इतिहास का तआल्लूक ‘जमाना ए माज़ी’ के गुजरे हुये वाकियात से हैं। माज़ी के वाकियात का इल्म हमें कैसे हुआ? इस तआल्लकूक से हमारी अक्ल सोच में पड़ जाती हैं। लेकिन आज भी बहुत सी ऐसी चिजे मौजूद हैं, जिन्हें हमारी आबा व वजदाद इस्तेमाल करते थे। जमाने माज़ी से हमे ऐसी तहरीरे (लेख) दस्तियाब हुई हैं, जो पत्थरों पर कुनींद हैं।
इस जराए के मदद से हम तारीख़ को आसानी से जान सकते हैं। इसके अलावा रिवायात, रस्मो-रिवाज, अव्वामी अदब व रहन सहन और दस्तावेजात के जरीए हमे तारीख़ का इल्म होता हैं।
जिस तरह हैदराबाद दकन, गुलबर्गा, बिदर, बीजापुर, अहमदनगर, औरंगाबाद, दौलाताबाद, खुल्दाबाद तारीख़ से पेवस्त (जुड़े हुआ) हैं। इसी तरह क़ंधार को भी तारीखी मुकाम हासिल हैं। पांचवी सदी ईसवीं में जुनूबी हिन्द में राष्ट्रकूट खानदान को उरूज हासिल हुआ। 792 ईसवीं में गोविंद (तृतीय) राजा तख्तनशीन हुआ, इस वक्त नासिक पर चांदवड राजा की हुकूमत थी।
गोविंद सुव्वम (तृतीय) ने चांदवड हुकूमत पर हमला कर नासिक को अपने हुकूमत में लिया। इसके इन्तेकाल के बाद इसके बेटे अमोघवर्ष ने सोलापूर के करीब ‘मांडखेल’ नाम का एक नया शहर आबाद किया। इसके बाद कृष्णदेवराय मशहीर हुआ और इसने अपना ‘पाया ए तख्त’ देवगिरी (दौलताबाद) बनाया।
कृष्णदेवराय ने अपने दौरे हुकूमत में बरार, खानदेश, बीड, परभणी, कोल्हापूर, रत्नागिरी और कावेरी नदी तक का इलाखा फतेह कर अपने हुकूमत में शामिल कर लिया। 13वीं सदी ईसवीं में अल्लाउद्दीन खिलजी नें देवगिरी पर हमला कर के रामदेवराय को शिकस्त दी। इस तरह कृष्णदेवराय की हुकूमत का खात्मा हुआ।
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राष्ट्रकुट राजाओं द्वारा स्थापित
जुनूबी दक्षिणी हिंद के राष्ट्रकूट राजाओ के दौरे हुकूमत के दोर में ही ‘क़ंधार’ शहर वजूद में आ चुका था। इस जमाने में पुरानी आबादी मौजुदा किले के मशरिक (पूर्व) मांझपुरी मे आबाद थी और यही आबादी कंधार की कदीम (प्राचीन) आबादी कहलाती हैं। राष्ट्रकूट के जमाने में ही यहां एक वसीं (विशाल) तालाब बनाया गया जो ‘जगतंग सागर’ कहलाता हैं।
अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपनी दहेली रवानगी से कब्ल मलिक काफूर को अपना जाननशीन (उत्तराधिकारी) मुकर्रर किया। मलिक काफूर ने हुकमूत के तौसीअ (विस्तार) के लिए वारंगल पर लष्कर ए जरार लेकर हमला किया और किले पर काबिज हो गया।
इसने अपनी नई हुकूमत में कंधार को एक परगना करार दिया। इस तरह एक जमाने में राष्ट्रकूट राजाओ का अहम शहर 509 हिजरी में आहिस्ता-आहिस्ता इस्लामी तहजिब व तमदुद और सख़ाफत (सभ्यता, संस्कृति और उदारता) का गहवारा बन गया हैं।
इसी असना (दौर) में नई तहजीब व नई तालिम की इप्तिद्दा हुई। बहुत सारे सुफी बुजुर्ग व वलिअल्लाह जुनबी हिन्द आना शुरू हुए। इनमें 725 हिजरी बमुताबिक 1347 ईसवीं के दरमियान एक जलीलूलकद्र व नामवर बुजुर्ग हजरत सय्यद सईदुद्दीन सरवरी वरफाई (सिलसिला) रहमतुल्लाह नामे वली दौलताबाद होते हुए कंधार तशरिफ लाए।
