मीडिया में वैकल्पिक कारोबारी मॉडल क्यों जरुरी हैं?





प्रो. आनंद प्रधान का नजरिया :

न दिनों टीवी न्यूज चैनल खुद सुर्खियों में हैं। अधिक से अधिक दर्शकों को आकर्षित करने यानी टीआरपी की अंधी दौड़ में आगे रहने के लिए उनमें लगातार गटर में और नीचे गिरने की होड़ लगी है।

न्यूज चैनल न सिर्फ पत्रकारिता के एथिक्स और मूल्यों की खुलेआम धज्जियां उड़ाने में लगे हैं और उनकी अतिरेकपूर्ण रिपोर्टिंग सच्चाई पर परदा डालने के साथ–साथ सनसनी–मीडिया ट्रायल–चरित्र हत्या का पर्याय बन गई है‚ बल्कि वे सत्ता के भोंपू बन गए हैं और उसे खुश करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।

सबसे अधिक खतरनाक बात‚ जिसे लेकर अब सुप्रीम कोर्ट भी चिंतित है‚ यह है कि वे समाज में खुलेआम सांप्रदायिक जहर फैलाने में जुटे हैं।

लेकिन न्यूज चैनलों के इस अधोपतन के पीछे एक बड़ी वजह न्यूज मीडिया वह लड़खड़ाता या कहें कि लगभग ध्वस्त होता बिजनेस मॉडल भी है‚ जो बड़ी पूंजी के निवेश और विज्ञापनों से होने वाली आय पर टिका है। हालांकि पारंपरिक न्यूज मीडिया का विज्ञापनों पर आश्रित यह बिजनेस मॉडल लंबे समय से संकट में फंसा है और विज्ञापनदाताओं के दबाव में पत्रकारिता के एथिक्स से समझौते करता रहा है।

नये डिजिटल माध्यमों और प्लेटफार्मों की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता और विज्ञापन राजस्व के उधर मुड़ने से यह संकट और गहराता जा रहा है।

यही नहीं‚ पिछले कई सालों से अर्थव्यवस्था की सुस्त पड़ती रफ्तार के साथ विज्ञापन राजस्व में कटौती के बीच विज्ञापन के लगातार छोटे होते हिस्से के लिए न्यूज चैनलों के बीच गलाकाट होड़ से यह संकट लगातार गहरा रहा था। कुछेक न्यूज चैनलों को छोड़कर ज्यादातर घाटे में चल रहे हैं और कई तरह के अनैतिक समझौतों के लिए मजबूर हैं।

रही–सही कसर कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौरान विज्ञापन राजस्व के पूरी तरह से ध्वस्त हो जाने से पूरी हो गई। आश्चर्य नहीं कि इस बीच न्यूज चैनलों में टीआरपी में ऊपर रहने के लिए कीचड़ में नीचे गिरने की होड़ और तेज हो गई है।

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विज्ञापन आधारित बिजनेस मॉड़ल

दरअसल‚ दुनिया के ज्यादातर उदार लोकतांत्रिक विकसित और विकासशील देशों में न्यूज मीडिया का मौजूदा बड़ा कॉरपोरेट पूंजी संचालित और विज्ञापन आधारित बिजनेस मॉडल संकट में है। बड़ी पूंजी और विज्ञापनों पर अति निर्भरता के कारण वह बहुत पहले से नैतिक रूप से संकटग्रस्त था क्योंकि उसे मुनाफे के लिए बहुतेरे अनैतिक समझौते करने पड़ते थे।

लेकिन आर्थिक तौर पर 20वीं सदी में यह बिजनेस मॉडल खासा सफल था। उसने न्यूज मीडिया के विकास और विस्तार के साथ कुछ मामलों में स्वतंत्र‚ खोजी और क्रिटिकल पत्रकारिता को बढ़ावा देने में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई।

लेकिन पिछले दो–ढाई दशकों से दुनिया के विकसित देशों में और पिछले कुछ सालों से भारत जैसे देशों में भी यह बिजनेस मॉडल संकट में है। इसके पीछे कई कारणों में एक बड़ा कारण डिजिटल माध्यमों और खासकर गूगल और फेसबुक जैसे प्लेटफार्मों का उभार है।

डिजिटल के उभार ने मीडिया में एंट्री बैरियर को लगभग खत्म कर दिया है। परंपरागत (लिगेसी) मीडिया कंपनियों को लंबे समय तक इस एंट्री बैरियर का फायदा मिला लेकिन अब डिजिटल माध्यम इसे चुनौती दे रहे हैं‚ जहां बहुत कम खर्च में नये न्यूज पोर्टल्स और न्यूज एप्स शुरू हो रहे हैं और पाठकों/दर्शकों के साथ–साथ विज्ञापनदाताओं का भी ध्यान खींच रहे हैं।

नतीजा हुआ है कि अखबारों का सर्कुलेशन और राजस्व गिर रहा है‚ छोटे–मंझोले अखबार बंद हो रहे हैं‚ टीवी चैनलों के दर्शक घट रहे हैं‚ गलाकाट प्रतियोगिता है‚ विज्ञापन राजस्व भी घट रहा है‚ विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा गूगल और फेसबुक ले जा रहे हैं।

इसका कॉरपोरेट पूंजी नियंत्रित मुख्यधारा की पत्रकारिता पर भी नकारात्मक असर पड़ा है–एथिकल समझौते बढ़े हैं‚ पत्रकारिता को मनोरंजन का पर्याय बनाया जा रहा है‚ टेबलॉयड और गटर पत्रकारिता का जोर बढ़ रहा है‚ न्यूजरूम सिकुड़ रहे हैं‚ जमीनी कवरेज घट रहा है और ‘मीडिया कैप्चर (सत्ता के साथ नत्थी मीडिया) की परिघटना सामने आ रही है।

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कॉरपोरेट मीडि़या को लेकर बहस

दुनिया भर में मीडिया विशेषज्ञों के बीच कॉरपोरेट मीडिया और पत्रकारिता के भविष्य को लेकर बहसें चल रही हैं। उनकी मौत की भविष्यवाणियां की जा रही हैं और इसे उदार लोकतंत्रों और नागरिकों के जानने के अधिकार के लिए खतरा बताया जा रहा है।

इसमें कोई शक नहीं है कि कोई भी गतिशील लोकतंत्र एक स्वतंत्र‚ खोजी‚ क्रिटिकल और सत्ता से तीखे सवाल पूछने वाले मीडिया के बिना चल नहीं सकता है। यही नहीं‚ एक स्वतंत्र मीडिया और क्रिटिकल पत्रकारिता ही नागरिकों की आज़ादी और अधिकारों की पहरेदारी कर सकती है।

लेकिन यह भी सच है कि कॉरपोरेट न्यूज मीडिया और पत्रकारिता का मौजूदा बिजनेस मॉडल ढह चुका है और उसकी पुनर्बहाली की संभावना न के बराबर है। असल सवाल है कि एक स्वतंत्र और क्रिटिकल मीडिया और पत्रकारिता के लिए वैकल्पिक बिजनेस मॉडल क्या हो सकता हैॽ

क्या ऐसा कोई टिकाऊ बिजनेस मॉडल संभव है‚ जिसमें मीडिया और पत्रकारिता के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत न हो और उसे पूरी तरह से विज्ञापनों पर भी आश्रित न होना पड़ेॽ क्या परंपरागत कॉरपोरेट न्यूज मीडिया कंपनियां खुद को टिकाए रखने के लिए विज्ञापन राजस्व से इतर राजस्व के वैकल्पिक और टिकाऊ स्त्रोत खोज पाएंगीॽ

इन दिनों दुनिया और भारत में भी ऐसे वैकल्पिक और टिकाऊ बिजनेस मॉडल के विभिन्न प्रारूपों पर चर्चा और बहस जारी है।

अच्छी खबर यह है कि दुनिया के और देशों की तरह भारत में स्वतंत्र और क्रिटिकल मीडिया और पत्रकारिता के लिए वैकल्पिक और टिकाऊ बिजनेस मॉडल की खोज की दिशा में कई प्रयोग हो रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे वैकल्पिक बिजनेस मॉडल में विज्ञापन की जगह पाठकों/दर्शकों की भूमिका प्राथमिक और केंद्रीय हो गई है क्योंकि डिजिटल मीडिया ने एंट्री बैरियर की समस्या पहले ही काफी हद तक हल कर दी है।

आश्चर्य नहीं कि ज्यादातर वैकल्पिक बिजनेस मॉडल के साथ खड़े हो रहे न्यूज मीडिया उपक्रम डिजिटल प्लेटफार्म पर हैं। असल में‚ क्रिटिकल‚ खोजी और सत्ता की जवाबदेही तय करने वाली पत्रकारिता की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने और उसे टिकाऊ बनाने के लिए किसी को पैसे देने होंगे।

चूंकि ऐसी पत्रकारिता की जरूरत आम नागरिकों को सबसे ज्यादा है‚ इसलिए इसे टिकाए रखने के लिए उन्हें पैसे चुकाने के लिए भी तैयार रहना होगा। याद रहे–कोई भी चीज निःशुल्क नहीं होती है (देयर इज नो फ्री लंच)। जब आप फ्री कंटेंट पढ़ रहे होते हैं‚ तो वह वास्तव में फ्री नहीं होता है। उसके लिए कोई पैसा चुका रहा होता है और उसे पढ़ते/देखते हुए परोक्ष रूप से आप उसकी कीमत दे रहे होते हैं। ध्यान रहे कि कॉरपोरेट मीडिया के बिजनेस मॉडल में पाठक/दर्शक वह प्राडक्ट हैं‚ जिन्हें मीडिया कंपनी विज्ञापनदाता को बेचती हैं।

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वैकल्पिक बिजनेस मॉड़ल

लेकिन न्यूज मीडिया के वैकल्पिक बिजनेस मॉडल में पाठक/दर्शक प्राडक्ट नहीं‚ बल्कि उपभोक्ता निवेशक हैं। इन वैकल्पिक उपक्रमों में पाठक की भूमिका ग्राहक (सब्स्क्राइबर) के बतौर मासिक/सालाना शुल्क चुकाने या समय–समय पर एकमुश्त डोनेशन देने या फिर नियमित तौर पर किसी पसंदीदा स्टोरी के लिए छोटी रकम के भुगतान (माइक्रो पेमेंट) की है।

उदाहरण के लिए‚ वैश्विक स्तर पर न्यूयॉर्क टाइम्स‚ न्यूयॉर्कर आदि और भारत में स्क्रोल या प्रिंट जैसे न्यूज पोर्टल सब्सक्रिप्शन पर जोर दे रहे हैं जबकि वैश्विक स्तर पर प्रो–पब्लिका आदि और भारत में वायर‚ ऑल्ट न्यूज जैसी साइट पाठकों/दर्शकों से नियमित डोनेशन मांगती हैं।

गार्जियन का मॉडल माइक्रो पेमेंट का है और इतना सफल है कि दो साल पहले उसके इतिहास में पहली बार पाठकों से मिला पैसा विज्ञापन से होने वाली आय से आगे निकल गया।

यही नहीं‚ हाल के दिनों में कई पत्रकारीय उपक्रम लोगों से चंदा लेकर (क्राउड–फंडिंग) के जरिए शुरू हुए हैं और आम लोगों के चंदे से चल भी रहे हैं। इसके अलावा दुनिया के अनेक देशों की तरह भारत में भी स्वतंत्र और क्रिटिकल न्यूज मीडिया की फंडिंग के लिए अमीर दानदाता सामने आ रहे हैं।

उदाहरण के लिए‚ भारत में भी इंडिपेंडेंट एंड पब्लिक स्पिरिटेड मीडिया फाउंडेशन ने अनेक न्यूज मीडिया उपक्रमों को खड़ा करने और चलाने में मदद की है। इस फाउंडेशन में फिल्म अभिनेता आमिर खान‚ उद्योगपति अजीम प्रेमजी‚ किरण मजुमदार–शॉ‚ पिरोजशा गोदरेज‚ रोहिणी नीलकेनी‚ रोहिंटन और अनु आगा आदि ने दान दिया है और इसे जाने माने पत्रकार टी एन नाइनन की अध्यक्षता में स्वतंत्र ट्रस्टी चलाते हैं।

न्यूज मीडिया के नये और वैकल्पिक मॉडलों में ज्यादातर नॉन–प्रॉफिट ट्रस्ट मॉडल पर गठित उपक्रम हैं‚ जिसका अर्थ है कि उनके निवेशकर्ता मुनाफा अपने घर नहीं ले जाएंगे‚ बल्कि उसी उपक्रम में निवेश करेंगे। इनमें कई फॉर प्रॉफिट उपक्रम भी हैं‚ जिसका अर्थ है कि उपक्रम को मुनाफा होने की स्थिति में निवेशकर्ताओं को उनका हिस्सा मिलेगा।

लेकिन इन नॉन–प्रॉफिट और फॉर प्रॉफिट उपक्रमों में 99 फीसदी से ज्यादा ऐसे हैं‚ जो स्टॉक मार्केट में लिस्टेड कंपनियां नहीं हैं‚ जिसका अर्थ है कि उन पर निवेशकों का लाभांश देने का दबाव नहीं है। एक अच्छी बात यह भी है कि इनमें से अधिकांश उपक्रम खुद पत्रकारों के समूह या किसी एक पत्रकार ने शुरू किया है और उसकी बागडोर भी उनके हाथ में ही है।

यह सही है कि ये प्रयोग अभी शुरुआती दौर में हैं और ऐसा नहीं है कि उनके सामने मुश्किलें नहीं हैं। उनके टिकाऊपन की अभी परीक्षा होनी बाकी है। लेकिन उनकी स्वतंत्र और क्रिटिकल पत्रकारिता का असर दिख रहा है। उनके आने से पत्रकारिता का परिदृश्य बदला है। उसमें विविधता और बहुलता दिख रही है।

एक बात तय है कि बड़ी और कॉरपोरेट पूंजी के बड़े–संकेंद्रित न्यूज मीडिया का दौर जा रहा है और भविष्य छोटे–विकेंद्रित‚ पत्रकारों–संपादकों द्वारा संचालित और यहां तक कि एक व्यक्ति (पत्रकार या गैर–पत्रकार) संचालित (यू–ट्यूबर्स आदि) का दौर पाठकों–दर्शकों के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।

अब फैसला पाठकों/दर्शकों यानी नागरिकों के हाथ में है कि वे कॉरपोरेट न्यूज मीडिया ‘प्रॉडक्ट”””””””” बने रहेंगे या स्वतंत्र–क्रिटिकल और सत्ता की जवाबदेही तय करने वाली पत्रकारिता के सक्रिय साझेदार–निवेशक बनेंगेॽ उनके फैसले से ही न्यूज मीडिया और पत्रकारिता के वैकल्पिक मॉडल का भविष्य तय होगा।

(लेखक नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में प्रोफेसर हैं। उनका ये आलेख 19 सितम्बर 2020 को राष्ट्रीय सहारा में छपा था।)

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