क़मर जलालाबादी अपने नाम के ही मुताबिक फिल्मी दुनिया आकाश के ‘क़मर’ थे। ऐसे चांद, जिनके गानों से दिल आज भी मुनव्वर होते हैं। पूरी चार दहाई तक उनका फिल्मों से वास्ता रहा और इस दौरान उन्होंने अपने चाहने वालों को अनेक सदाबहार, मदहोश कर देने वाले नग्मे दिए।
क़मर किस अंदाज के नग्मा निगार थे, इसके लिए सिर्फ एक छोटी सी मिसाल काफी है। फ़िल्म ’हावड़ा ब्रिज’ के मस्ती और शोखी भरे गीत ‘मेरा नाम चिन चिन चूं’ और ‘आइये मेहरबां बैठिये जाने जां, शौक से लीजिए जी इश्क के इम्तिहां’ उन्हीं की बेजोड़ कलम से निकले थे।
सूबा पंजाब में अमृतसर के पास एक छोटे से कस्बे ‘जलालाबाद’ में 9 मार्च, 1917 को जन्मे क़मर जलालाबादी का असल नाम ओम प्रकाश भण्डारी था। शायरी से मुहब्बत ने उन्हें ‘क़मर’ जलालाबादी बना दिया।
बचपन से ही उन्हें शायरी का बेहद शौक था। नौ साल की उम्र से ही वे गजलें लिखने लगे थे, जो करीब-करीब तुकबंदी होती थी। उनके घर में शायरी का ऐसा कोई माहौल नहीं था, जो उनके इस फ़न को बढ़ावा मिलता। शे’र-ओ-शायरी की चाहत ने उन्हें शायर अमर चंद ‘अमर’ से मिलवाया। ओम प्रकाश भण्डारी, उनकी शख्सियत और शायरी दोनों से काफी मुतास्सिर हुए।
मत करो यारों इधर और उधर की बातें
कर सको तुम तो करो रश्क-ए-कमर की बातें
जो दिल को छू न सके, गुनगुना न पाऊं मैं
ग़ज़ल न ऐसी सुना जिसको भूल जाऊं।
अमर चंद ‘अमर’ने न सिर्फ शायरी के मैदान में ओम प्रकाश भण्डारी की हौसला अफजाई की बल्कि उनकी शायरी में जरूरी इस्लाह भी दी। यही नहीं उन्हें ‘क़मर’ तखल्लुस दिया। चूंकि उनका कस्बा जलालाबाद था, लिहाजा उनका पूरा नाम हुआ ‘क़मर’ जलालाबादी।
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शायरी लिखने को बेकरार
शायर अमर चंद ‘अमर’ की रहबरी में उनकी शायरी संवरती चली गई। ‘क़मर’ जलालाबादी की तालीम पूरी हुई, तो घर वालों के दवाब में उन्होंने नौकरी की तलाश शुरू कर दी। लिखने-पढ़ने के शौक की वजह से जर्नलिज्म में आए। लाहौर के दैनिक अख़बार ‘डेली मिलाप’ और ‘डेली प्रताप’ में उन्होंने कुछ दिन काम किया।
मासिक पत्रिका ‘निराला’ और वीकली अखबार ‘स्टार’ के एडीटर रहे। पत्रकारिता करना, क़मर जलालाबादी की जिंदगी की मंजिल नहीं थी, यह पेशा सिर्फ रोजी-रोटी भर के लिए था। उनका दिल, तो हमेशा शायरी और फिल्मों में गीत लिखने के लिए बेकरार रहता था। बहरहाल, बहुत जल्दी ही उनके दिल की मुराद पूरी हो गई।
साल 1942 में मशहूर ड्रामा-निगार सैयद इम्तियाज अली ‘ताज’ की सिफारिश पर उन्हें पंचोली पिक्चर्स की फिल्म ‘जमींदार’ में गीत लिखने का मौका मिला। इस फिल्म के संगीतकार साहिब-ए-फ़न गुलाम हैदर थे। ‘जमींदार’ के सभी गाने हिट हुए। ख़ास तौर पर शमशाद बेगम द्वारा गाया गीत “दुनिया में गरीबों को आराम नहीं मिलता।”
इस फिल्म की कामयाबी से ‘क़मर’ जलालाबादी को ‘प्रभात’ फिल्म कंपनी, पूना में काम मिल गया। ‘प्रभात पिक्चर्स’ के साथ उन्होंने फिल्म ‘चांद’ साइन की। इस फिल्म के मौसिकार हुस्नलाल भगतराम थे। इत्तेफाक से ‘चांद’ उनकी भी पहली फिल्म थी।
