चित्रकला की भारतीय परंपरा को मुग़लों ने किया था जिन्दा

चित्रकला के क्षेत्र में मुग़ल शासको का बहुत ही अहम योगदान रहा हैं। इनकी पेंटिंग पर हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन तथा इस्लाम का काफी प्रभाव था। उन्होंने दरबारों, जंग, समारोह, उत्सव, प्रेम, विरह, परिंदे, जानवर और शिकार का पीछा करने के दृश्यों समावेश किया। चित्रकारी में आये इन नये विषयों के साथ कलाकारी में अनेक नये रंग और अयाम जोड़े गए।

हुमायूँ, सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में मुग़ल चित्रकला का विकास हुआ। मुग़ल पेंटिंग  फारसी और भारतीय शैली का मिश्रण थी, जो बाद में उसकी खासियत बनी।

इतिहासकार सतीश चंद्र मानते है की, आठवीं सदी के बाद इस परंपरा का ऱ्हास हुआ, पर आठवीं सदी और उसके बाद की भोजपत्रों पर लिखी पांडुलिपियों और अलंकृत जैन ग्रंथों से पता चलता है कि यह परंपरा मरी नहीं थी।

वह आगे लिखते हैं, जैनियों के अलावा मालवा और गुजरात जैसे कुछ प्रांतीय राज्यों ने भी पंद्रहवीं सदी में चित्रकला को संरक्षण दिया। पर इसका सजीव पुनरुत्थान अकबर के शासनकाल में ही हुआ। शाह ईरान के दरबार में रहते समय हुमायूँ ने दो उस्ताद चित्रकारों को अपनी सेवा में रखा था।

सतीश चंद्र के मुताबिक मुग़लों ने चित्रकला की भारतीय परंपरा को जिन्दा किया, जो बाद में मुग़लिया की शानो-शौकत का अहम हिस्सा रही। ये कला इनका राज-पाट खत्म होने के बाद भी लंबे अरसे तक देश के विभिन्न भागों में जारी रही। यानी लगभग सोलहवीं से अट्ठाराहवीं सदी तक यह कला बड़े पैमाने पर विकसित हुई। शैली, नयापन और रंगों के समृद्धि का कारण यह मुमकीन हो सका।

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हुमायूँ ने चढ़ाया परवान

मुग़ल पेंटिंग फलने-फुलने एक और वजह इतिहासकार मानते हैं, वह हैं की चित्रकारी की प्राचीन भारत परंपरा। यहाँ पेंटिंग की पुरानी रिवायत रही है। एलोरा-अजंता के भित्तिचित्र उसकी जिन्दादिली का सबूत हैं।

अपने बुरे दिन काटकर हुमायूँ जब भारत लौटा तो वह अपने साथ दो फ़ारसी महान कलाकारों अब्दुल समद और मीर सैयद को लाया। इन दोनों को उसने दास्तान-ए-अमीर हम्ज़ा (हम्ज़ानामा) की चित्रकारी का काम सौंपा। हम्ज़ानामा मुग़ल पेंटिंग की पहली अहम और महत्त्वपूर्ण कृति है। यह पैगम्बर के चाचा अमीर हम्ज़ा के बहादूरी के कारनामों का चित्रणीय संकलन है। इसमें कुल 1200 चित्रों का संग्रह है।

हुमायूँ के साथ आये इन दोनों कलाकारों ने स्थानीय कला में भी अपना हुनर दर्ज कराया और धीरे-धीरे मुग़लिया चित्रकला की नींव बंध गयी, जो बाद में एक अमर इतिहास के रुप मे परवान चढ़ी।

मुग़ल पेंटिंग विकसित होने में सम्राट अकबर और जहाँगीर का शासनकाल बहुत महत्वपूर्ण रहा। अकबर के नेतृत्व में शाही विभाग में चित्रकला को अहम जगह देकर कलाकारों को संघटित किया गया। देश के विभिन्न इलाकों से बड़ी संख्या में चित्रकार बुलाए गए। जहां उच्च-निच, जाति-धर्म का कोई भेद नही था। कौशल उनकी गुणवत्ता थी।

