आज से इकहत्तर साल पहले संविधान बनाते वक्त हमारे मुल्क के कर्णधारों ने भले ही किसी के साथ मजहब, जाति, संप्रदाय, नस्ल और लिंग की बिना पर कोई फर्क न करने का एलान किया हो, मगर आज हकीकत इसके उलट है। खास तौर पर मुसलमानों के साथ यह भेद-भाव हर शोबे में दिखलाई देता है।
मुस्लिम समुदाय तालीम, सेहत, आर्थिक सुरक्षा और सार्वजनिक क्षेत्र आदि में बहुसंख्यक समाज से काफी पीछे है। अलबत्ता, संविधान के तहत समानता का हक उसे भी हासिल है। यूपीए सरकार द्वारा गठित ‘सच्चर कमेटी’ की रिपोर्ट, जो 30 नवम्बर 2006 को लोकसभा में पेश हुई, उसमें मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के बारे में जो आंकड़े सामने आए, वे काफी चिंताजनक थे।
रिपोर्ट के आंकड़े, सारी तस्वीर को खुद-ब-खुद बयान करते हैं। गुजिश्ता 74 सालों में हमारी सरकारों के मुसलमानों के जानिब भेद-भाव और उपेक्षापूर्ण रवैये से अपने ही मुल्क में हमने एक अंडर क्लास पैदा कर लिया है। मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक दशा अनुसूचित जातियों, जनजातियों के समकक्ष हैं।
वहीं सरकारी नौकरियों के मामले में तो वे काफी पिछड़ गए हैं। मुल्क में न सिर्फ मुख्तलिफ इलाकों और तबकों के बीच, बल्कि सांप्रदायिक स्तर पर भी खाई मौजूद है। खास तौर पर तालीम, जमीन का मालिकाना हक, सरकारी नौकरी, सेहत, सब्सिडी वाले अनाज में हिस्सेदारी वगैरह अनेक मामलों में उनका पिछड़ापन साफ झलकता है।
जहां तक सरकारी नौकरियों का सवाल है, मुसलमानों की हिस्सेदारी निम्नतम स्तरों में भी 8 फीसद से ज्यादा नहीं हो पाई है। आला प्रशासनिक पदों पर यदि नजर दौड़ायें, तो मुसलमान बमुश्किल 2 फीसद ही मिलेंगे।
आईएएस में 2.2, इण्डियन फोरेन सर्विस में 1.6 और आईपीएस में 3.0 फीसद मुसलमान हैं। जबकि आईएएस, आईपीएस लोकसेवा के केन्द्रीयभूत अंग हैं और नीति निर्णयों, विकासगत कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए और राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय गतिविधियों का बीड़ा उठाने के लिए वे जिम्मेदार होते हैं।
मुसलमानों का यहीं हाल न्यायपालिका में है, जहां उनकी भागीदारी सिर्फ 7.8 फीसद है। मुल्क में रक्षा, वित्त, विदेश मंत्रालय के ऊंचे ओहदों पर इक्का-दुक्का मुसलमान दिखलाई देते हैं। यही कहानी ‘आईबी’, ‘इण्डियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाईजेशन’, ‘नेशनल सेक्योरिटी गार्ड’, ‘वीवीआईपी प्रोटेक्शन गार्ड’ में हैं। यहां मुसलमानों की नुमाइंदगी क्यों नहीं है?, सवाल उठना लाजमी है।
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अलिखित आचार संहिता
संविधान में प्रतिष्ठित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों के बावजूद एक अलिखित सी आचार संहिता है, जिसमें मुसलमानों पर विश्वास नहीं किया जाता। भारतीय सेना कहती है कि फौज में भेदभाव नहीं होता, मगर जब ‘सच्चर कमेटी’ ने मुसलमानों के मुताल्लिक आंकड़े फौज से मांगे, तो थल सेना ने ही आंकड़े देने में सबसे ज्यादा कोताही बरती।
मौजूदा भारतीय सेना में महज 3 फीसद मुस्लिमों का होना सेना की भर्ती में भेदभाव होने की ओर ही इशारा करता है। मुस्लिम समुदाय के सीमांत परिवार आर्थिक दृष्टि से सबसे ज्यादा पिछडे़ हुए हैं। मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिव्यक्ति आय, अनुसूचित जाति के प्रति व्यक्ति आय के समकक्ष है।
आबादी के लिहाज से यदि देखें, तो दुनिया भर में इंडोनेशिया के बाद भारत में सबसे ज्यादा मुसलमान हैं। जो कि मुल्क की आबादी के 15 फीसद हैं और दूसरे बड़े बहुसंख्यक। मुस्लिम समाज के विकास के लिए और साथ ही उनका राजनीतिक समर्थन पाने के लिए हालांकि, मुख्तलिफ पार्टियां द्वारा तमाम तरह के वादे किये जाते रहे हैं। उनके कल्याण के लिए कुछ कार्यक्रम भी घोषित किये गये।
लेकिन ‘सच्चर कमेटी’ और उसके बाद साल 2014 में ‘कुंडू कमेटी’, जून 2013 में एनएसएसओ द्वारा जारी ‘भारत के बड़े धार्मिक समूहों में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति’, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3, आक्सफेम द्वारा साल 2013 में जारी ‘सहस़्त्राब्दी विकास लक्ष्य और मुस्लिम्स ऑफ इंडिया’, साल 2011 की जनगणना के आंकड़े और साल 2013 में आई ‘सिक्स इयर आफ्टर सच्चर-अ रिव्यू ऑफ इनक्लूसिव पॉलिसीज इन इंडिया’ आदि तमाम रिपोर्टों के विस्तृत अध्ययन से साफ जाहिर होता है कि इन योजनाओं का फायदा मुसलमानों तक नहीं पहुंचा है।
मुसलमानों का अपने कल्याण से संबंधित कई योजनाओं से अनभिज्ञता, इस बात की पुष्टि करता है। अधिकृत और गैर अधिकृत एजंसियों द्वारा उनके विकास के लिए कोई गंभीर विचार नहीं किया गया। गोया कि तमाम पैनलों की सिफारिशें धूल खा रही हैं। उतरोत्तर आती-जाती रही सरकारों ने भी इन योजनाओं को क्रियान्वित करने की अपनी तरफ से कोई परवाह नहीं की।
सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों के क्रियान्वयन की हक़ीक़त को जानने के लिए प्रोफ़ेसर अमिताभ कुंडू की अध्यक्षता में बनी ‘कुंडू कमेटी’ ने साल 2014 में अपनी रिपोर्ट में सरकार को ‘डाइवर्सिटी आयोग’ बनाने के साथ-साथ कई महत्वपर्ण सुझाव दिए थे। कमेटी का कहना था कि जिन संस्थाओं ने डाइवर्सिटी को बनाकर रखा है, जिन्होंने अपनी नियुक्तियों में, फ़ायदे देने में अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति-जनजाति का ख़्याल रखा है, लैंगिक समानता का ध्यान रखा है-उसकी एक रेटिंग होनी चाहिए।
उस रेटिंग में जो ऊपर आएंगे, उन्हें सरकार की ओर से कुछ छूट दी जा सकती है, कुछ उन्हें फंड दिए जा सकते हैं। यही नहीं ‘कुंडू कमेटी’ का यह भी मानना था कि मुस्लिम समुदाय में ऐसे बहुत से पेशे हैं जिनमें वे अनुसूचित जातियों वाले काम करते हैं। लिहाजा उन्हें अनुसूचित जाति के दर्जे में रखना चाहिए। उन्हें भी आरक्षण मिलना चाहिए।
‘कुंडू कमेटी’ की दीगर सिफारिशें थी कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए जो क़ानून, ‘अनुसूचित जाति और जनजाति, अत्याचार निवारण, क़ानून, 1989’ है, उसके दायरे में मुस्लिम समुदाय को भी लाया जाए। इसके अलावा रोज़गार के क्षेत्र में मुसलमानों की ऋण ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं, सरकार को उन्हें बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में मुस्लिम लड़कियां खास तौर पर 13 साल के बाद स्कूल छोड़ देती हैं, उसमें सुधार की ज़रूरत है।
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गुर्बत और गर्दिश