ये दर्द-ए-हिज्र और इस पर सहर नहीं होती
कहीं इधर की तो दुनिया उधर नहीं होती
….. तुम्हीं दुआएँ करो कुछ मरीज़-ए-ग़म के लिए
कि अब किसी की दुआ कारगर नहीं होती
…..‘क़मर’ ये शाम-ए-फ़िराक़ और इज़तिराब-ए-सहर
अभी तो चार-पहर तक सहर नहीं होती।
इस फिल्म के गाने भी मकबूल हुए। “दो दिलों को यह दुनिया मिलने नहीं देती” गाने ने खूब धूम मचाई। ‘चांद’ के बाद प्रभात स्टुडियो की ‘गोकुल’, ‘रामशास्त्री’ और ‘गोकुल’ के गाने भी ‘कमर’ जलालाबादी ने लिखे। फिल्म ‘गोकुल’ ने सिल्बर जुबली मनाई।
फिल्म ‘गोकुल’ के गानों की कामयाबी ने ‘कमर’ जलालाबादी के लिए मुंबई की राह आसान कर दी। साल 1946 में वे मायानगरी मुंबई पहुंच गए। पहुंचते ही उन्हें फिल्म ‘प्यार की जीत’, ‘शहीद’ और ‘शबनम’ फिल्मों में गाने लिखने का मौका मिल गया।
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और स्टारडम बढ़ा
साल 1948-49 में रिलीज हुई, ये तीनों ही फिल्में सुपर हिट रहीं और गानों ने भी पूरे देश में धूम मचा दी। गानों की लोकप्रियता का आलम यह था कि “इक दिल के टुकड़े हजार हुए”, “इतने दूर हैं हुजूर”, “ओ दूर जाने वाले, वादा न भूल जाना” (फिल्म-प्यार की जीत), “बदनाम न हो जाए मुहब्बत का फसाना” (फिल्म-शहीद), “तुम्हारे लिए हुए बदनाम”, “किस्मत में बिछड़ना था” (फिल्म-शबनम) उस वक्त गली-गली में गूंजे।
इन फिल्मों की कामयाबी ने ‘कमर’ जलालाबादी को फिल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया। उनके पास फिल्मों में गाने लिखने के लिए लाइन लग गई। काम की मशरूफियत कुछ इस कदर थी कि निर्माता-निर्देशक राज कपूर को भी उन्हें इंकार करना पड़ा। अलबत्ता बाद में उन्होंने राज कपूर की फिल्म ‘छलिया’ के गाने लिखे। जो बेहद मकबूल हुए।
फिल्म का शीर्षक गीत ‘छलिया मेरा नाम..’ के अलावा ‘डम डम डीगा डीगा’ और ‘तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के’ जैसे गानों ने फिल्मी दुनिया में कमर जलालाबादी का स्टारडम और बढ़ा दिया। साल 1958 में आई उनकी फिल्म ‘फागुन’ के भी सभी गाने सुपर हिट हुए।
‘हावड़ा ब्रिज’ के गानों की तरह मौसिकार ओ. पी. नैय्यर और कमर जलालाबादी की जोड़ी ने इस फिल्म में भी अपने गीत-संगीत का जादू जगाया। खास तौर पर फिल्म ‘फागुन’ के “एक परदेसी मेरा दिल ले गया”, “मैं सोया अखियां मीचे, तेरी जुल्फों के नीचे” और “पिया-पिया न लागे मोरा जिया” गाने खूब चले।
छोटी सी बे-रुख़ी पे शिकायत की बात है
और वो भी इस लिए कि मोहब्बत की बात है
…..मैं ने कहा कभी है सितम और कभी करम
कहने लगे कि ये तो तबीअ’त की बात है।
कमर जलालाबादी ने यूं तो फिल्म की सिचुएशन और जरूरत के मुताबिक हर रंग, अंदाज के गीत लिखे, लेकिन महबूब की जुदाई और गम-उदासी में डूबे नग्मे लिखने में उनका कोई जवाब नहीं था। इंसानी जज्बात को वे अपने नग्मों में इस खूबसूरती से पिरोते कि सबको भा जाता था। आम जबान में लिखे उनके गीतों में जिन्दगी के गहरे मायने छिपे रहते थे।
“सुनती नहीं दुनिया कभी फरियाद किसी की” (फिल्म-रेणुका), “दिल किस लिये रोता है” (फिल्म-मुलाकात) “दोनों ने किया था प्यार मगर” (फिल्म-महुआ), “मैं तो एक ख्वाब हूं” (फिल्म-हिमालय की गोद में), “दीवानों से यह मत पूछो” (फिल्म-उपकार), “मैं कैसे कहूं टूटे हुए दिल की कहानी” (फिल्म-नरगिस), “कोई दुनिया में हमारी तरह बर्बाद न हो” (फिल्म-प्यार की जीत)।
“मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो” (फिल्म-छलिया), “फिर तुम्हारी याद आई ए सनम” (फिल्म-रुस्तम सोहराब), “मुहब्बत जिंदा रहती है, मुहब्बत मर नहीं सकती”(फिल्म-चंगेज खान) फिल्मी दुनिया में गीतकारों को जिंदगी के हर रंग, मनो भाव के लिए गीत लिखने होते हैं।
उनमें कोई-कोई गीत ऐसा बन जाता है, जो अपनी भाषा और भाव से हमेशा के लिए अमर हो जाता है। कमर जलालाबादी ने ऐसा ही एक गीत फ़िल्म ’पहली तारीख़’ के लिए लिखा था। संगीतकार सुधीर फड़के के संगीत निर्देशन में गायक किशोर कुमार ने क़मर जलालाबादी के लिखे मस्ती भरे बोलों “दिन है सुहाना आज पहली तारीख है, खुश है जमाना आज..” को उसी मस्ती और चुहल भरे अंदाज़ में गाकर इस गीत को अमर बना दिया।
यह गाना देश के मिडिल क्लास के जज्बात, उम्मीद और आने वाले कल की आशंकाओं की नुमाइंदगी करता है। आम अवाम में गाने की इस कदर मकबूलियत थी कि रेडियो सीलोन हर महीने की पहली तारीख़ को इसे रेगूलर बजाता था। कई दशकों तक यह सिलसिला चलता रहा। किसी भी गाने के लिए यह मर्तबा कोई छोटी बात नहीं। साल 1954 में फिल्म ‘पहली तारीख’ आई थी। सात दशक होने को आए, मगर इस गाने के टक्कर का कोई दूसरा गाना नहीं आया।
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दिग्गजों के साथ किया काम
क़मर जलालाबादी ने अपने लंबे करियर में कई होनहार संगीतकारों ग़ुलाम हैदर, जी. दामले, प. अमरनाथ, खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल भगतराम, एस. डी. बातिश, श्याम सुंदर, सज्जाद हुसैन, सी. रामचंद्र, मदन मोहन, सुधीर फड़के, एस. डी. बर्मन, सरदार मलिक, रवि, अविनाश व्यास, ओ. पी. नैयर, कल्याणजी आनंदजी, सोनिक ओमी, उत्तम सिंह और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि के साथ काम किया और एक गीतकार के तौर पर अनेक न भुलाए जाने वाले गाने हिंदी सिनेमा को दिये।
क़मर के साथ हुस्नलाल भगतराम और ओ.पी. नैय्यर की अच्छी ट्यूनिंग थी। उनके गानों पर ओ.पी. नैय्यर मिनिटों में धुन बना देते थे। बाद मे संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के साथ भी उन्होंने एक लंबी पारी खेली। फ़िल्म ’छलिया’ की कामयाबी के बाद इस तिकड़ी ने एक के बाद एक सुपर हिट फिल्में दी।
‘पासपोर्ट’, ‘जौहर महमूद इन गोवा’, ‘हिमालय की गोद में’, ‘दिल ने पुकारा’, ‘उपकार’, ‘सुहागरात’, ‘हसीना मान जाएगी’, ‘आंसू और मुस्कान’, ‘होली आई रे’, ‘घर घर की कहानी’, ‘सच्चा झूठा’, ‘पारस’ और ‘एक हसीना दो दीवाने’ वे फिल्में हैं, जिनके गाने आज भी पसंद किए जाते हैं।
