कवि नही दर्द की जख़िरा थे सय्यद मुत्तलबी फ़रीदाबादी

र्दू शायरी के बारे में एक आम राय यह है कि वह ऊंचे तबके के शहरी लोगों की शायरी है जिसका गांव के जीवन और ग़रीब लोगों से कोई ताल्लुक नहीं है। लेकिन उर्दू में ऐसे शायरों की कमी नहीं है जिन्होंने अवाम की ज़बान  में गांव की ज़िंदगी, किसान और मजदूर जीवन की सच्चाई को सामने रखा है। उर्दू में आवामी शायरी की एक पूरी रवायत है।

मुत्तलबी फ़रीदाबादी उर्दू के एक अवामी शायर थे। यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि अब उन्हें फरीदाबाद (हरियाणा) में कोई न जानता होगा। पर आजादी से पहले, प्रगतिशील लेखक संघ आंदोलन के दौरान वे बहुत लोकप्रिय शायर थे।

उर्दू के एक बहुत मशहूर कहानीकार और उपन्यासकार इंतजार हुसैन ने 2015 में उन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखी थी जो पाकिस्तान के ‘एक्सप्रेस न्यूज़’ में छपी थी। उन्होंने  मुत्तलबी फरीदाबादी की शायरी को एक नए तरीके से याद किया था।

बीसवीं शताब्दी के अंत में उर्दू के मशहूर कवियों जैसे जमीलउद्दीनआली और इब्ने इंशा ने लोक परम्परा का जो रंग अपनाया और जिसकी वजह से वे बहुत सफल हुए उस रंग को बनाने का काम दरअसल मुत्तलबी फरीदाबादी ने ही  शुरू किया था।

मुत्तलबी फरीदाबादी के रचनाकर्म का फोकस मज़दूर और किसान जीवन है। उन्होंने मेहनतकशों के गीत लिखे हैं।

मुत्तलबी फरीदाबादी का जन्म सन 1893 ई.में फरीदाबाद में हुआ था। उनके  वालिद का नाम मीर अहमद शफी ‘नैयर’ था। वे एक बड़े जमीदार और उर्दू फारसी के कवि थे। अपने जमाने के उस्ताद कवि अमीर मीनाई के शागिर्द थे। मुत्तलबी फरीदाबादी की मां रज़िया सुल्ताना बेगम नवाब अलीउद्दीन खान ‘अलाई’ लोहारू के नवाब की बेटी थीं।

पढ़े : ‘रोमन’ हिन्दी खिल रही है, तो ‘देवनागरी’ मर रही है

पढ़े : क्या हिन्दी को रोमन लिपि के सहारे की जरूरत हैं?

कैसे जन कवि बन?

पूरी तरह सामंती उच्च वर्ग में पले बढ़े  मुत्तलबी फरीदाबादी जन कवि कैसे बन गए थे यह रहस्य उस समय तक समझ में नहीं आता है जब तक  यह पता नहीं चलता है कि बचपन से ही उसे अपनी हवेली के इधर उधर बसे गरीब किसानों के बच्चों के साथ खेलने कूदने में मज़ा आता था। वह उनके त्योहारों में वह बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया करता था। वह उनके जीवन को क़रीब से देखता था। उनकी भाषा समझने और बोलने में उसे मज़ा आता था।

उर्दू के एक विद्वान सैयद अब्दुल करीम ‘सहीब’ के अनुसार फरीदाबाद का यह इलाका पांच बोलियों –  हरियाणवी, खड़ी बोली, बृज भाषा, मेवाती और राजस्थानी का संगम है। भाषा की इस संपदा का पूरा फायदा मुत्तलबी फरीदाबादी ने उठाया है।

मुत्तलबी के बारे में मैं अधिक जानकारियां नहीं जुटा सका। उनकी कुछ किताबों से इतना जरूर पता चलता है कि वे प्रगतिशील लेखक संघ, कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रीय आंदोलन में बहुत सक्रिय थे। कई बार जेल गए थे। मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति समर्पित थे। विभाजन के बाद वे लाहौर चले गए थे।

कृतियाँ

मुत्तलबी फरीदाबादी के कविता संग्रह का नाम  ‘हइया  हइया’ है। यह मल्लाहों के एक गीत का शीर्षक है। इनकी शायरी में दो रंग बहुत साफ देखे जा सकते हैं। एक तो ऐसी कविताएं हैं जिसमें उस समय के जनवादी गीतों का स्ट्रक्चर दिखाई देता है। दूसरी तरफ कुछ ऐसी रचनाएं हैं जो लोग गीतों की छाया में लिखी गई है और जिनके विषय मानवीय संवेदना के आसपास परिक्रमा करते हैं।