‘सच्चर कमेटी’ ने अपनी रिपोर्ट में मुल्क की जम्हूरियत की इस विसंगति की ओर खास तौर पर इशारा किया था कि “भारत जैसे बहु सांस्कृतिक, सामाजिक संरचना वाले देश में सभी वयस्कों को मताधिकार के आधार पर स्थापित लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अक्सर जातीय, भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों को कम आबादी की वजह से निर्वाचित होने का मौका नहीं मिल पाता। इससे सत्ता में हिस्सेदारी का उन्हें कम मौका मिलता है।”
अभी तलक के लोकसभा सांसदों के रिकॉर्ड उठाकर देखने पर इस बात की तस्दीक खुद-ब-खुद हो जाती है। लोकसभा के अंदर अभी तक मुस्लिम नुमाइंदगी 21 से 49 सीटों के आंकड़ों को ही छू पाई है। यानी लोकसभा की कुल सीटों में 4.3 से 6.6 फीसद ही मुसलमानों का प्रतिनिधित्व हो पाता है।
मौजूदा लोकसभा यानी 17वीं लोकसभा में केवल 26 मुस्लिम लोकसभा सदस्य हैं। ‘सच्चर कमेटी’ की रिपोर्ट कहती है कि “मुसलमान अपनी जनसंख्या बाहुल्य वाले चुनाव क्षेत्रों से भी नहीं जीत पाते हैं।” 17वीं लोकसभा में कई मुस्लिम बाहुल्य सीटों के रिजल्ट, इस बात की तस्दीक करते हैं। सत्ता में उचित प्रतिनिधित्व न मिलने की वजह से मुसलमानों की आवाज संसद और विधानसभाओं में पहुंच ही नहीं पाती।
अब बात उर्दू जबान की। पहले ‘सच्चर कमेटी’ और बाद में ‘रंगनाथ मिश्र आयोग’ दोनों ने ही अपनी रिपोर्टों में सरकार से उर्दू की तरक्की के लिए कई अहम सिफारिशें की थीं।
सच्चर कमेटी ने उर्दू को गुर्बत और गर्दिश से बाहर निकालने के लिए, जहां सभी सूबों को अपने यहां उर्दू माध्यम के स्कूल संचालित करने, उनमें वाजिब सहुलियतें और पढ़ाने वाले शिक्षकों की कुशलता बढ़ाने की वकालत की थी, तो वहीं मुल्क में धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों के साथ भेद-भाव को दूर करने के रास्तों की तलाश के वास्ते बनाए गए ‘रंगनाथ मिश्र आयोग’ का भी मानना है कि अल्पसंख्यकों के हितों के लिए शिक्षा में त्रि-भाषा फॉर्मूला अनिवार्य किया जाना बेहद जरूरी है।
जिसके तहत सभी सूबों में मातृभाषा के साथ-साथ उर्दू की तालीम लाजमी हो।
आजाद भारत में हमारे हुक्मरानों ने उर्दू जबान को जिन्दा रखने और इसकी तरक्की के लिए साल 1949 में सैकेण्डरी शिक्षा में भाषायी (तीन भाषा) फार्मूला बनाया था।
जिसके तहत एक मातृ भाषा, एक आधुनिक भाषा और एक विदेशी भाषा का प्रस्ताव था। लेकिन उस पर सही तरीके से आज तलक अमल नहीं हुआ। रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को आए हुए 12 साल हो गए हैं, लेकिन इस रिपोर्ट की सिफारिशों पर सरकार ने अभी तलक कोई कार्रवाई नहीं की है।
साल 1980 में ‘गोपाल सिंह कमेटी’, साल 2006-‘सच्चर कमेटी’, साल 2009-‘रंगनाथ मिश्र आयोग’ और उसके बाद साल 2014 में आई ‘कुंडू कमेटी’ की रिपोर्टों में भारतीय मुसलमानों की तस्वीर बहुत हद तक स्पष्ट नजर आती है।
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धूल खाती सिफारिशे
मुसलमानों के समग्र विकास के लिए इन कमेटियों ने अपनी रिपोर्ट में सरकार से कई सिफारिशें की थीं। इन सिफारिशों में सबसे अहम सिफारिश थी, सरकारी नौकरियों में मुस्लिम समुदाय के जानिब होने वाले भेद-भाव को रोकने के लिए ‘समान अवसर आयोग’ की स्थापना। लेकिन अफसोस !
