औरंगज़ेब को इतिहास में मूर्तिभंजक क्यों लिखा जाता हैं?

रंगज़ेब द्वारा बनारस के प्रसिद्ध शिश्वनाथ मंदिर के ध्वंस की काफी चर्चा होती है। यह मंदिर अकबर के नौरत्नों में शामिल टोडरमल द्वारा बनवाए गया था। अक्सर इस घटना को औरंगज़ेब की धार्मिक घृणा के परिणाम के रूप में देखा जाता है। इतिहासकार डॉ. पट्टाभी सीतारमैय्या की प्रसिद्ध पुस्तक द फीदर्स एन्ड द स्टोन्स में इस मंदिर को लेकर अलग कहानी बताई गयी है।

पट्टाभी के अनुसार जब औरंगज़ेब बंगाल जाते हुए बनारस के पास से गुजर रहे थे तब उनके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने प्रार्थना की कि यदि एक दिन का विश्राम कर लिया जाए तो उनकी रानियाँ बनारस में गंगास्नान करके भगवान विश्वनाथ की पूजा कर लेंगी।”

औरंगज़ेब इस बात के लिए सहमत हो गए। सेना ने बनारस से 5 किलोमीटर दूर डेरा जमा लिया, रानियाँ बनारस गयीं और गंगा स्नान करके पूजा के लिए विश्वनाथ मंदिर गयीं।

पूजा के बाद सभी रानियाँ वापस आ गयीं, लेकिन कच्छ के महाराजा कछवाहा शासक राजा जय सिंह की महारानी वापस नहीं लौटीं। छानबीन की गयी लेकिन रानी कहीं नहीं मिली।

जब औरंगज़ेब को इसका पता चला तो उनको गुस्सा आया और उन्होंने अपने उच्च अधिकारियों को मंदिर की ओर महारानी की खोजबीन के लिए भेजा।

अंततः उनको मंदिर के दिवार में जड़ी गणेश जी की एक मूर्ति मिली। जिसे इधर-उधर सरकाया जा सकता था। जब मूर्ति को सरकाया गया तो उन्होंने सीढ़ियाँ देखीं, जो तहखाने में उतर रहीं थीं। उन्होंने तहखाने में कच्छ की रानी को रोते पाया जिनकी अस्मत लूटी जा चुकी थी।

राजाओं ने इस जघन्य अपराध के लिए कड़ी सज़ा देने की माँग की तो औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि इस जगह की पवित्रता भ्रष्ट हो चुकी है, इसलिए भगवान विश्वनाथ को किसी दूसरे स्थान पर स्थापित करके मंदिर को गिरा दिया जाए और महंत को गिरफ्तार करके सज़ा दी जाए।

इतिहासकार प्रोफ़ेसर चतुर्वेदी कहते हैं, कि मंदिर गिराने का आदेश औरंगज़ेब ने दिया था लेकिन मंदिर को गिराने का काम कछवाहा शासक राजा जय सिंह की देख-रेख में ही किया गया था।

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पंडों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा 

औरंगज़ेब के आदेश का पालन होते समय जब यह बात कच्छ की रानी ने सुनी तो उन्होंने औरंगज़ेब के पास संदेश भिजवाया कि इसमें मंदिर का क्या दोष है ? दोषी तो वहां के पंडे हैं।

पट्टाभी लिखते हैं, “रानी ने इच्छा प्रकट की कि मंदिर को दोबारा बनवा दिया जाए। मगर औरंगज़ेब ने मंदिर को उसी स्थीति में छोड़ दिया गया। उससे सटी मस्जिद का निर्माण तो इस घटना के बहुत बाद हुआ।

प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफ़ेसर राजीव द्विवेदी समेत कई अन्य इतिहासकार भी इस घटना की पुष्टि करते हैं और कहते हैं कि औरंगज़ेब का यह फ़रमान हिन्दू विरोध या फिर हिन्दुओं के प्रति किसी घृणा की वजह से नहीं बल्कि उन पंडों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा था जिन्होंने कच्छ की रानी के साथ बलात्कार किया था।

इतिहासकार चतुर्वेदी के अनुसार, “स्वर्ण मंदिर में जो ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ था उसके आलोक में हमें इस घटना को देखना चाहिए। मंदिर तोड़ने पर जैसा रोष तत्कालीन हिन्दू समाज पर हुआ होगा वैसा ही ऑपरेशन ब्लू स्टार का सिख समाज में हुआ और उसका हश्र, इंदिरा गांधी ने भुगता। यह इतिहास ही नहीं, इतिहास समझने की दृष्टि भी है।” पटना के भूतपूर्व संग्रहपाल डॉ. पी. एल. गुप्ता के पास मौजूद साक्ष्य भी इस तथ्य की पुष्टी करते हैं।

हालाँकि काशी विश्वनाथ मंदिर मामले में दावे का समर्थन करने वाले विजय शंकर रस्तोगी कहते हैं कि औरंगज़ेब ने अपने शासन के दौरान काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का फ़रमान तो जारी किया था लेकिन उन्होंने मस्जिद बनाने का फ़रमान नहीं दिया था। रस्तोगी के मुताबिक, मस्जिद बाद में मंदिर के ध्वंसावशेषों पर ही बनाई गई है।

कहने का मतलब यह था कि मंदिर को गिराने का औरंगजेब का फरमान धार्मिक आधार पर ना होकर आपराधिक आधार पर था। ऐसे ही गोलकुंडा के अबुल हसन तानाशाह के क्षेत्र की एक मस्जिद भी नष्ट किया और उसके नीचे दबाया धन खोद कर निकाल लिया, जो कि सम्राट की खारज की अदायगी से बचने के लिए दबाया गया था। औरंगजेब के अनुसार यह मस्जिद अपवित्र हो गयी थी।

गलत परसेप्शन

इतिहासकार डॉ. भगवान दास के अनुसार इन मूर्ति-भंजन और तलवार के जोर पर धर्मान्तरण की कहानियाँ आमतौर पर हमारे इतिहास को ऐसा रंग देती हैं जैसे 16 वीं शताब्दी तक हिन्दुत्व और इस्लाम के बीच निरंतर युद्ध चला।

यहाँ तक कि वह इतिहासकार भी जो इसकी राजनैतिक प्रकृति समझते को समझते थे उनका भी विश्लेषण कमोबेश यही प्रभाव डालता है। मुस्लिम शासकों को क्रूर एंव विद्वेशपूर्ण दिखाया जिनका मुख्य उद्देश्य इस्लाम का प्रचार था। और इस लक्ष्य को प्राप्त करने का तरीका मंदिरों को नष्ट करना और जबरदस्ती धर्मांतरण था। इतिहासकारों ने घटनाओं की वास्तविकता और राजनैतिक चक्र की रचनात्मक प्रवृत्ति को धूमिल किया और एक गलत परसेप्शन बना दिया।”

जबकि प्रसिद्ध इतिहासकारइलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष और उड़िसा के गवर्नर रहे प्रोफेसर वी. एन. पान्डेय के शब्दों में, जब मैं इलाहाबाद नगरपालिका का अध्यक्ष था (1948-53), ज़मीन के दाखिल खारिज का एक केस मेरे सामने लाया गया। सोमेश्वरनाथ महादेव मंदिर की ज़मीन के बारे में विवाद था। महंत की मृत्यु के बाद दो व्यक्ति इस ज़मीन पर अपना हक जता रहे थे।

एक दावेदार ने कुछ दस्तावेज प्रस्तुत किए। यह दस्तावेज़ सम्राट औरंगज़ेब द्वारा जारी किए गए फरमान थे। औरंगजेब ने मंदिर को एक जागीर और नगद प्रदान किया था। मैं यह सोच कर उलझन में पड़ गया कि कहीं यह दस्तावेज नकली तो नहीं।

मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मंदिर तोड़ने के लिए बदनाम औरंगजेब कैसे किसी मंदिर के लिए जागीर इन शब्दों के साथ दे सकता है कि जागीर मूर्तिपूजा और भोग के लिए दी जा रही है’, मेरे दिमाग में यह सवाल कौंध रहा था कि औरंगज़ेब मुर्तिपूजा को समर्थन कैसे दे सकता है ?”

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इतिहास के साथ अन्याय

प्रोफेसर पान्डेय आगे लिखते हैं कि “मुझे विश्वास था कि यह दस्तावेज असली नहीं हैं। लेकिन किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले मैंने फारसी और अरबी भाषा के महान विद्वान डॉ. सर तेज बहादुर सप्रू से राय लेना उचित समझा। मैंने यह दस्तावेज उनको दिखाए और दस्तावेजों की जाँच के बाद डॉ. सप्रू ने बताया कि औरंगज़ेब के यह फरमान असली हैं।

तब उन्होंने अपने मुंशी से बनारस के जंगमबाड़ी शिव मंदिर के केस की फाईल लाने को कहा जिसकी कई अपीलें पिछले 15 सालों से इलाहाबाद हाईकोर्ट में लंबित थीं। डॉ. सप्रू के सुझाव पर मैंने देश के महत्वपूर्ण मंदिरों के महंतों को पत्र लिखा कि औरंगजेब द्वारा उनके मंदिरों को प्रदान की गयी जागीरों के यदि कोई फरमान उनके पास हों तो उनकी फोटो प्रति भेजने की कृपा करें।

मुझे ज्यादा आश्चर्य हुआ कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिरचित्रकूट के बालाजी मंदिरगोवाहाटी के उमानंद मंदिर और राजुजंय के जैन मंदिर और उत्तर भारत के अनेक मंदिरों और गुरुद्वारों से औरंगज़ेब के फरमानों की प्रतियाँ प्राप्त हुईं। यह फरमान 1065 हिजरी (सन 1659) से 1091 हिजरी (सन1685) के मध्य जारी किए गए थे।” (पुरे साक्ष्य के लिए प्रोफेसर पान्डेय की किताब इतिहास के साथ अन्याय पढ़िए।)

इतिहास के साथ हुए अन्याय में दक्षिणपंथी और वामपंथी इतिहासकारों ने तब के शासकीय निर्णयों को सांप्रदायिक दिखाकर सारे तथ्य ढक दिए।

यह सच है कि पूरे मध्यकालीन इतिहास में हिन्दू राजा और मुस्लिम बादशाहों में एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध चला।

यही कारण भारत में इतिहासकारों के सांप्रदायिकता फैलाने की रहीसच और तथ्य छिपा कर युद्ध और शासकीय निर्णयों को सांप्रदायिक बना दिया गया। कालांतर में इसी फसल को भाजपा और संघ काट रही है।

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तीन पेचिदा तर्क

दक्षिणपंथी और वामपंथी इतिहासकारों ने इतिहास में जो ज़हर घोला वह 3 तर्कों से समझिए।

(1) अकबर ने अपने रोबदाब से 6 से अधिक राजपूत राजाओं को अपनी बहन बेटी ब्याहने को मजबूर कियामगर केवल इस्लाम के समानांतर दीन-ए-ईलाही धर्म चलाने के कारण इन्हीं इतिहासकारों ने उसे सबसे शानदार धर्मनिरपेक्ष मुगल शहंशाह बतायाउनकी शान में फिल्में भी बनी।

(2) 1400 साल के इतिहास में किसी एक हिन्दू राजा ने भारत में ना तो किसी मस्जिद का निर्माण किया, ना कोई मदद की मगर वह धर्मनिरपेक्ष कहलाएस्वतंत्रता के बाद की सरकारें भी इसमें शामिल है।

(3) मगर जो मुगल शहंशाह सैकड़ों मंदिरों के लिए जागीर और ज़मीन दी, देवी देवताओः के भोग के लिए धन दी, जिसके प्रत्यक्ष लिखित ऐतिहासिक दस्तावेज हों, वह केवल खुद के कट्टर इस्लामिक होने के कारण मूर्तिभंजक और हिन्दूकुश घोषित कर दिया गया।

और इसी कारण आज के भारत के सबसे बड़े खलनायक बन गए। यह है इतिहास के साथ अन्याय।

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