दोनों तरह के गीतों के नमूने दिए जा रहे हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि गीतों को लिखते हुए मुत्तलबी फरीदाबाद ने संगीत, ध्वनि और एक्शन का पूरा ध्यान रखा है। लगता है  कि वे गीत नहीं बल्कि कोई स्क्रिप्ट लिख रहे हों।

हइया हइया

(ज़ेरे तामीर (निर्माणाधीन) महल की छत के लिए मजदूर एक गार्डर आहनी शहतीर (लोहे की बल्ली)चढ़ा रहे हैं।)

गडर लेना      कैसे भाई          ऐसे भाई              हइया हइया

बोझ उठा लो  बोझ उठा लो     महलसरा का        हां हां भाई

…….

हाथ बजा के    हाँ हाँ भाई       पैर बचा  के          हाँ हाँ भाई  

………..

पेट पलेगा      म्हारा तुम्हरा     महल बनेगा        राजाजी का

……..

सूद भरेंगे       हइया हइया       कर्ज़ मिलेगा         हइया हइया

###

पढ़े : मुज़तबा हुसैन : उर्दू तंज का पहला ‘पद्मश्री’ पाने वाले लेखक

पढ़े :बेशर्म समाज के गंदी सोंच को कागज पर उतारते मंटो

कश्ती खींचने वाले मजदूरों का गीत 

(पानी के बहाव के खिलाफ मज़दूर दरिया के किनारे किनारे कश्ती को खींचते हुए ला रहे हैं जिसमें मजबूत रस्से बंधे हुए हैं। इसमें एक दौलतमंद औरत सफर कर रही है। आवाज दूर से सुनाई पड़ती है।

शुरू में गीत नहीं सुनाई देता बल्कि न समझ में आ सकने वाली आवाजें होती हैं। जूँ जूँ कश्ती हमारे पास आती है आवाजें साफ सुनाई देने लगती हैं फिर तमाम गीत। जूँ जूँ वह हमसे  दूर आगे की तरफ जाती है आवाज़े मद्धम होती चली जाती है और फिर आहिस्ता आहिस्ता वो आवाजें भी नहीं सुनाई देती जो इब्तिदा में सुनी गई थीं)

                     

                     

हो      हो        हो         हो

लो     लो       लो         लो

रहो    रहो      रहो        रहो

लो     लो       चलो      चलो

बढ़ो    बढ़ो      बढ़ो       बढ़ो

नाव  में बैठी राजा की नार

पातर नाचे बारम  बार

पायल देत रही झंकार

ढोलक बोले  गिड़ गिड़ तार

………..

पेट की आग से नाव चलाओ

चलो चलें चलो चलें

………..

चाबुक दोनों मार रहे हैं

आगे टंडेल पीछे जमादार

………..

मजदूरी करके पछताए

पछताए फिर करने आए

………….

युग बीते यह जनम गुजारा

कोई नहीं बनता गुनतारा

………..

कोई पहन पहन मर जाए

कोई मरे पे कफन न पाए

………

इस दुनिया को आग लगाये

बल्ली तोड़ दें बीड़ा डुबोये

###

पढ़े : जब ग़ालिब ने कार्ल मार्क्स को वेदान्त पढने कि दी सलाह

पढ़े : अपने संगीत प्रेम से डरते थे व्लादिमीर लेनिन

###

धरती मां छाती से लगा ले

पच्छिम उमड़े बादल काले

पूरब फैले धुएं के  बादल

पटम हुए सब आंखों वाले

कौन भला इस काल को टाले

खान्ते बाजें, चमके भाले

नाग खड़े हैं जीभ निकाले

तोपें खोल रही हैं दहाने

तड़ तड़ तड़ तड़ गोली चाले

सारे किसान हैं सारे ग्वाले

सब मजदूरी करने वाले

आ अम्बर को कौन संभाले

तेरे ही बच्चे, तेरे ही बाले

धरती माँ छाती से लगा ले

###

मुत्तलबी फरीदाबादी की किताबें उर्दू में रेख़्ता पर उपलब्ध हैं। उन पर भी एक किताब छपी है। जिसका नाम है- ‘एक और बड़ा आदमी: मुत्तलबी फरीदाबादी’, संकलन, मियां मुहंमद अकरम।

यह किताब भी मुझे नहीं मिल सकी।

पढ़े : परवीन शाकिर वह शायरा जो ‘खुशबू’ बनकर उर्दू अदब पर बिखर गई

पढ़े : सिनेमा को बुराई कहने पर गांधी पर उखडे थे ख्वाजा अहमद अब्बास

मुत्तलबी फरीदाबादी पाकिस्तान क्यों गए?

मुत्तलबी फ़रीदाबादी  मार्क्सवादी थे, प्रगतिशील थे, भारत विभाजन, द्विराष्ट्र सिद्धान्त के विरोधी थे, हिन्दू मुस्लिम एकता पर विश्वास करते थे तब वे पाकिस्तान क्यों चले गए? मुझसे यह सवाल उर्दू कवि नासिर काज़मी के संदर्भ में गोविंद निहलानी ने भी पूछा था।

प्रायः यह विश्वास किया जाता है कि भारत विभाजन के समय भारत से पाकिस्तान जाना किसी व्यक्ति या समूह की मर्जी पर निर्भर करता था।

भारत विभाजन की शर्तों में यह स्पष्ट शर्त थी कि जो लोग भारत से पाकिस्तान न जाना चाहिए वे भारत में रुक सकते हैं और जो पाकिस्तान से भारत न आना चाहे वे पाकिस्तान में रुक सकते हैं। लेकिन व्यवहार में  इस शर्त का पालन कहीं कहीं नहीं हो पाया।

बहुत से लोग अपनी मर्जी से पाकिस्तान गए थे। लेकिन कुछ लोगों के लिए या कुछ समूहों के लिए भारत छोड़कर पाकिस्तान जाना अपरिहार्य हो गया था।

उसी तरह जैसे पाकिस्तान के हिंदुओं के लिए पाकिस्तान छोड़कर भारत आना अपरिहार्य हो चुका। इसी तरह कुछ मुसलमानों के लिए भारत से पाकिस्तान जाना बहुत बड़ी मजबूरी ही नहीं जिन्दगी और मौत का सवाल बन गया था।

विशेष रुप से हरियाणा और पंजाब के इलाकों में मुसलमानों की यही स्थिति थी। दिल्ली के आसपास के कुछ इलाकों में (सभी में नहीं)भी ऐसा ही माहौल बन गया था कि वहां कोई मुसलमान नहीं रह सकता था।

हो सकता है कि यह विवाद का विषय हो। ऐसे उदाहरण भी दिए जा सकें जिन से सिद्ध हो जाए की कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी कुछ मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए। ऐसे उदाहरणों को मैं चुनौती नहीं देता लेकिन सामान्य स्थिति के बारे में बात की जा सकती है।

पढ़े : दकनी सभ्यता में बसी हैं कुतुबशाही सुलतानों कि शायरी

पढ़े : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ : सत्ताधारीयों को खुली चुनौती देने वाला शायर

मकानों कि कमी

पाकिस्तान से बहुत बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत आ रहे थे। उनको बसाने, मकान और जमीन देने की बहुत बड़ी समस्या थी। काँग्रेस और शासन के एक गुट का विश्वास था कि यदि इधर से मुसलमान पाकिस्तान जाते हैं तो उनके मकान और जायदाद पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थियों को दी जा सकती है।

इसलिए मुसलमानों का पाकिस्तान जाना जरूरी है। काँग्रेस शासन में ही एक गुट ऐसा भी था जो भरसक प्रयास यह कर रहा था कि मुसलमान पाकिस्तान न जाए। दोनों गुट इस समस्या को अपनी-अपनी समझ और विचारधारा के आलोक में क्रियान्वित कर रहे थे।

दिल्ली में जामा मस्जिद के आसपास बसे मुसलमानों में जब सामूहिक रूप से पाकिस्तान जाने का निर्णय किया था तो उन्हें रोकने के लिए जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आज़ाद ने बहुत प्रयास किए थे और अंततः उन्हें रोक लिया गया था।

काँग्रेस और प्रशासन का दूसरा गुट चाहता था कि अधिक से अधिक मुसलमान पाकिस्तान चले जाएं। यह गुट भी सक्रिय था। दिल्ली के बाहर विशेष रूप से हरियाणा और पंजाब के इलाकों में इस गुट का बहुत प्रभाव था। वैसे पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों का दबाव भी बहुत बढ़ गया था। दूसरा कारण यह था कि ये क्षेत्र दिल्ली से दूर थे।

इन इलाकों से, सामूहिक रूप में मुसलमानों का पलायन हुआ था और जब  जनसमूह पलायन करते हैं तब व्यक्ति के लिए उसके खिलाफ टिके रहना लगभग असंभव हो जाता है। ऐसी स्थिति में ही मुत्तलबी फरीदाबादी जैसे लोग  पाकिस्तान जाने पर विवश हुए थे।

जाते जाते:

औरंगाबाद के वली दकनी उर्दू शायरी के ‘बाबा आदम’ थें

दकन के महाकवि सिराज औरंगाबादी

Share on Facebook