बलराज साहनी एक जनप्रतिबद्ध कलाकार, हिन्दी-पंजाबी के महत्वपूर्ण लेखक और संस्कृतिकर्मी थे। जिन्होंने अपने कामों से भारतीय लेखन, कला और सिनेमा को एक साथ समृद्ध किया। उनके जैसे कलाकार कभी कभी ही पैदा होते हैं। बलराज ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद लाहौर में कुछ दिन पत्रकारिता भी की। लेकिन यहां उनका मन नहीं रमा। साल 1937 में वे गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर के विश्वभारती विश्वविद्यालय ‘शांति निकेतन’ चले गए। जहां उन्होंने दो साल तक हिन्दी का अध्यापन किया।
हिन्दी विभाग में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उनके अध्यक्ष थे। उन्हीं के साथ वे मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, निराला और हिन्दी साहित्य के तमाम महारथियों से मिले और उनके विचारों से वाकिफ हुए।
अध्यापन बलराज साहनी की आखिरी मंजिल नहीं थी। उनकी आंतरिक बेचैनी उन्हें महात्मा गांधी के वर्धा स्थित आश्रम ‘सेवाग्राम’ तक ले गई। जहां उन्होंने ‘नई तालीम’ में सहायक संपादक की जिम्मेदारी संभाली। मगर यहां भी वे ज्यादा लंबे समय तक नहीं रहे।
बीबीसी लंदन के अंग्रेज डायरेक्टर-जनरल लाइनल फील्डन महात्मा गांधी से मिलने उनके आश्रम पहुंचे, तो वे बलराज साहनी की काबिलियत से बेहद प्रभावित हुए। लाइनल फील्डन ने उनके सामने बीबीसी की नौकरी की पेशकश रखी। जिसे उन्होंने फौरन मंजूर कर लिया।
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एक क्रिएटिव इन्सान
‘बीबीसी लंदन’ में बलराज साहनी ने साल 1940 से लेकर 1944 तक हिन्दी रेडियो के उद्घोषक के तौर पर काम किया। इस दौरान उन्होंने खूब भारतीय साहित्य पढ़ा। कुछ रेडियो नाटक और रिपोर्ताज भी लिखे।
बलराज साहनी ने लंदन से बहुत कुछ सीखा। रेडियो की नौकरी ने उन्हें तमाम तजुर्बे सिखाए। उन्होंने थिएटर और सोवियत फिल्में देखीं। मार्क्स और लेनिन की मूल किताबें खोज-खोजकर पढ़ीं और मार्क्सवाद-लेनिनवाद को उन्होंने एक वैचारिक रौशनी के तौर पर तस्लीम किया। बीबीसी की नौकरी के दौरान ही वे ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे।
बलराज खुद कहा करते थे, “टैगोर, गांधी, मार्क्स, लेनिन और स्तानिस्लाव्स्की मेरे गुरु हैं।” लंदन में कुछ साल गुजारने के बाद, वे भारत आ गए। बलराज एक क्रिएटिव इन्सान थे और उनकी जिन्दगी का मकसद एक दम स्पष्ट था। सांस्कृतिक कार्यों के जरिए ही वे देश की आजादी में अपना योगदान देना चाहते थे।
देश में नवजागरण के लिए एक अंग बनना चाहते थे। यही वजह है कि कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक संगठन ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ (इप्टा) दोनों में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इप्टा में उन्होंने अवैतनिक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया।
इप्टा में बलराज साहनी की इब्तिदा ड्रामे ‘जुबैदा’ के डायरेक्शन से ही हुई। इस ड्रामे की कामयाबी के साथ वे इप्टा के अहमतरीन मेंबर हो गए। यह वह दौर था, जब इप्टा से देश भर के बड़े-बड़े कलाकार, लेखक, निर्देशक और संस्कृतिकर्मी आदि जुड़े हुए थे। इप्टा आंदोलन पूरे भारत में फैल चुका था।
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कई मर्तबा जेल
राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण इस नाट्य आंदोलन का एक ही मकसद था, देश की आजादी। बलराज साहनी ने अपने-आप को जैसे पूरी तरह से इसके लिए झौंक दिया। बलराज ने इप्टा में अभिनय-निर्देशन के साथ-साथ ‘जादू की कुर्सी’, ‘क्या यह सच है बापू ?’ जैसे नाटक भी लिखे।
अपनी सियासी सरगर्मियों और वामपंथी विचारधारा के चलते बलराज को कई मर्तबा जेल जाना पड़ा। लेकिन उन्होंने अपनी विचारधारा से कोई समझौता नहीं किया। इप्टा ने जब अपनी पहली फिल्म ‘धरती के लाल’ बनाने का फैसला किया, तो बलराज साहनी को उसमें मुख्य भूमिका के लिए चुना गया।
‘धरती के लाल’, साल 1943 में बंगाल के अंदर पड़े भयंकर अकाल के पसमंजर पर थी। ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित इस फिल्म में बलराज साहनी ने किसान की भूमिका निभाई। जीनियस डायरेक्टर बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’, बलराज साहनी की एक और मील का पत्थर फिल्म थी। ‘धरती के लाल’ में ‘निरंजन’ और ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म में ‘शंभु महतो’ के किरदार में उन्होंने जैसे अपनी पूरी जान ही फूंक दी थी।
दोनों ही फिल्मों में किसानों की समस्याओं, उनके शोषण और उत्पीड़न के सवालों को बड़े ही संवेदनशीलता और ईमानदारी से उठाया गया था। ये फिल्में हमारे ग्रामीण समाज की ज्वलंत तस्वीरें हैं। ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा जमीन’ हो या फिर ‘गर्म हवा’ बलराज साहनी अपनी इन फिल्मों में इसलिए कमाल कर सके कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता इन किरदारों के प्रति थी। वे दिल से इनके साथ जुड़ गए थे। इस हद तक कि कोलकाता की सड़कों पर उन्होंने खुद हाथ रिक्शा चलाया।
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जन कलाकार
बलराज नाटक को सामाजिक बदलाव का एक बड़ा साधन मानते थे। परिवार की आर्थिक परेशानियों के चलते उन्होंने फिल्मों में अभिनय करना शुरू किया। अभिनय से पहले उन्होंने अलग-अलग काम किए।
फिल्म डिवीजन की डाक्यूमेंटरी फिल्मों में कमेंटरी, विदेशी फिल्मों में डबिंग की। हिंदी फिल्मों के महान निर्देशक गुरुदत्त की फिल्म ‘बाजी’ की पटकथा लिखी। एक फिल्म ‘लाल बत्ती’ का निर्देशन किया। दीगर विधाओं की तरह वे फिल्मों में भी कामयाब साबित हुए।
अपने पच्चीस साल के फिल्मी करियर में बलराज ने 125 से ज्यादा फिल्मों में अदाकारी की। तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़े कलाकार-लेखक-निर्देशकों ने जब भी कोई फिल्म बनाई, उनकी पहली पसंद बलराज साहनी ही होते थे। ख्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित फिल्म ‘धरती के लाल’ और ‘परदेसी’, राजिंदर सिंह बेदी-‘गरम कोट’, चेतन आनंद-‘हकीकत’, जिया सरहदी-‘हम लोग’ और एम. एस. सथ्यु की फिल्म ‘गर्म हवा’ के नायक बलराज साहनी थे।
बलराज की अदाकारी की अज्मत को बयां करते हुए ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनके बारे में ‘जन कलाकार बलराज साहनी’ लेख में पूरी अकीदत के साथ लिखा हैं, “अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है, जो ‘जन कलाकार’ का खिताब का हकदार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं।
उन्होंने अपनी जिन्दगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे।
…..बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था।”
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अच्छे लेखक भी रहे
बलराज एक अच्छे लेखक भी थे। अदाकारी के साथ-साथ उनका लेखन भी बदस्तूर चलता रहा। साहित्य की तमाम विधाओं कहानी, कविता, नाटक, निबंध आदि में उन्होंने अपने हाथ आजमाए। हिदी, उर्दू और अंग्रेजी जबान के साथ-साथ उन्होंने अपनी मातृभाषा पंजाबी में भी लेखन किया।
अपनी मातृभाषा की तरफ वे खुद नहीं आये थे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी की संगत का ही असर था कि उन्हें भी अपनी मातृभाषा से प्यार हो गया। गुरुमुखी लिपि उन्होंने काफी बाद में सीखी। एक बार बलराज अपनी जबान में पारंगत हुए, तो उन्होंने इसे ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया।
उनकी कहानियां और लेख पंजाबी जबान की मशहूर पत्रिका ‘प्रीतलड़ी’ में नियमित छपते। सच बात तो यह है कि बलराज साहनी की ज्यादातर किताबें बुनियादी तौर पर पंजाबी जबान में ही लिखी गई हैं, जो बाद में अनुवाद होकर हिंदी में आईं। ‘बसंत क्या कहेगा ?’ बलराज साहनी का पहला कहानी संग्रह है। ‘पाकिस्तान का सफर’ और ‘मेरा रूसी सफरनामा’ उनके चर्चित सफरनामे हैं।
‘बलराज साहनी पर बलराज साहनी’ जहां उनकी आत्मकथा है, तो वहीं सिनेमा के अपने तजुर्बों पर उन्होंने ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ और ‘सिनेमा और स्टेज’ किताबें लिखी हैं।
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मदद के लिए वे हमेशा आगे
बलराज पंजाबी जबान के बड़े लेखक-नाटककार गुरशरण सिंह के थियेटर ग्रुप ‘पंजाबी कला केन्द्र’ के साथ पंजाब के दूर-दराज के गांवों तक गए। इस ग्रुप के जरिए उन्होंने अवामी थियेटर को जनता तक पहुंचाया। लोगों में जनचेतना फैलाई। सिनेमा, साहित्य और थियेटर में एक साथ काम करते हुए भी बलराज सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों के लिए समय निकाल लेते थे।
सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में देशवासियों की मदद के लिए वे हमेशा आगे-आगे रहते थे। महाराष्ट्र के भिवंडी में जब सांप्रदायिक दंगा हुआ, तो वे अपनी जान की परवाह किए बिना दंगाग्रस्त इलाके गए। उन्होंने वहां हिन्दू-मुस्लिम दोनों कौमों के बीच शांति और सद्भावना कायम करने का अहमतरीन काम किया।
सिनेमा, साहित्य और थियेटर के क्षेत्र में बलराज साहनी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उनकी किताब ‘मेरा रूसी सफरनामा’ के लिए उन्हें सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से नवाजा गया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पीसी जोशी, बलराज साहनी के अजीज दोस्त थे। तकरीबन चार दशक तक उनका और बलराज का लंबा साथ रहा। बलराज के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पी. सी. जोशी ने एक शानदार लेख ‘बलराज साहनी : एक समर्पित और सर्जनात्मक जीवन’ लिखा है।
बलराज की अज़ीम-ओ-शान शख्सियत और वे जनता के बीच क्यों मकबूल थे?, इस पर जोशी की बेलाग राय है, “बलराज साहनी का जीवन और कृतित्व एक उद्देश्यपूर्ण और खूबसूरती से जी गई, बेहतरीन जिन्दगी की कहानी है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उस शख्स के समर्पित तरीके से अंजाम दिए गए कामों का गौरवशाली रिकॉर्ड ऊंचा से ऊंचा होता गया और उनमें से हरेक काम को उसने अपनी सर्जनात्मकता से जरूर कुछ समृद्ध बनाया।
उन्होंने लेखन और सांस्कृतिक क्षेत्र में जो भी कार्य किया, वह आम जनता की समझ में आने वाला था। इसीलिए उनका रचनात्मक कार्य जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ।”
13 अप्रेल, 1973 को बलराज साहनी को अचानक दिल का दौरा पड़ा, जो उनकी जिन्दगी के लिए बेहद घातक साबित हुआ। और वे इस दुनिया से हमेशा के लिए जुदा हो गए।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।