राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हमेशा से यह मानना रहा है कि यह देश लोकतांत्रिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के बजाय ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाया जाए, जिसमें केवल हिन्दू धर्म के मानने वालों की श्रेष्ठता हो और दूसरे धर्मों के लोग दूसरे दर्जे के नागरिक बन कर रहने को बाध्य हों।
संघ जाति आधारित समाज और मनुस्मृति के तहत देश का शासन चलाना चाहता है और एक ऐसा देश बनाना चाहता है जहां महिलाओं को और पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोगों को कोई अधिकार ना हों। देश की राष्ट्र भाषा संस्कृत हो और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की जगह भगवा हो।
संघ जिन्हें अपना पुरखा मानता है और स्वयंसेवक जिनके मानस पुत्र हैं, वे हैं विनायक दामोदर सावरकर, और संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव (एमएस) गोलवलकर। सावरकर और बॅरिस्टर जिन्ना के विचारों में गजब की समानता है। दोनों द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धान्त को मानते थे और दोनों का कहना था कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं।
इसके अलावा, हिटलर और गोलवलकर के विचारों में भी गजब की समानता है और अगर यह कहा जाए कि गुरुजी (गोलवलकर) हिटलर की विचारधारा से प्रभावित थे और उसे भारत में लागू करना चाहते थे तो गलत न होगा।
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जाति-व्यवस्था के समर्थक
गुरुजी की एक किताब है ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ ”हम या हमारी राष्ट्रीयता परिभाषित” 1946 में प्रकाशित इस किताब के चतुर्थ संस्करण में गुरुजी लिखते हैं,
“हिन्दोस्ताँ के सभी गैर-हिन्दुओं को हिन्दू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिन्दू धर्म का आदर करना होगा और हिन्दू जाति या संस्कृति के गौरव गान के अलावा कोई विचार अपने मन में नहीं रखना होगा।” यानी उन्हें हिन्दू राष्ट्र के अधीन होकर ही यहां रहने की इजाजत होगी, विशेष अधिकार की तो बात ही नहीं, उन्हें कोई भी लाभ नहीं मिलेगा।
इसी किताब के पृष्ठ 42 पर वे लिखते हैं कि “जर्मनी ने जाति और संस्कृति की विशुद्धता बनाए रखने के लिए सेमेटिक यहूदी जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को स्तंभित कर दिया था। इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है। जर्मनी ने यह भी दिखला दिया कि जड़ से जिन जातियों और संस्कृतियों में अंतर होता है उनका एक संयुक्त घर के रूप में विलय असंभव है।” यह है आरएसएस की विचारधारा।
इसका एक दूसरा नमूना है गुरुजी की एक और किताब ‘बंच ऑफ़ थॉट्स।’ इस किताब का एक संस्करण नवंबर 1966 में प्रकाशित हुआ है। इसमें गुरुजी ने देश में तीन आंतरिक खतरों की चर्चा की है। एक, मुसलमान, दूसरे, ईसाई और तीसरे, कम्युनिस्ट या समाजवादी। ये सभी भारत के लिए खतरा हैं ऐसा गुरुजी मानते हैं।
साथ ही वे वर्ण-व्यवस्था यानी जाति-व्यवस्था के भी प्रबल समर्थक हैं। वे लिखते हैं, “हमारे समाज की विशिष्टता थी वर्ण व्यवस्था, जिसे आज जाति व्यवस्था बता कर उसका उपहास किया जाता है।
समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गई थी जिसकी पूजा सभी को अपनी योग्यता और अपने ढंग से करनी चाहिए। ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था, क्योंकि वह ज्ञान दान करता था।
क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था, क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था। वैश्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शूद्र भी जो अपने कला कौशल से समाज की सेवा करता था।”
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महिलाओं को अधिकार देना फिजूल