आपके हमराह कसीर तादाद में मुरीदीन व मोअतकदीन (अनुयायी) 16 रज्जब 736 हिजरी में आप रहुमलिल्लाह का विसाल (निधन) हुआ। इसी जगह आपके मदफन पर एक गुम्बद तामीर की गई। यह बारगाह जुनूबी हिन्द के मशहूर और माहरुफ बारगाह हैं, जो मुल्क की चौथी बडी बारगाह मानी जाती हैं। इस दरबार में हमा मजाहिब (विभिन्न पंथो) का हुजूम रहता हैं, फैजिया होते रहते हैं।
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कंधार तुघलक के जेरे असर
मुहंमद तुघ़लक जिसका अस्ल नाम जुनाखान था, 1325 ईसवीं में दहेली का हुक्मरान बना। मुहंमद तुघलक को बुजुर्गाने दीन से बहुत बड़ी अकिदत व उल्लफत थी। इस जमाने में जुनबी हिन्द इस्लामी इल्मो-अदब और सखाफत का मरकज था। और बेशुमार वलीअल्लाह का मरकज खुल्दाबाद शरीफ जो दौलताबाद से 12 किलोमीटर के फासले पर है, था तुघलक नें 1327 में अपना दारुल खिलाफा (राजधानी) दहेली छोडकर दौलताबाद को बनाया।
इसने बिदर की तरह क़ंधार को फोजी छावनी वह मरकज तब्दील किया और नुसरत सुलतान इस किले पर काबिज रहा। इसने तुघलक के ख़िलाफ बगावत की। तुघलक ने इस बगावत को कुचल डाला और इसकी जगह मलिक सैफुद्दीन खान को क़ंधार किलेदार मुकर्रर किया।
मलिक सैफुद्दीन ने किले का मशरिकी बुर्ज और किले की बाहरी हिफाजती दिवार की तामीर की। सैफुद्दीन खान ने कंधार कि तरक्की और हर शहर को तरक्की के मवाके फरहाम किए। इसने क़ंधार को तिजारत की मरकज हैसियत से काफी उरज पहुंचाया। हसन गंगू बहमनी 1347 में दहेली के हुक्मरान को शिकस्त देकर ‘अल्लाउद्दीन बहमनशाह’ इस नाम से अपने हुकूमत की बुनियाद डाली।
हसन गंगोही ने किलेदार ए क़ंधार मलिक सैफुद्दीन से मिलकर वारंगल के इमादुद्दीन क शिकस्त दी। और मलिक सैफुद्दीन को किले का फिर किलेदार मुकर्रर किया। बिदर और कोलास के किले भी इसके जेरे हिरासत थे। इसी वक्त क़ंधार के तालाब के अतराफ एक वसी दिवार बनाई गयी। आज यहां के बाशिंदे इसे ‘जय’ कहते हैं।
इसके अलावा बहादुरपुरा को जाते हुए जानिबे मगरिब एक टिले पर खिबसुरत व खुशनुमा इदगाह कि तामीर मलिक सैफुद्दीन ने की, जो आज तक बेहतरीन हालात में हैं। इसके अलावा किले के अंदरुनी हिस्से नई इमारतों का इजाफा किया और दुसरी हिफाजती दिवार तामीर की।
हसन गंगोही के दौर में ही यहां इस्लामी मदरसा कायम किया गया था। दूरदराज के मदरसो से इसका राबता था। अक्सर तलबा हुसूलें इल्म के खातिर यहां आया-जाया करते थे। इसी वजह से क़ंधार की अहमियत बढ़ गयी थी। क़ंधार की तरह बिदर भी एक परगना (सुबा) समझा जाता था, जिससे कंधार व बिदर के हालात मुस्तहैकम (विकास) हुए।
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सूफी बुजुर्गों का कयाम
तिजारती आमद व रफत की वजह से इन दो शहरो का काफी उरूज हासिल हुआ। इसी दौरान एक मशहूर और माहरूफ जलीक्रद बुजुर्ग हजरत शेखअली ‘सांगडे सुलतान’ रहमतुलिल्लाह 832 हिजरी क़ंधार तशरीफ लाए। तालाब के किनारे आपने कयाम करना पसंद किया। सफर 746 हिजरी में आपका विसाल हुआ। तालाब के किनारे आपकी बारगाह बनाई गयी। आप ‘मुश्किल आसां’ रहेमतुल्लिहा के नाम से मशहूर हैं।
क़ंधार में बहुत सारे सुन्नत व औलिया किराम यहां आए और यहां कियाम करना पसंद किया। इसे जमाने में क़ंधार बदर शहर से गहरा तआल्लुक था। हुसैन गरसप की जेरे निगरानी यहां फौजी छावनी थी। आगे चलकर वजीर महमूद गवान कंधार के किले को अपना सदर मुकाम (राजधानी) बनाया।
यहां ईसवीं 1429 में खिलजी और अफवाज (फौजों का संघटन) के दरमियान लडाई हुई, जिसमें खिलजीओं को शिकस्त हुई। खिलजी फौज बरार से नांदेड़, उत्तरी बीजापुर व दौलताबाद से बहमनी फौज कामयाबी से आगे बढ़ती गयी। कुछ दिनों बाद यहा किला खिलजी के कब्जे में रहा बाद में उन्हें शिकस्त हुयी।
आगे चलकर कासिम बेग तुर्क बरीद ने क़ंधार को बतौर ए जागिर हासिल किया। बहमनी के जवाल के वक्त कासिम बेग ने इस सुनहरे मौके का फायदा उठाकर अपनी इस जागिर को मुस्तहैकम बनाया। इसने क़ंधार को राजधानी दुव्वम (द्वितीय) की हैसियत दी। इस वक्त के हालात नासाजगार थे, कि कौन सा शहर आबाद होगा और कौन सा नया शहर वजूद में आएगा।
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40 साल बरिदशाही सत्ता
कुछ ही अरसा गुजरने के बाद दिलावर खान लष्करे जर्रार लेकर हमलावर हुआ। इसकी फौज में घोडे और हाथी सनवार की काफी तादाद थी। कासिम बेग तुर्क बरीद को कंधार छोडकर गोलकुंडा के तरफ भागने को मजबूर किया। लेकिन दिलावर खान ने इसका पिछा नही छोड़ो और इसी में वह हाथी से गिरकर मर गया।
कासिम बेग ने इसकी मौत का फायदा उठाकर हिरसे क़ंधार में अपना तसल्लूत (बस्तान) जमा लिया। कासिम बेग ने अपनी फौजी छावनी किले में रखी और नेमाजी पंडित को दीवान मुकर्रेर किया। इस दिवान ने किले में कुछ इमारते बनवाई। कंधार पर बरीदशाही हुकमूत 40 बरस रही। इसी दौरान किले में कुछ नयी इमारते व फसील की नये सिरे से शुरुआत की गयी।
किले में कई कुतबो (शिलालेख) से पता चलता हैं इन्हें सोलहवीं सदी ईसवीं में बनाया गया था। 1656 में अहमदनगर की चांदबिबी रियासते बरार और इसके साथ क़ंधार का किला भी मुग़लों को दे दिया। 16 ईसवीं में अहमदनगर की हुकूमत जवाल अस्त हुयी और मुग़लो की हुकूमत जुनबी हिन्द में कायम हो गयी।
निज़ामशाह के वजीर मलिक अंबर और मेन राजा दोनो ने मिलकर मुग़लो से अपनी लडाई बीस सालों तक जारी रखी। इनमें से कुछ लडाईया कंधार और नांदेड़ के इलाके में हुयी। 1652 नांदेड़ के करीब के लडाई में मलिक अंबर जखमी हुआ। कुछ ही दिनों बाद मलिक अंबर नें लष्कर ए जर्रार तैयार करके फिर से मुग़लो से लडाईयां कर किला हासिल कर लिया।
मलिक अंबर के जमाने में किले में अंबर बुर्ज की तामिर हुई। इस बुर्ज पर एक तोप रखी हुई है, जिसे ‘अंबरी तोप’ कहते हैं। इसी दौर में एक दरगाह और आलीशान मस्जिद बनाई गयी। इस तआल्लुक से 1004 हिजरी का एक कुतबा किले में मौजूद हैं।
मलिक अंबर के मौत के बाद निज़ामशाही फतेह ने क़ंधार का किलेदार सरफराज खान को मुकर्रर किया। सरफराज खान ने किले में एक और दुसरी मस्जिद बनाई किले अंबरी और बिदरी ऐसी कुल तीन बडी तोपे हैं। इसके अलावा छोटी-बडी कुल 116 तोपे हैं। हर एक बुर्ज पर एक तोप रखी गयी हैं। और तोपे में ड़ालने के लिए पत्थर के गोले बेशुमार तादाद में देखने को मिलते हैं।
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क़ंधार निवासी सरवरी उर्दू के जानेमाने सहाफी हैं।