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को आए हुए 15 साल हो गए, पर समान अवसर आयोग अभी तक हकीकत नहीं बन पाया है। ‘सच्चर कमेटी’, ‘रंगनाथ मिश्र आयोग’ से लेकर ‘कुंडू कमेटी की सिफारिश थी कि दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति का दर्जा प्रदान किया जाए। लेकिन इस सिफारिश पर ना तो यूपीए सरकार संजीदा थी और न ही राजग सरकार को इसकी कोई परवाह है। लिहाजा यह महत्वपूर्ण सिफारिश भी फाइलों के अंदर धूल खा रही है।
मुल्क में मुसलमानों का पिछड़ापन इतना है कि शहरी इलाकों में तकरीबन 38 फीसद और ग्रामीण इलाकों में 27 फीसद मुसलमान गरीबी रेखा के नीचे बदतरीन हालत में गुजर-बसर कर रहे हैं। उनके पिछड़ेपन की हालत देखते हुए ‘रंगनाथ मिश्र आयोग’ ने तो पिछड़े वर्ग के 27 फीसद कोटे में भी अल्पसंख्यकों का कोटा निर्धारित करने की वकालत की थी।
लेकिन केन्द्र सरकार ने इस राह में अभी तलक कोई पहल नहीं की है। लोकसभा और विधानसभाओं में मुसलमानों की नुमाइंदगी बढ़ाने के लिए सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में मौजूदा परिसीमन अधिनियम की समीक्षा करने की सिफारिश की थी।
इस सिफारिश पर तुरंत कार्रवाई करते हुए तत्कालीन यूपीए सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन भी कर दिया था। पर इसकी रिपोर्ट का अभी भी इंतजार है। वक्फ संपत्तियों के उचित प्रबंधन के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने साल 2013 में ‘वक्फ अधिनियम, 1996’ में व्यापक संशोधन किया था।
बावजूद इसके मुल्क की करोड़ों-अरबों रूपए की वक्फ संपत्तियों का बेहतर ढंग से इस्तेमाल नहीं हो सका है। इन वक्फ संपत्तियों का ही यदि सही तरह से इस्तेमाल हो जाए, तो मुसलमानों की आर्थिक हालत सुधर जाए। आपसी मनमुटाव, लालफीताशाही और कानूनी प्रक्रियाओं में यह संपत्तियां बेकार पड़ी हुई हैं।
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सांप्रदायिक पूर्वाग्रह
भारतीय मुसलमानों के मुख्यधारा में न आ पाने की यह कुछ बड़ी वजह हैं। मुसलमान मुख्यधारा में आएं, इसके लिए सरकार को अतिरिक्त कोशिशें करनी होंगी। सबसे पहले ‘सच्चर कमेटी’, ‘रंगनाथ मिश्र आयोग’ और ‘कुंडू कमेटी’ के तमाम सुझावों और सिफारिशें, जो कि फिलहाल फाइलों के अंदर दम तोड़ रही हैं, उन पर ईमानदारी से अमल हो। सरकारी नौकरियों में मुस्लिम समुदाय के जानिब होने वाले भेद-भाव को रोकने के लिए ‘समान अवसर आयोग’ की स्थापना एक बड़ा कदम हो सकता है।
दूसरा महत्वपूर्ण कदम, दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति का दर्जा प्रदान करना होगा। यही नहीं मुसलमानों की आबादी के लिहाज से सत्ता में उनकी वाजिब भागीदारी हो। मुल्क भर में करोड़ों-अरबों रूपए की जो वक्फ संपत्तियां अनुत्पादक पड़ी हुई हैं, उनका सही तरह से प्रबंधन हो।
सरकार की एक और कोशिश, इस दिशा में होना चाहिए कि नौकरशाही में व्याप्त सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और मुसलमानों के जानिब भेदभाव और उदासीनता दूर हो। यदि इतना भर हो जाए, तो मुसलमानों को भी बाकी समुदायों की तरह सरकारी योजनाओं और नीतियों का समान फायदा मिलेगा।
इसके अलावा मुल्क में एक ऐसी समावेशी शिक्षा नीति बनाई जाए, जो बच्चों के अंदर शुरुआत से ही एक-दूसरे धर्म के प्रति नफरत नहीं, बल्कि सहिष्णुता की भावना पैदा करे। वैज्ञानिक चिंतन और तर्कशक्ति को बढ़ावा दे। मुल्क में सद्भावना का माहौल बने, जिसमें सभी अपने रोजगार-धंधे चैन से कर पाएं। मुसलमानों की शैक्षणिक स्थिति में सुधार और आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक उत्थान से न सिर्फ मुस्लिम समुदाय की समग्र आर्थिक स्थिति सुधरेगी, बल्कि मुल्क का भी समुचित विकास होगा।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।