बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी कमलेश्वर की 27 जनवरी को 14वीं पुण्यतिथि है। 6 जनवरी, 1932 को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी में जन्में कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना उर्फ ‘कमलेश्वर’ की आला तालीम इलाहाबाद में हुई।
शिक्षा पूरी करने के बाद आजीविका के लिए उन्होंने कुछ ऐसे कार्य किये, जो उनके पाठकों को बेहद अविश्वसनीय लग सकते हैं।
मसलन किताबों एवं लघु पत्र-पत्रिकाओं के लिए प्रूफ रीडिंग, कागज के डिब्बों पर डिजाइन और ड्राइंग बनाने का काम, ट्यूशन पढ़ाना और पुस्तकों की सप्लाई से लेकर चाय के गोदाम में रात की पाली में चौकीदारी तक शामिल है।
कमलेश्वर का पहला उपन्यास ‘एक सडक़ सत्तावन गलियां’ जो बाद में ‘बदनाम गली’ शीर्षक से छपा, लघु पत्रिका ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ।
वहीं उनकी पहली कहानी ‘कॉमरेड’ साल 1948 में छपी। अपनी संपूर्ण साहित्यिक यात्रा में उन्होंने ढेरों कहानियां, उपन्यास, यात्रा संस्मरण, नाटक व आलोचनाएं लिखीं।
साल 1967 से 1978 के दौरान वे अपने दौर की चर्चित पत्रिका ‘सारिका’ के संपादक रहे और पत्रिका के जरिए उन्होंने हिन्दी कहानी के समानांतर आंदोलन का नेतृत्व किया। उनके कई उपन्यास किताब के रूप में आने से पहले ही पत्रिकाओं में छपकर चर्चित हुए।
फिल्मों के लिए भी उन्होंने खूब लिखा। उनके उपन्यास ‘काली आंधी’ पर गुलजार ने ‘आंधी’ नाम से एक सशक्त फिल्म बनाई। इसके अलावा उन्होंने मौसम, अमानुष, फिर भी, सारा आकाश जैसी कलात्मक फिल्मों से लेकर ‘मि. नटवरलाल’,’सौतन’,’द बर्निंग ट्रेन’ और ‘राम-बलराम’ जैसी मसाला फिल्मों सहित कुल 99 फिल्मों के लिए लेखन किया।
साल 1980 से 1982 के दरमियान दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक रहने के अलावा उन्होंने मीडिया के समस्त क्षेत्रों में काम किया।
दूरदर्शन के लिए अछूते विषयों और सवालों से पूरे देश को झकझोर देने वाले ‘परिक्रमा’ कार्यक्रम, जिसे यूनेस्को ने दुनिया के 10 सर्वश्रेष्ठ टेलीविजन कार्यक्रमों में से एक माना था, में कमलेश्वर ने ज्वलंत मुद्दों पर खुली और गंभीर बहस करने की दिशा में साहसिक पहल की थी।
उनका उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ आज भी बेस्ट सेलर है। अपने आखिरी दिनों तक उन्होंने राष्ट्रीय दैनिक में संपादन के अलावा स्वतंत्र लेखन के साथ निजी टीवी चैनल को सेवाएं दीं।
27 जनवरी, 2007 को कमलेश्वर ने इस दुनिया से अपनी विदाई ली। साल 2003 में जनवरी के ही महीने में लेखक पत्रकार मुहंमद जाकिर हुसैन ने कमलेश्वर का एक इंटरव्यू भिलाई में लिया था। इस इंटरव्यू में उन्होंने अपने जो बेबाक विचार व्यक्त किए थे, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।
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‘काली आंधी’ का सफर
सवाल : दो साल पहले लिखा गया आपका उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ आज भी बेस्ट सेलर है। जिन उद्देश्यों को लेकर आपने उपन्यास लिखा, क्या आप उसमें सफल रहे ?
जवाब : इस उपन्यास को जितना विशाल व विराट पाठक समुदाय मिला, उससे निश्चित ही संतोष हुआ। हिन्दी में इसके 9 संस्करण निकल चुके हैं और मराठी, उर्दू, बांग्ला व उड़िया में इसका अनुवाद हुआ।
कई जगह यह किताब ‘ब्लैक’ में साइक्लोस्टाइल स्वरूप में भी बिकी। मेरा संदेश ज्यादा लोगों तक पहुंचा। इससे लगता है कि मैं अपने उद्देश्य में सफल रहा।
सवाल : आपके उपन्यास ‘काली आंधी’ में इंदिरा गांधी की छवि दिखती है ?
जवाब : ऐसा नहीं है। यह लोगों की गलतफहमी है कि ‘आंधी’ मैंने इंदिरा गांधी को केंद्र में रख कर लिखा। दरअसल, उन दिनों जयपुर में महारानी गायत्री देवी ‘स्वतंत्र पार्टी’ से लोकसभा का चुनाव लड़ रही थीं। मैं जयपुर चुनाव की रिपोर्टिंग करने गया था।
वहां पहुंचा, तो देखा कि गायत्री देवी एक हाथ में नंगी तलवार और सिर पर कलश लेकर पूजा के लिए मंदिर जा रही हैं। उनके पीछे हजारों की भीड़ है। उस वक्त मेरे जेहन में आया कि ऐसी महिलाएं ही राजनीति में आनी चाहिए। इसके बाद मैंने उपन्यास ‘काली आंधी’ लिखना शुरू किया।
सवाल : लेकिन इस पर बनीं फिल्म, तो इंदिरा गांधी के जीवन के ज्यादा करीब लगती है ?
जवाब : दरअसल, जब निर्देशक गुलजार ने ‘आंधी’ फिल्म के मुख्य किरदार के रोल में अभिनेत्री सुचित्रा सेन को चुना, तो उनके सामने कोई मॉडल नहीं था।
हमने इंदिरा गांधी, तारकेश्वरी सिन्हा और नंदिनी सत्पथी के चेहरे उनके सामने रखे। जिसमें कहानी के अनुसार सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी की भाव-भंगिमा पसंद आई। इसके बाद उनका गेटअप ठीक इंदिरा गांधी की तरह रखा गया। इसलिए लोगों को यह गलतफहमी हो जाती है।
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साहित्य से क्रांति नहीं होती
सवाल : हिन्दी की पहली कहानी माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ में लिखी थी। लेकिन आज भी साहित्य के नक्शे में छत्तीसगढ़ का विशेष स्थान नहीं बन पाया है ?
जवाब : साहित्य में छत्तीसगढ़ का महत्व तो पहले से ही रेखांकित हो चुका है। फिर मैनें पहले भी कहा है कि छत्तीसगढ़ के पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और माधवराव सप्रे के बिना हिन्दी साहित्य का इतिहास ही लंगड़ा है।
सवाल : आपकी नजर में छत्तीसगढ़ी बोली के भाषा में तब्दील होने की क्या संभावनाएं हैं ?
जवाब : बहुत संभावनाएं हैं। छत्तीसगढ़ी में कोई कमी नहीं है। दरअसल जब तक तमाम क्षेत्रीय सहयात्री भाषाएं पुष्ट होकर सामने नहीं आएंगी, तब तक हिन्दी समृद्ध नहीं होगी।
सवाल : आज साहित्य में क्रांति जैसी बातें सुनाई नहीं देती ?
जवाब : साहित्य से क्रांति नहीं होती, बल्कि जो लोग क्रांति कर सकते हैं, साहित्य उनके काम आता है।
सवाल : साहित्य में किसी वाद या एजेंडे का लेखन क्या मायने रखता है ?
जवाब : एजेंडे का लेखन गलत है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श यह सब क्या है? यह सब ज्यादा दूर तक नहीं चल सकता।
सवाल : प्रारंभिक दिनों में आपने पेंटर का काम भी किया। आपका हस्तलेखन बहुत ही कलात्मक है। क्या आज भी पेंटिंग के शौक से रचनात्मक स्तर पर जुड़े हैं?
जवाब : नहीं, पेंटिंग तो अब नहीं करता। क्योंकि एमएफ हुसैन पेंटिंग को जिस ऊंचाई तक ले गए हैं, उसके बाद मुझे लगा कि यह मेरे काम की चीज नहीं है। वैसे मेरा मानना है कि क्रिएटिव ग्रेटनेस किसी भी काम को निरंतर करने से कायम रहती है।
सवाल : आपके समकालीन और पूर्ववर्ती में ऐसे कौन से व्यक्तित्व हैं, जिन्हे देख कर आपको लगता है कि ऐसा नहीं बन सका?
जवाब : ऐसा तो कोई भी नहीं। क्योंकि मुझे अपने आप पर भरोसा था। हां, प्रभावित जरूर रहा हूं। गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचंद और निराला के तीन उपन्यासों से।
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सब का हिन्दुत्व अलग-अलग
सवाल : प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने ‘गोवा चिंतन’ में जो हिन्दुत्व की परिभाषा दी है, उससे आप कितना इत्तेफाक रखते हैं?
जवाब : यह तो उनके लिए बड़ी सुविधाजनक चीज है। आप बताईए, आखिर हिन्दुत्व है क्या चीज? आडवाणी, तोगड़िया, सिंघल, मोदी और ठाकरे सब का हिन्दुत्व अलग-अलग है।
पहले वाजपेयी ने अमरीका में खुद को संघ का सच्चा स्वयंसेवक कह दिया। फिर भारत आकर संघ का मतलब भारत संघ बता दिया। अब ‘गोवा चिंतन’ आया है, तो यह सब उनकी सुविधा के हिसाब से है।
गुजरात को लेकर अमरीका में वाजपेयी और इंग्लैंड में आडवाणी ने जब शर्मिंदगी का इजहार किया, तो फिर गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की ताजपोशी में कैसे चले गए?
अभी प्रवासी दिवस मनाया गया। इसमें उन्हीं लोगों को बुलाया गया, जो थ्री पीस के नीचे भगवा पहनते हैं। पहले उनके लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद था। अब अप्रवासी भारतीयों के साथ इसे अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रवाद का नाम दिया जा रहा है। यह भी हिंसक हिन्दुत्व का दूसरा रूप है।
सवाल : तो आखिर हिन्दुत्व है क्या?
जवाब : दरअसल हिन्दुत्व, तो सावरकर की किताब से पैदा होता है। जिसमें उन्होंने साफ कहा है कि इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। तो फिर इसे वही लोग ‘डिफाइन’ करें।
सवाल : प्रिंट मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश से क्या खतरा देखते हैं ?
जवाब : खतरा तो अंग्रेजी पत्रकारिता को होगा, हिन्दी पत्रकारिता को नहीं। हां, इससे भाषाई भगवाकरण का खतरा जरूर बढ़ रहा है।
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लेखक हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक हैं।