क़मर जलालाबादी ने अपने समय के तकरीबन सभी टॉप सिंगरों के साथ काम किया। उनके लिखे गीत मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां, जी.एम दुर्रानी, ज़ीनत बेग़म, मंजू, सितारा देवी, नसीम बानो, अमीरबाई कर्नाटकी, मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद, गीता दत्त, सुरैया, श्मशाद बेगम, मुकेश, मन्ना डे, आशा भोसले, किशोर कुमार और स्वर-कोकिला लता मंगेशकर आदि ने गाया। यही नहीं एस. डी. बर्मन, सरदार मलिक, हेमंत कुमार आदि संगीतकारों ने भी उनके गीतों को अपनी आवाज दी।
कमर जलालाबादी की फिल्मों में मकबूलियत की वजह यदि जानें, तो उनकी गीतों की सादा जबान है। अपने गीतों में वे हिंदी, उर्दू के ऐसे आसान अल्फाजों का इस्तेमाल करते थे, जिन्हें आम आदमी भी आसानी से समझ लेता था। यही नहीं उनके नग्मों में जिंदगी का फलसफा और तर्जुबा भी झलकता था। युगल गीत लिखने में भी कमर जलालाबादी का कोई जवाब नहीं था।
“तुम्हीं मेरे मीत हो, तुम्हीं मेरे प्रीत हो” (फिल्म-प्यासे पंक्षी), “ओ माही ओ माही, दुपट्टा मेरा दे दे” (फिल्म-मीना बाजार), “नैन हमारे सपने तुम्हारे” (फिल्म-बिरजू उस्ताद), “ओ परदेशी मुसाफिर, किसे करता है इशारे” (फिल्म-बालम), “बेदर्द शिकारी सुन बात हमारी” (फिल्म-सनम) कमर जलालाबादी ने गीतों के अलावा करीब डेढ़ सौ से ज्यादा फिल्मों में कहानियां, स्क्रीन प्ले और संवाद भी लिखे।
इनमें से कुछ अहम फिल्मों के नाम हैं, ‘फागुन’, ‘आंसू’, ‘मुनीम जी’, ‘उजाला’, ‘ताजमहल’ और ‘छोटी भाभी’ आदि। फिल्म ‘छोटी भाभी’ के तो वे निर्माता भी थे। कमर जलालाबादी ‘फ़िल्म राइटर एसोसिएशन’ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।
‘रश्क-ए-कमर’ कमर जलालाबादी की गैर फिल्मी गजलों का मजमुआ है। इस मजमुए में उनकी एक से बढ़कर एक लाजवाब गजलें शामिल हैं।
इक हसीन ला-जवाब देखा है
रात को आफ़्ताब देखा है
नर्गिसी आँख ज़ुल्फ़ शब-रंगी
बादलों का जवाब देखा है।,
9 जनवरी, 2003 को क़मर जलालाबादी इस दुनिया को यह कहकर अलविदा कह गए।
शेर-ओ-सुखन की खूब सजाऊंगा महफिलें
दुनिया में होगा नाम मगर, उसके बाद क्या
…..इक रोज मौत जीस्त का दर खटखटाएगी
बुझ जाएगा चिराग-ए-‘कमर’, उसके बाद क्या
उठी थी ख़ाक, ख़ाक से मिल जाएगी वहीं
फिर उसके बाद किसको खबर, उसके बाद क्या।
इस गजल की चंद लाइनों में उन्होंने जैसे जिन्दगी का फलसफा बयां कर दिया है। ये फलसफा, ये गहरी सोच एक मुद्दत के तजुर्बे से हासिल होती है।
कमर जलालाबादी ने दुनिया की पाठशाला से जो कुछ भी सीखा, वह अपने चाहने वालों को गजलों, नग्मों के मार्फत वापस लौटाया। फिल्मी दुनिया में एक लंबी उम्र गुजारने के बाद, वे उस दुनिया में चले गए, जहां से फिर कोई लौटकर दोबारा नहीं आता।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।