इनमें ज्यादातर तो हाशिए पर धकेले गए जाति-समुदायों से आये थे। इतिहासकार कहते हैं, शुरुआत से इस काम में हिंदू और मुसलमान, दोनों शामिल रहे। मसलन, अकबरी दरबार के दो प्रसिद्ध चित्रकार दसवंत और दसावन थे। साथ ही मीर सैय्यद अली, ख्वाज़ा, अब्दुस समद, मुकुंद आदि प्रमुख चित्रकार भी थे। आइन ए अकबरी में कुल 17 चित्रकारों का जिक्र मिलता है।

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भारत बना चित्रकला का प्रसिद्ध केंद्र

ईसवीं सन 1570 से 1585 के बीच अकबर ने मुग़ल शैली की पेंटिंग का अध्ययन करने के लिए एक सौ से ज्यादा चित्रकारों को काम पर रखा। कहा जाता हैं, अकबर के समय में पहली बार भित्ति चित्रकारीकी शुरुआत हुई। अकबर अनेक कलाओ का भोक्ता था। यही वजह रही की उसके दौर में इस पेंटिंग का तेजी से विकास हुआ और जल्द ही भारत चित्रकला का सुप्रसिद्ध केंद्र बन गया।

सतीश चंद्र अपनी किताब मध्यकालीन भारत में कहते हैं, फ़ारसी कथाओं की पुस्तकों के चित्रांकन के अलावा चित्रकारों को जल्द ही महाभारत का फ़ारसी अनुवाद करने और ऐतिहासिक ग्रंथ अकबरनामा और अन्य ग्रंथों के चित्रांकन का काम सौंपा गया। इस तरह भारतीय विषयों, भारतीय दृश्यों और भारतीय भूदृश्यों का प्रचलन हुआ और इस बात ने इस संप्रदाय को फ़ारसी प्रभाव से मुक्त कराया।

चंद्र के मुताबिक मुग़लो ने चित्रकारी को केवल फ़ारसी से बांधे नही रखा, बल्कि उसमें ज्यादा से ज्यादा भारतीयता को समाहित किया। पेंटिंग में मयूरी नीला, लाल, पीला, हरा, गुलाबी और सिंदूरी रंगों का आदि भारतीय रंगों का इस्तेमाल किया जाने लगा। सुनहरे रंगो को भी प्रचुरता इस्तेमाल किया जाने लगा।

इस तरह फ़ारसी शैली के शुरुआती सपाट प्रभाव की जगह भारतीय के बहुरंगीय और संमिश्र प्रभाव ने ले ली, जिसने चित्रकारी में नयी जान ड़ाल दी। इनके संगम से भारत में विशिष्ट ऐसी मुग़ल पेंटिंग का जन्म हुआ।

अकबर के शासनकाल में दरबार में यूरोपीय चित्रकला का चलन शुरू हुया। जिसके लिए पुर्तगाली पादरियों का अहम योगदान रहा।

बहुत से इतिहासकार मानते है की, मुग़ल पेंटिंग  जहाँगीर के काल में अपने चरम पर पहुँची। अकबर कि तरह जहाँगीर भी पारखी नजर वाला इन्सान था। मुग़लिया पेंटिंग में एक खास बात थी, जो कि एक ही चित्र में विभिन्न चित्रकार व्यक्तियों के चेहरों, शरीरों और पैरों के चित्र बनाते थे।

चंद्र लिखते, जहाँगीर में एक खास बात थी, वह किसी भी चित्र देखकर हर चित्रकार का नाम और हुनर को पहचान सकता था। उन्होंने लिखा हैं, जहाँगीर के काल में शिकार, युद्ध और दरबार के दृश्यों के चित्र बनाने के अलावा व्यक्तियों और पशुओं के चित्र बनाने में विशेष तरक्की हुई।

उस्ताद मंसूरएवं अबुल हसन जहाँगीर के श्रेष्ठ कलाकारों में से थे। अबुल हसन ने तुजुक ए जहाँगिरीमें मुखपृष्ठ के लिए पेंटिंग बनाई थी। इन दोनो के अलावा जहाँगीर के समय के प्रमुख चित्रकारों में फारुख बेग’, ‘दौलत’, ‘मनोहर’, ‘बिसनदास थे।

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क्या थी खासियते?

मुग़लिया पेंटिंग की खासियत उसकी वास्तविकता यानी यथार्थवाद थी। हर प्रसंग, पल तथा घटनाओं के हुबहू चित्रांकित करना कलाकारों का अहम काम था, जिसमे में हमेशा वे खरा उतरते थे। यही वजह हैं, मुग़ल पेंटिंग में जानवर, परिंदे, समारोह, उत्सवों और दरबार का सटिक चित्रण मिलता था।

इस पेंटिंग की दूसरी और सबसे बड़ी खासियत सचित्र ग्रंथों में रामायण और महाभारत सहित हिन्दू महाकाव्यों का शामिल होना। हिन्दू पुराणकथाओ को भी इसमे खास जगह दी गयी हैं। इसी के साथ इसमें कुदरती पर्यावरण को बखुबी दर्शाया गया हैं। मुग़ल पेंटिंग परिंदे, वन्य जीव, उत्सव, समारोह, शाही जीवन जैसे विषयों के आसपास घूमती हैं।

शाहजहाँ के शासन काल में भी यह परंपरा जारी रही। उसके समय में आकृति-चित्रण और रंग सामंजस्य में कमी आ गई थी। उसके दौर में रेखांकन और बॉर्डर बनाने की उन्नति हुई। शाहजहाँ को देवी प्रतीकों वाली अपनी तस्वीर बनाने का शौक था जैसे- उसके सिर के पीछे रोशनी का गोला।

अनूप’, ‘मीर हासिम’, ‘मुहंमद फकीर उल्ला’, ‘हुनर मुहंमद नादिर’, ‘चिंतामणि उसके दौर के प्रमुख चित्रकार थे। शाहजहाँ का एक विख्यात चित्र भारतीय संग्रहालय में उपलब्ध है, जिसमें शाहजहाँ को सूफी नृत्य करते हुए दिखाया गया है।

कहते हैं, औरंगजेब ने पेंटिंग  को इस्लाम के विरुद्ध मानकर बंद करवा दिया था। बावजूद इसके इस दौर में मुग़ल चित्रों का अस्तित्व बना रहा। चित्रकला में औरंगजेब की कोई रुचि न होने की वजह से चित्रकार देश के विभिन्न हिस्सो में बिखर गए। पर इसका एक फायदा भी हुआ वह यह की, राजस्थान और पंजाब के पहाड़ी राज्यों में चित्रकला का विकास हुआ।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि औरंगजेब ने अपने आखरी दौर में चित्रकारी में कुछ रूचि ली, जिसके बाद उसके दौर के कुछ लघु चित्र जो शिकार खेलते हुए, दरबार लगाते हुए तथा जंग करते हुए प्राप्त दिखाई देते हैं।

औरंगजेब के बाद सत्ता कि वर्चस्व की लड़ाई अपने चरम पर पहुंची, लेकिन चित्रकला की मुग़ल परंपरा को नया जीवन मिला। इस बारे मे सतीश चंद्र ने विस्तार से लिखा हैं।

उनका कहना हैं, चित्रकला की राजस्थानी शैली ने मुग़ल रूपों और शैलियों के साथ पश्चिमी भारत या जैन चित्रकला के विषयों और पिछली परंपराओं का समन्वय किया। इस तरह शिकार और दरबार के दृश्यों के अलावा राधा के साथ कृष्ण की प्रेमलीला जैसे पौराणिक विषयों पर, बारहमासा अर्थात मौसमों पर और रागों पर चित्र बनाए गए। पहाड़ी शैली ने भी इन परंपराओं को जारी रखा।

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