आज़ादी के लिए पहला विद्रोह सन 1857 में हुआ था। तब से लेकर 15 अगस्त 1947 तक चले 90 साल के काल को राष्ट्रीय आंदोलन माना जाता है। जिसकी शुरुआत मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के नेतृत्व में हुई थी और जिसका समापन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही खासकर अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के 1931 में हुए कराची संमेलन के बाद (जिसमें समाजवाद और मौलिक अधिकारों से सम्बंधित प्रस्ताव पारित किये गए) यह स्पष्ट कर दिया गया था कि जब भी देश आज़ाद होगा तो उसका संविधान कैसा होगा। शासन करने का तरीक़ा कैसा होगा और विधायिका के साथ साथ न्यायपालिका और कार्यपालिका कैसी होगी।
इसी आधार पर राष्ट्रीय आंदोलन में शरीक रहे अधिकतर नेताओं को शामिल कर संविधान सभा का गठन किया गया और भीमराव अंबेडकर को संविधान का ‘ड्राफ़्ट’ तैयार करने की ज़िम्मेदारी दी गई।
लगभग 3 सालों तक चले विचार विमर्श के बाद भारत की संविधान सभा ने 26 जनवरी 1950 को एक ऐसा संविधान अंगीकृत किया, जिसमें हर नागरिक को बराबरी का अधिकार दिया गया।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की राय थी कि देश विभाजन के बाद अलग बने देश पाकिस्तान में चाहे जो हालात हों, लेकिन भारत लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बना रहना चाहिए, जहां सभी नागरिकों के लिए बराबरी के अधिकार होंगे और राज्य की ओर से बगैर किसी भेदभाव के सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
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धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य
राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल रहे जिन नेताओं ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में इस देश को एक ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ के रूप में स्थापित किया। उनमें सी राजगोपालाचारी के साथ-साथ पंडित नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ भीमराव आंबेडकर, सरदार बलदेव सिंह और जॉन मथाई के अलावा श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे।
ये नेता चाहते तो 15 अगस्त 1947 को इस देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर सकते थे, क्योंकि मुस्लिम लीग और उसके नेता बॅ. मुहंमद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र (पाकिस्तान) हासिल कर चुके थे।
लेकिन इन नेताओं ने सामूहिक रूप से प्रण लिया कि वे इस महान देश को पाकिस्तान नहीं बनने देंगे, बल्कि भारत ही बनाए रखेंगे और राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान उन्होंने देश की जनता से जो वादा किया था उसे पूरा करेंगे।
यह स्वतंत्र भारत को सार्वभौम धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का वादा था, जिसमें सभी नागरिकों को बराबरी और आज़ादी, अपने धर्म को मानने और पूजा-अर्चना करने और प्रचार करने की इजाजत और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, भाईचारा और व्यक्ति की प्रतिष्ठा सुनिश्चित की गई थी।
भारतीय संविधान को बने 70 साल का अरसा हो चुका है। हालांकि उसमें 100 से ज़्यादा बार संशोधन किया जा चुका है, लेकिन उसकी मूल आत्मा वही है जो राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान निर्मित हुई थी। जिसे आज भी दुनिया भर में मानवाधिकारों का सर्वश्रेष्ठ दस्तावेज और किसी भी आधुनिक देश को चलाने के लिए सर्वोत्तम प्रणाली देने वाला संविधान माना जाता है।
अगर इस संविधान की आत्मा के साथ कोई छेड़छाड़ हुई तो इसके भयावह परिणाम होंगे और देश की एकता और अखडंता भी कायम नहीं रह पाएगी।
इसलिए वक्त का तकाजा है कि भारतीय संविधान में और इसकी मूल विचारधारा में कोई बदलाव नहीं होना चाहिए और जितना संभव हो सके उसे मज़बूत बनाना चाहिए क्यूंकि यही संविधान भारत के ग़रीब, दलित, पिछड़े, अक़लियत, शोषित, वंचित और पीड़ित लोगों को अपने हक़ के लिए लड़ने का अधिकार देता है।
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संविधान को बदलने की कोशिश
देश में एक वर्ग अभी भी ऐसा है जो ना तो राष्ट्रीय आंदोलन की विचारधारा में यक़ीन रखता है और नाहीं उस आधार पर बने संविधान और उसकी मूल आत्मा को मानता है, इसलिए अक्सर संविधान की समीक्षा करने और इसके मूल स्वरुप को बदलने की मांग उठती रहती है।
सन 2000 में तत्कालीन भाजपा अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने जस्टिस वेंकटचल्लिया की अध्यक्षता में इस बारे में एक आयोग का भी गठन किया गया था।
सवाल उठता है कि वो कौन लोग हैं जो इस देश के संविधान को बदलने की मांग करते हैं और नहीं चाहते की यह देश गांधी, नेहरू, पटेल, राजेंद्र प्रसाद और मौलाना आज़ाद तथा डा. अंबेडकर, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया की विचारधारा पर न चलकर सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर और गोडसे की विचारधारा पर चले।
यह सर्वविदित है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1857 में शुरू हुई आज़ादी की पहली लड़ाई से लेकर 1947 तक नब्बे सालों तक चले राष्ट्रीय आंदोलन को, उसके नेतृत्व को, उसकी विचारधारा को और उस आधार पर बने देश के संविधान को कभी स्वीकार नहीं किया।
संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर का कहना था कि “अगर इस देश में हिन्दू राज समुचित हकीकत बन जाता है तो यह देश के लिए एक खौफनाक मुसीबत होगी, क्योंकि हिन्दू राष्ट्र का सपना आज़ादी, बराबरी और भाईचारे के खिलाफ है, और यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धान्तों से मेल नहीं खाता और इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए।”
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लेखक त्रिभाषी (हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी) पत्रकार हैं, जिनके पास सभी पारंपरिक मीडिया जैसे टीवी, रेडियो, प्रिंट और इंटरनेट में 35 से अधिक सालों का अनुभव है। वह पीआईबी, भारत सरकार और भारत की संसद द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं।