भाजपा ने 2015 के संविधान दिवस के आयोजन पर ‘धर्मनिरपेक्षता’ की धारणा पर कुछ सवाल खड़े किए। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उस दलील को दोहराया जिसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ परिवार अर्से से उठाता रहा है। उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षता शब्द की विकृत परिभाषा का उपयोग समाज में तनाव उत्पन्न कर रहा है।
संघ परिवार के अनुसार देश में सबसे ज्यादा गलत प्रयुक्त होने वाला शब्द ‘धर्मनिरपेक्षता’ है और यह इस शब्द का गलत प्रयोग ही है जो सामाजिक तनाव पैदा कर रहा है। उन्होंने दोहराया कि इस शब्द की जड़ें पश्चिमी हैं और यह धर्म और राज्य के बीच अलगाव का प्रतीक है।
भारत में चूंकि बहुसंख्यकों का धर्म अपने आप में धर्मनिरपेक्ष है इसलिए इस तरह की धारणा की यहां जरूरत नहीं है। उन्होंने आरएसएस विचारकों की पुरानी दलीलों को दोहराया कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इस धर्मनिरपेक्ष शब्द की कोई आवश्यक्ता नहीं है।
संघ परिवार की ओर से लगातार आ रही इन ज्यादातर दलीलों का बहुत गहरा उद्देश्य है। वे धर्मनिरपेक्ष राज्य की धारणा से बेचैन हैं इसलिए इस बहस को विभिन्न शक्लों में सामने ले आते हैं। याद आता है कि 26 जनवरी 2015 के मौके पर सरकार ने एक विज्ञापन जारी किया था जिसमें धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द गायब थे।
इसके बारे में तर्क दिया गया कि मूल रूप से प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे और इन्हें आपातकाल के दौरान उसमें जोड़ा गया था। हालांकि तथ्य यह है कि हमारे भारतीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं के लिए सारे प्रावधान मौजूद हैं। सांप्रदायिक राजनीति के बढ़ते प्रभाव के बावजूद 1975 में प्रस्तावना में जुड़ा यह शब्द हमारे संविधान के अंतर्निहित लक्ष्यों को सुदृढ़ करता है।
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धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धारणा
क्या धर्मनिरपेक्षता एक पश्चिमी धारणा है? यह सच है कि यह मान्यता पश्चिमी दुनिया में प्रारंभ हुई लेकिन इस शब्द का संदर्भ मात्र भौगोलिक नहीं है। इसका संदर्भ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया, औद्योगीकीकरण के उदय और साम्राज्यों के अंत के साथ आधुनिक शिक्षा और सामंतवादी मान्यताओं में है।
समाज के प्रारंभ से ही धर्मनिरपेक्षता सभी मनुष्यों की समानता समानांतर चलती रही है। सामाजिक गतिशीलता में आए परिवर्तन के परिणामस्वरूप यह प्रक्रिया सामने आई जिससे सामाजिक मामलों पर संगठित धर्म यानी पुरोहित वर्ग के नियंत्रण का ह्रास होना शुरू हो जाता है या उसे पूरी तरह समाप्त कर दिया जाता है।
संपत्ति के धार्मिक नियंत्रण से नागरिक नियंत्रण में हस्तांतरण की यह प्रक्रिया आधुनिक समाज के आरंभ की घोषणा करती है जहां धर्म के अन्य पहलुओं के विपरीत धर्म की संगठित संस्था को समाज के हाशिए पर फेंक दिया गया।
संघ परिवार का यह तर्क भी है कि भारत अलग है क्योंकि यहां कोई भी संगठित चर्च नहीं था, इसलिए भारत में इस अवधारणा की जरूरत नहीं है। जहां तक हिन्दू धर्म के बिखरे हुए पुरोहितों का संबंध है, उन्होंने भी अन्य धर्मों के संगठित पुरोहित वर्ग की तरह की ही भूमिका निभाई।
राजाओं या जमींदारों की दैवीयता को वैधता देने के लिए उनका सामंती शक्तियों के साथ गठबंधन कोई नई बात नहीं है। इस मामले में धर्म कोई भी हो, पूर्व औद्योगिक काल के हर समाज में पुरोहित एक जैसी ही भूमिका अदा करता है।
दक्षिण एशियाई देशों की बर्बादी की वजहों में एक यह है कि पुरोहित वर्ग या धर्म के नाम पर राजनीति सामाजिक परिदृश्य पर हावी रही है और यही लोकतांत्रिक मूल्यों और समानता के रिश्तों को मजबूत बनाने में बाधा है।
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धर्म के नाम राजनीतिक विस्तार
जहां तक भारत के बहुसंख्यक धर्म अर्थात हिन्दू धर्म के धर्मनिरपेक्ष होने का दावा है तो यह भारत की सभी सामाजशास्त्रीय समझ को खारिज करता है। यद्यपि हिन्दू धर्म कोई पैगंबर आधारित धर्म नहीं है, तथापि इसमें ब्राह्मणवादी पुरोहित वर्ग है जो सत्तारूढ़ सामाजिक शक्तियों का हिस्सा था।
हिन्दू पुरोहित वर्ग यानी ब्राह्मण की सामंती राजा को पवित्रता देने में ठीक वही भूमिका थी जो ईसाइयत में पादरी की रही है। इस बात का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण संगठित कैथोलिक चर्च है और इसलिए यह सबसे उल्लेखनीय उदाहरण है।
इनके संबंध में भाजपा के नक्शे में बौद्ध, जैन, सिख जैसे भारतीय मूल के सभी धर्म हिन्दू धर्म के पंथ हैं। यह एक राजनीतिक विस्तार है न कि आध्यात्मिक क्योंकि जहां तक शास्त्रों, संस्कारों और मूल्यों का संबंध है ये सारे धर्म अलग और संपूर्ण धर्म हैं।
इन्हें हिन्दू धर्म के ही संप्रदाय जानबूझकर इस्लाम और ईसाई धर्म के अनुयायियों में अलग होने की भावना गढ़ने के लिए बताया जाता है। इसलिए यह कहना फिर से गलत है कि केवल भारतीय मूल के धर्म ही भारतीय धर्म हैं।
धर्मों की राष्ट्रीयता नहीं होती है, वे सार्वभौमिक होते हैं। इस अर्थ में धर्म का उद्भव एक आकस्मिक घटना है। बौद्ध धर्म के प्रसार को देखें। सारे विश्व में इस धर्म के अनुयायियों को तेजी से बढ़ते हुए देखें।
भारतीय बनाम विदेशी धर्म का यह स्वरूप एक राजनीतिक निर्माण है। जैसे किसी भी अन्य धर्म में कई संप्रदाय होते हैं, यह सच है की उसी तरह हिन्दू धर्म में भी विभिन्न संप्रदाय हैं। भारत में फलने-फूलने वाले कई धर्म यहां हैं।
भारतीय धर्म कौन से है? इस सवाल का गांधी द्वारा सटीक जवाब दिया गया। गांधी कहते हैं कि भारत में ईसाई और यहूदी धर्म के अलावा हिन्दू धर्म और उसके विभिन्न संस्करण, इस्लाम और पारसी धर्म विद्यमान हैं। (गांधी के संग्रहित कार्य, खंड 66 पृष्ठ 27-28)। यह इस्लाम और ईसाई धर्म को विदेशी धर्म ठहराने की आरएसएस-भाजपा की सोच के बिल्कुल विपरीत है।
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अपमानित करने वाली भाषा
यह सच है कि राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी और प्रभावी भूमि सुधार के अभाव की वजह से भारत में धर्मिनिरपेक्षता पर अमल धीमा रहा है। इस वजह से और धार्मिक बहुलता और धर्मनिरपेक्षता के अपने पूर्ण विरोध में आरएसएस परिवार इस तरह के अलग-अलग मुद्दे उछालता रहा है।
पहले, इसने कांग्रेस की सकारात्मक नीतियों के लिए तुष्टीकरण शब्द से शुरुआत की और फिर जो लोग धर्मनिरपेक्षता की संवैधानिक मान्यताओं को बचाए रखने का प्रयास कर रहे हैं उनके लिए छद्म धर्मनिरपेक्ष और फिर सिकूलर जैसे अपमानित करने वाले शब्द उछाले।
‘सबके लिए न्याय, किसी का तुष्टीकरण नहीं,’ का भाजपा का नारा, एक प्रकार से हिन्दू राष्ट्रवाद किस तरह संचालित होगा, इस बात का स्पष्ट संकेत है।
इसमें कमजोर धार्मिक अल्पसंख्यकों से कोई सरोकार नहीं होगा। इसके सारे एजेंडे हिन्दुओं के पंथ से संबंधित पहचान के इर्द-गिर्द गढ़े गए हैं। इस धरातल पर पहले जिस सबसे बड़े विवाद का उपयोग किया गया वह राम मंदिर था और वर्तमान में पहचान के मुद्दे के तौर पर ‘गौमाता’ का विवाद छाया हुआ है।
नरेंद्र मोदी द्वारा धर्मनिरपेक्षता के बदले में उछाला गया ‘इंडिया फर्स्ट’ का भावनात्मक मुहावरा धर्मनिरपेक्षता को उपेक्षित करने का एक चालाकी भरा पैंतरा है जो कि आरएसएस-भाजपा के हिन्दू राष्ट्रवाद के एजेंडे के लिए सबसे बड़ी बाधा है।
राष्ट्रीय आंदोलन मूल रूप से पूरी तरह विविधतापूर्ण, बहुलतवादी और धर्मनिरपेक्ष था जब कि आज के भाजपा की वैचारिक जड़ें उस हिन्दू राष्ट्रवाद में हैं जिसे सावरकर और बाद में आरएसएस ने पोषित किया। इसकी शुरुआत ‘हम एक राष्ट्र बनने की राह पर हैं’ के भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की समझ के विपरीत प्राचीनकाल से ही हिन्दू राष्ट्र के रूप में भारत के निरूपण से हुई।
चुनावी उद्देश्यों के लिए भाजपा को भारतीय संविधान को बरकरार रखना होगा। हालांकि यह विभिन्न जरियों से धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं को पलटने का प्रयास कर रही है। भारतीय संविधान की आत्मा की इस तरह की विकृतियों से वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर लड़ने की जरूरत है।
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लेखक आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर हैं। वे मानवी अधिकारों के विषयो पर लगातार लिखते आ रहे हैं। इतिहास, राजनीति तथा समसामाईक घटनाओंं पर वे अंग्रेजी, हिंदी, मराठी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा में लिखते हैं। सन् 2007 के उन्हे नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित किया जा चुका हैं।