सर सय्यद अहमद खान स्वतंत्रता पूर्व भारत में सामाजिक सुधार, धार्मिक चिंतन कि पुनर्व्याख्या और शिक्षा के प्रसार के लिए लडते रहे। उनका मानना था की,अंग्रेजो से मुकाबला करना अब संभव नहीं है और उनसे लडने कि क्षमता हम खो चुके हैं, अब उनसे दोस्ती कर सामाजिक सशक्तीकरण कि कोशिश करनी चाहिए।
सर सय्यद कि यह सोच 1857के विद्रोह के बाद पैदा हुई हालात से प्रेरित थी। आज 27 मार्च सर सय्यद कि पुण्य़तिथि हैं, इस विषेश अवसर पर इस नजरिये पर रोशनी डालता यहआलेख।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेंद्र मोदी सरकारद्वारा मुसलमानों के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अस्तित्व पर आघात किए जाने के पश्चात सबसे ज्यादा विरोध अलीगढ और जामिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने किया। इसकी वजह इन विश्वविद्यालयों कि स्थापना के पिछे कि प्रेरणा हैं।
अलीगढ और जामिया समान उद्देश से बने दो युनिवर्सिटी हैं। इनमें अलीगढ कि स्थापना सर सय्यद अहमद खान ने ‘मोहमेडन कॉलेज’ के रुप में कि थी। तथा जामिया के कई संस्थापक अपने शुरुआती दिनों में अलीगढ विश्वविद्यालयसे जुडे थें।
इससे साफ होता है की, इन विश्वविद्यालयों कि बुनियादी सोच सर सय्यद के सांस्कृतिक पुनरुज्जीवनवाद, शैक्षिक, आर्थिक, राजनैतिक सशक्तीकरण और हिन्दु-मुस्लिम समन्वयवादी राष्ट्रवाद का काफी प्रभाव रहा हैं। यही वजह है की भाजपाप्रणित मोदी सरकारविरोधी इस संघर्ष की व्याख्या करने के लिए हमें सर सय्यद के ऐतिहासिक कार्य और अलीगढ आंदोलन को समझना बेहद जरुरी बन जाता है।
सन 1857 के गदर नें भारत में ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ कि व्याख्या को बदल कर रख दिया था। मुसलमानों कि राष्ट्रवादी सोच मुख्यतः अल् बेरुनी, ख्वाजा मैनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन औलिया जैसे समन्वयवादी और शेख अहमद सरहिंदी, शाह वलीउल्लाह जैसे सांस्कृतिक पुनर्रुज्जीवनवादी महापुरुषों के विचारों से प्रेरीत थी।
मुस्लिम समाज-संस्कृति के आधार पर बनी इन राष्ट्रवादी प्रेरणाओंपर 1857 के बाद अलगाववाद का इल्जाम लगा दिया गया। बरतानियां हुकुमत के हक में उंची जाती के कई विचारकों ने मुसलमानों कि राष्ट्रवादी संकल्पनाओंको ‘अ-राष्ट्रीय’ कहा और मुस्लिम संस्कृति को आपत्ती के तौर पर प्रस्तुत किया।
ब्रिटिश सत्ता कि प्रेरणा से इलिएट, डाउसन, जेम्स मिल जैसे कई इतिहासकारों ने इस सांस्कृतिक नजरिये को मुसलमानों के विरोध में विकसित किया था। इसी दृष्टिकोण के माध्यम से भारतीय समाज में धार्मिक फुट डालकर अंग्रजों ने हिन्दू और मुसलमानों को एक दुसरे का सांस्कृतिक और राजनैतिक शत्रू बनाकर पेश किया।
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सांस्कृतिक पुनरुज्जीवनवाद
सर सय्यद ने अंग्रेजों के इस नीति का कृतीशिलता से विरोध किया। उन्होंने अंग्रेजी हुकुमत के द्वारा मुस्लिम इतिहास के प्रतिकों को खत्म करने कि नीति का पुरजोर विरोध किया। दिल्ली कि मुस्लिम सियासत और इतिहास के प्रतिक माने जानेवाली कई इमारतों को अंग्रेज हुकुमत तोड रही थी। उसी समय सर सय्यद ने इन इमारतों का इतिहास अपनी किताब ‘अस्सारुस्सनादीद’ के माध्यम से सुरक्षित किया।
सर सय्यद कि यह किताब दिल्ली कि सैंकडो मध्यकालीन इमारतों कि सद्य स्थिति और उनके महत्व को बयान करती है। जब विल्यम मूर ने पैगम्बर मुहंमद (स) पर अभद्र टिप्पणीयां करनेवाली अपनी किताब प्रकाशित की, तो सर सय्यद ने इसका तीव्र विरोध किया। यह विरोध सिर्फ त्रासदी तक सिमित नहीं रहा, उन्होंने लंडन की लायब्ररीयों में कई महिने बिताए और मूर कि किताब का सांस्कृतिक प्रतिवाद किया।
सर सय्यद ने मुस्लिम संस्कृति, धर्म, इतिहास कि मूल प्रेरणाओं कि व्याख्या करते हुए एक आधुनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। दूसरी तरफ अंग्रेजो कि तरफ से हो रहे सांस्कृतिक हमलों का भी जवाब दिया।
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चर्चित रचनाएं
सर सय्यद ने कई किताबे लिखी जिनमें प्रमुख किताबें यह हैं – (1) जलाल उल कुलुब ब जिक्र ए महिबूब – पैगम्बर (स) का चरित्र (2) ‘तोहफा ए असना अशरीया’ – शिया धार्मिक श्रद्धाओं पर आधारित किताब का उर्दू अनुवाद (3) कलमतुल हक – सुफी विचारधारा और इस्लामी दर्शन की बहस (4) राह ए सुन्नत व रद्द ए बिदअत – सर सय्यद अहले हदिस विचारधारा से प्रेरित थें। उन्होंने वहाबी पंथ के समर्थन में इस किताब कि रचना की थी।
(5) तर्जुमा ए दिबाचा एक फस्ल किमिया ए मालुमात – रसायनशास्त्र पर आधारित लेख कि प्रस्तावना (6) रिसायल ए तसव्वुर ए शेख बर उसुल ए हजरात नख्शबंदीया – नख्शबंदी सुफी पंथ के तत्वज्ञान कि चर्चा (7) तबयीन ए कलाम मुकद्दीमात ए अशरा व तफ्सीर ए सूरह बरात अज तौरात – ख्रिश्चन मिशनरीयों द्वारा इस्लाम पर लगाये गए आरोंपों का प्रतिवाद (8) रिसाला अहकाम ए तआम अहल ए किताब- मुसलमानों का अंग्रजों से समाजी वर्तन कैसा हो? इस विषयपर चर्चा (9) खुतबात ए अहमदीया – इस्लाम पर लगाए गए आरोपों की चर्चा।
(10) रिसाला तफ्सीर उस समावात – इस्लाम के सृष्टीविषयक विचार (11) सिलसिलातुल मुलुक – दिल्ली के राज्यकर्ताओं का इतिहास (12) सिरत ए फरिदिया – सर सय्यद के दादा फरिदुद्दीन अहमदखाँ का चरित्र (13) अबुल फज्ल लिखित ‘आईन ए अकबरी’ का अनुवाद (14) अला मिल्लत ए इस्लाम – इस्लामी समाज कि पुनर्व्याख्या (15) अहकाम ए तआम (16) सफरनामा ए पंजाब (17) तारिख ए सरकशी जिला बिजनौर – बिजनौर जिले के विद्रोह का इतिहास।
इन किताबों के अलावा सर सय्यद ने कुरआन के आयतों का विश्लेषण लिखने का कार्य शुरु किया था, पर वह पुरा नहीं हो सका। सर सय्यद ने ‘तहजीब ए अख्लाक’ और ‘मोहम्मडन सोशल रिफॉर्मर’ नाम से अखबार भी शुरु किए थें। सर सय्यद इन अखबारों में सैकडों लेख लिखें। इतिहास लेखन और संवर्धन कि अपनी फिक्र (चिंतन) के साथ सर सय्यद ने कई सहयोगीयों को जोडा था।
इन साथीयों के माध्यम से सर सय्यद ने ट्रान्सलेशन सेंटर कि बुनियाद रखी थी जिसे बाद में ‘सायंटीफिक सोसायटी’ का नाम दिया गया। इस संस्था के माध्यम से सर सय्यद ने मध्यकालीन और इस्लामी फलसफे पर आधारित कई किताबों को उर्दू में अनुवाद किया।
सन 1857 के विद्रोह से घबराए अंग्रेजों ने मुस्लिम सियासी सोच, राजनैतिक केंद्र और राजनेताओं को खत्म कर मुसलमानों में डर का माहौल पैदा किया था। मुसलमान हर क्षेत्र में अपने भविष्य की जंग हार रहे थे। उस वक्त आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार अलग सियासी सोच के साथ सर सय्यद ने अलीगढ आंदोलन की बुनियाद रखी। मुसलमानों में सुधार और तरक्की का मिशन लेकर उन्होने हुकुमत के साथ दोस्ताना रवैय्या इख्तियार कर लिया। सरकार के साथ सर सय्यद कि दोस्ती के कई पहलू थें।
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कांग्रेस हिन्दू- मुसलमानों के हक में नहीं है?
सर सय्यद यह बखुबी जानते थें कि मुसलमानों का सियासी तबका अब इस लायक नहीं रहा की अंग्रेजों का मुकाबला कर सके। 1857 के विप्लव से पहले भी सर सय्यद ने यही बात मुसलमानों को समझाने की कोशिश की मगर इसमें वह नाकाम रहे। जब काँग्रेस कि ओर से उन्हे आमंत्रण भेजा गया तो उन्होंने उसे सक्ती से नकार दिया। उनका दावा था की, काँग्रेस किसी भी तरह से मुसलमान और हिन्दुओं के हक में नहीं है।
अयोध्या नाथ त्रिपाठी का कथन है, “सर सय्यद अहमद खान कि स्पष्ट राय थी कि मुसलमानों को काँग्रेस के नेतृत्त्व में या किसी अन्य के नेतृत्व में चलनेवाले राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी नहीं करनी चाहिए, बल्कि ब्रिटिश शासन का सहयोग प्राप्त करना चाहिए।
वे मानते थें कि मुसलमानों की पहली प्राथमिकता देश की स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि अपने समुदाय का विकास है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे देशों की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वाधिनता के समर्थक नहीं थें। वे हर प्रकार कि दासता के घोर विरोधी थें, स्वशासन का समर्थन करते थें।”
सर सय्यद अहमद खान ने जात और वर्ग आधारित प्रातिनिधीत्व का विचार सामने लाया। उनका मानना था कि भारत में चुनावी लोकतंत्र जैसे का तैसा लागू नहीं हो सकता। उन्होंने साफ कर दिया, “अब मान लिजिए सभी अंग्रेज हिन्दुस्तान छोडनेवाले हों, तब कौन भारत पर राज करेगा। क्या यह संभव है कि दो कौमें हिन्दू-मुसलमान एक ही गद्दी पर बैठ सकेंगी अधिक संभावना नहीं है। यह जरुरी है कि एक कौम दुसरे कौम पर जित हासील करेगी।”
लॉर्ड रिपन ने जब अपनी स्थानीय लोकशासन कि कल्पना कौन्सिल के सामने रखी तो कौन्सिलके सदस्य सर सय्यद ने कहा “जिन मुल्कों की आबादी एक जाति और एक पंथ वाली है, वहां के लिए इलेक्शन से नुमाईंदा चुनने का तरिका निश्चित रुप में अच्छा है।
लेकिन हुजुर, भारत जैसे देश में जहां जातिगत भेद अब भी मौजूद है, जहां विभिन्न नस्लों के बीच एकता नहीं हुई है, जहाँ मजहबी अलगाव अभी भी हिंसक है, जहाँ आधुनिक अर्थ में तालीम आबादी के सभी हिस्सों में बराबर या आनुपातिक रुप से नहीं पहुंची है।
मेरा पक्का यकीन है कि यहां इलेक्शन का सिद्धान्त जस के तस लागू करने से लोकल बॉडी और डिस्ट्रिक्ट बोर्डो में भारी गडबडीयाँ आ जाएंगी। बडी कौमें छोटी कौम के हितों पर पूरी तरह हावी हो जाएगी और इन कदमों से हो सकता है कि नस्ल और पंथ के झगडे इतने खूनी हो जाए जितने पहले कभी नहीं रहे।”
सर सय्यद कि इसी सोच को मुस्लिम अलगाववाद का नाम दिया गया, जो वास्तवता के विरोधी काफी गलत तर्क था।
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हिन्दू मुस्लिम भाईचारे के पक्षधर
सर सय्यद ने कभी भी हिन्दू और मुसलमानों में भेद नहीं किया। वह सिर्फ राजनैतिक प्रतिनिधित्व कि बात कह रहे थें, वरना उनका तो लोकप्रिय ऐतिहासिक सिद्धान्त था कि, ‘हिन्दू और मुसलमान खुबसुरत दुल्हन कि दो आँखे हैं।’ इससे आगे बढकर सर सय्यद ने ‘मोहम्मडन कॉलेज’ में मुसलमानों के साथ हिन्दू छात्रों का भी स्वागत किया।
राजमोहन गांधी लिखते हैं, “एम.ए.ओ. मुसलमानों का था पर सिर्फ मुसलमानों का नहीं। बाहर से आकर पढाई करनेवाले हिन्दुओं का भी स्वागत था और उन्हें नियमों और मुसलमान विद्यार्थीओं की अनिवार्य मजहबी तालीम से आजादी थी।
सय्यद अहमद ने कहा हिन्दू और मुसलमान वजीफा पाने के समान हकदार हैं और कम से कम एक मौके पर उन्होंने आनेवाली बी.ए. परिक्षा पहले दर्जे से पास करनेवाले हिन्दू विद्यार्थी को अपनी जेब से सोने का तमगा देने की घोषणा कि थी।
ऐसे कदमों से आनंदीत प्रख्यात उर्दू शायर अलताफ हुसैन ‘हाली’ ने अपने एक शेर में कहा कि जिस किसी ने हिन्दू मुसलमान प्रेम न देखा हो, वह एम.ए.ओ. में पा सकता है – यह एक शायर की टिप्पणी थी लेकिन इसमें सच्चाई का अंश था ही।”
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महरुमीन की आवाज या अशरफ नेता?
सर सय्यद का खानदान मुगल दरबार का सदस्य था। जवानी में सर सय्यद खुद अकबर (द्वितीय) के दरबार में जाते थें। सर सय्यद को इस राजनैतिक वर्ग कि बिगडती हालात से काफी दर्द हुआ।
उन्होंने अपनी एक तकरीर में कहा था – “ऐ रइसों, अमीरों आप ही कि गलतियों कि वजह से आज मैं इस काम के लिए मजबूर बना हूँ।” और कई बार उन्होंने इस सियासी वर्ग की हालात को सुधारने की बात को दोहराया था।
मगर उन्होंने अपने शैक्षिक आंदोलन को साफ तौर पर ‘महरुमीन का मिशन’ करार दिया था। शैक्षिक तौर पर पिछडे और महरुमों को उनके अधिकार दिलाने के लिए सर सय्यद ने सारी जिंदगी कोशिश की।
मुसलमानों कि निचली जाती के छात्रों को स्कॉलरशिप देने के लिए सर सय्यद ने अपने लायब्ररी कि किताबें बेची थीं। उन्होंने अमृतसर और लाहौर में दि हुई तकरीर में महरुमों से अपनी मुहब्बत को दोहराया और अपने शैक्षिक सुधार आंदोलन को उनके हक में बताया था।
सर सय्यद ने अपनी जिन्दगी मुसलमानों के बिगडते हालात में बदलाव के लिए बहाल कि थी। मगर उनकी सोच और फिक्र कि गलत व्याख्या कर उन्हें मुसलमानों में अशरफों का नेता और हिन्दुओं में अलगाववादी या अंग्रजों के हिमायती के तौर पर पेश किया गया, यह वास्तव कि एक विडंबना हैं।
जाते जाते:
* कैसी हुई थी उस्मानिया विश्वविद्यालय कि स्थापना?
*अब्बास तैय्यबजी : आज़ादी के इतिहास के गुमनाम नायक
लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।