इसमें बड़ी चालाकी से गुरुजी ने जोड़ दिया कि शूद्र अपने हुनर और कारीगरी से समाज की सेवा करते हैं। लेकिन इस किताब में गुरुजी ने चाणक्य के जिस ‘अर्थशास्त्र’ की तारीफ की है उसमें लिखा गया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करना शूद्रों का सहज धर्म है। सहज धर्म की जगह गुरुजी ने जोड़ दिया समाज की सेवा।
गुरु गोलवलकर लोकतांत्रिक प्रणाली और आम लोगों के मताधिकार के खिलाफ थे और उनका मानना था कि बालिग मताधिकार कुत्ते-बिल्लियों को देने जैसा है जिसके मिलने से वे आपस में ऐसे लड़ते-झगड़ते हैं जैसे कुत्ते-बिल्लियां। लेकिन वे महिलाओं को मताधिकार देने के तो सर्वथा खिलाफ थे।
आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ के 30 जनवरी 1966 के अंक में प्रकाशित अपने एक लेख में गुरुजी लिखते हैं कि
“अब यह साफ होता जा रहा है कि महिलाओं को मत देने का अधिकार देने का फैसला गलत और फिजूल था। एक हिन्दू होने के नाते मैं यह मानने को मजबूर हूं कि हमारे लिए अभी और बुरे दिन आने वाले हैं। इतिहास गवाह है कि जब कहीं महिलाओं ने हुकूमत की है वहां अपराध, गैर-बराबरी और अराजकता इस तरह फैली है जिसका जिक्र नहीं किया जा सकता।”
साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि “महिला अगर विधवा हो और शासक हो जाए तो मुल्क की बदनसीबी शुरू हो जाती है।”
उल्लेखनीय है कि गुरुजी का यह लेख श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के एक सप्ताह बाद प्रकाशित हुआ था। श्रीमती गांधी उस समय देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी थीं। इससे साबित होता है कि संघ और उसके गुरुजी महिलाओं के प्रति कितना आदर भाव रखते थे।
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आधारभूत तत्त्व का विरोध
आरएसएस और गोलवलकर ने हमेशा भारतीय संविधान के इस आधारभूत तत्त्व का विरोध किया। गुरुजी ‘बंच आफ थाट्स’ में लिखते हैं कि “संविधान का पुन: परीक्षण होना चाहिए और इसका पुनर्लेखन कर शासन की एकात्मक प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए।”
यानी गुरुजी चाहते हैं कि केंद्र अनुगामी शासन। ये जो राज्य वगैरह हैं, खत्म होने चाहिए। उनकी कल्पना है, एक देश एक राज्य, एक विधायिका और एक कार्यप्रणाली और राज्यों के विधानमंडल, मंत्रिमंडल सब खत्म होने चाहिए।
जिस तरह आरएसएस और गुरुजी संघ-राज्य की कल्पना को अस्वीकार करते हैं उसी तरह लोकतंत्र में भी उनका विश्वास नहीं है। उनका मानना है कि लोकतंत्र की कल्पना पश्चिम से आयात की हुई है और भारतीय विचार और संस्कृति के अनुकूल नहीं है।
समाजवाद और कम्युनिज्म को तो गुरुजी पूरी तरह पराई चीज मानते हैं। वे लिखते हैं कि “यह जितने इज्म हैं यानी सेक्युलरिज्म, डेमोक्रेसी, सोशलिज्म, कम्युनिज्म, ये सब विदेशी धारणाएं हैं और इनका त्याग करके हमको भारतीय संस्कृति के आधार पर समाज की रचना करनी चाहिए।”
यानी ‘एकचालकानुवर्तित्व’ का सिद्धान्त। वे इस बात पर भी दुखी होते हैं कि देश आज़ाद हो जाने के बाद जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया। सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता के तो वे घोर विरोधी थे ही।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय झंडा था तिरंगा, तिरंगे की इज्जत और आन-बान-शान के लिए सैकड़ों लोगों ने अपनी जान कुर्बान की, लाखों लोगों ने तिरंगे को लेकर लाठियां खाईं।
लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कभी भी तिरंगे को राष्ट्रध्वज नहीं माना, वह तो भगवा ध्वज को ही मानता है और कहता है कि यही हिन्दू राष्ट्र का प्राचीन झंडा है। वही उनका आदर्श और प्रतीक है।
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लेखक त्रिभाषी (हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी) पत्रकार हैं, जिनके पास सभी पारंपरिक मीडिया जैसे टीवी, रेडियो, प्रिंट और इंटरनेट में 35 से अधिक सालों का अनुभव है। वह पीआईबी, भारत सरकार और भारत की संसद द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं।