा अमराजे जिस्मानी व  आलामे रुहानी।

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ता. 1866

हज़रत पीर व मुशिद, इससे आगे आपको खत लिख चुका हूँ कि मुंशी मुमताजअली खाँ साहब से मेरी मुलाक़ात है और वो मेरे दोस्त हैं। ये भी लिख चुका हूँ कि मैं साहबे फर्राश हूँ, उठना-बैठना नामुमकिन है, खुतूत लेटे-लेटे लिखता हूँ।

इस हाल में दीबाचा क्या लिखू? ये भी लिख चुका हूँ कि तफ़्ता को मैंने खत नहीं लिखा। अशार उनके आये, इस्लाह दे दी, मंशाए इस्लाह जा बजा हाशिये पर लिख दिया। कल जो इनायतनामा आया उसमें भी दीबाचा का इशारा और तफ्ता के खुतूत का हुक्म मुन्दरिज पाया। नाचार तहरीरे साबिक़ का इरादा (दोहराना) करके हुक्म बजा लाया।

नाजरीने कातै बुरहान (पाठक) पर रोशन होगा कि नामुरादऔर बेमुरादका ज़िक्र मबनी (निर्भर) इस पर है कि अब्दुलवासे हाँसवीबेमुराद को सही और नामुराद को ग़लत लिखता है।

मैं लिखता हूँ कि तरकीबें दोनों सही लेकिन बेमुरादगनी को कहते हैं और नामुरादमुहताज को, अब आपके नजदीक अगर इन दोनों का महले इस्तेमाल एक ही हो तो मेरा मुद्दआए असली याने नामुरादकी तरकीब का अलरैग्म (विपरित) अब्दुलवास के सही होना फ़ोत नहीं।

शेर मिर्झा साहब

नामुरादी जिन्दगी बरखीश आसाँ कर्दनस्त

तर्के जमियत दिले खुदरा बसामाँ कर्दनस्त

यहाँ नामुरादी’ ‘बेमुरादीके माने क्यों कर देगी? अग़निया (संपन्न लोग) खाह अहले तवक्कुल’, खाह अहले तम्मवुल’, मुतवल्लीन पर कभी काम आसान नहीं होता, बल्कि मुखलिसों से ज्यादा उन पर मुश्किलें हैं।

रहे अहले तवक्कुल उनकी सिफ़ते और हैं। वो अहलुल्लाह, हैं, मुकर्रबाने बारगाह किब्रिया (इश्वर के निकट निवास करनेवाला) हैं। दुनिया पर पुश्ते पा (लात) मारे हुए हैं। काम उन पर कब मुश्किल था कि उन्होंने उसको आसान कर दिया?

नामुरादसीग़ ए मुफ़रद (असंयुक्त) है मसाकीन का, असनाफ़े मसाकीन (भेद कि विशेषताए) का, असनाफ़े मसाकीन की शरह (व्याख्या) जरूर नहीं। सस्तीकशी, बेनवाई, तिहीदस्ती, गदाई ये औसाफ़ (विशेषताए) हैं मसाकीन के।

इन सिफ़ात में से एक सिफ़त जिसमें पाई जाये वो मिसकी वो नामुराद। अलबत्ता मसाकीन पर, न एक काम बल्कि सब काम आसान है। न पासे नामूस (लज्जा) व इज्जत, न हुब्बजह (प्रेमी) व मुकनत (सामर्थ्य) न किसी के मुद्दई, न किसी के मुद्दाअले।

दिन-रात में दो बार रोटी मिली बहुत खुश, एक बार मिली बहरहाल खुश। खुदा के वास्ते मौलाना साहब के शेर में से नामुराद बमानी कसे के हीच मुराद न दाश्ता बाशद (जिसका कोई उद्देश न हो) क्यों कर साबित होता है? मसाकीन की ज़िन्दगी जैसा कि मैं ऊपर लिख आया हूँ आसान गुजरती है या अग्निया की? रहा मौलवी मानवी अलैउर्रहम का ये शेर-

खाजा गुलाम गौशखाँ बेखबरके नाम

आक़िला अज बेमुरादीहाए खीश

बाखबर गश्तन्द अज मौलाए खीश

(खीश- बुद्धिमान् व्यक्ति अपनी असफलताओं के कारण ईश्वर से परिचित हो गये।)

मैने मसनवी के एक नुस्खे में आक़िलों की जगह आशिफ़ा देखा है। बहर सूरत माने ये हैं कि उश्शाकर (प्रेमी) या उकला (बुद्धिमान) बाद रियाजते शाका मासिवाए अल्लाह से एराज करके बेमुराद और बेमुद्दा हो गये। ये पाय ए तस्लीम व रजा है, अलबत्ता इसे रुतबे के आदमी को खुदा से लगाव पैदा होगा।

बाखबर गश्तन्द अज़ मौलाए खीश

यहाँ भी बेमुरादीसे नामुरादीके माने नहीं लिये जाते मगर हाँ

बेमुरादी मोमिना अज़ नेकों बद

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दूसरा मिसरा –

दर वकुल्ली बेमुरादत दाश्ती

इन दोनों मिसरो में नामुरादऔर बेमुरादके माने में खल्त (सम्मिलन) वाक़ हो गया है। खैर बेमुरादऔर नामुरादएक सही। हरचन्द दूसरे मित्र ए मौलवी में बेमुराद के माने बेहाजत के दुरुस्त होते हैं। मग

मन के रिन्दम शेव ए मन नीस्त बहस

ज्यादा तकरार क्यों करू? माहाज़ा मिस्र ए अब्बल की कुछ तौजीह (स्पष्टीकरण-व्याख्या) भी नहीं कर सकता। नामुरादकी तरकीब की सेहत अलैरग्म अब्दुल वासे साबित हो गई। फ़सबतुल मुद्दा (हमारी बात सिद्ध हो गई) कमाल ये के मानिन्द नाचारबेचाराऔर नाइन्साफ़और बेइन्साफ़के नामुराद व बेमुरादका भी मूरिदे इस्तेमाल मुश्तरिक (संयुक्त) रहा।

वस्सलाम।

(सौजन्य : गालिब के पत्र- हिदुस्थानी अकेडमी, इलाहाबाद-1966)

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