शानदार अदाकारा शौकत कैफी, जिन्हें उनके चाहने वाले शौकत आपा और उनके करीबी मोती के नाम से पुकारते थे, बीते साल 22 नवम्बर को इस दुनिया से हमेशा के लिए जुदा हो गईं। और अपने पीछे छोड़ गईं, ‘याद की रहगुजर।’
उनकी यादों के पन्न्नों को पलटे, तो बहुत कुछ मिलता है। गुलाम हिन्दुस्तान में आज़ादी पाने की जद्दोजहद, आज़ादी के बाद समाजवाद के लिए संघर्ष और भी बहुत कुछ !
20 अक्टूबर, 1928 को हैदराबाद में एक नीम-तरक्कीपसंद (अर्ध प्रगतिशील) परिवार में शौकत खानम उर्फ शौकत आपा की पैदाइश हुई। पिता आधुनिक तालीम और खुले ख्यालों के तरफदार थे। लिहाजा उन्होंने परिवार में लड़का-लड़की में कोई फर्क न करते हुए, अपनी सभी लड़कियों को अच्छी तालीम दी। अपना फैसला खुद ले सकें, ऐसी तर्बीयत दी। जिसका असर, शौकत खानम की आगे की जिन्दगी और मुस्तकबिल पर पड़ा।
शौकत खानम, शौकत कैफी कैसे हुईं, इसकी दास्तान बड़ी दिलचस्प है। हैदराबाद से निकलने वाले उर्दू डेली अखबार ‘पयाम’ के एडिटर, तरक्कीपसंद शायर अख्तर हुसैन, शौकत खानम के दूल्हाभाई थे। उनके घर हमेशा तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़े अदीबों (लेखकों) का डेरा जमा रहता था। उन्हीं के घर शौकत खानम की पहली मुलाकात कैफी आज़मी से हुई।
पहली ही नजर में वे एक-दूसरे के हो गए। कुछ इस तरह की जैसे एक-दूसरे के लिए ही बने हों। यह जानते हुए कि कैफी आज़मी कम्युनिस्ट पार्टी के फुल टाइमर हैं, मुंबई में पार्टी के कम्युन में रहते हैं, आजीविका का कोई ठिकाना नहीं, शौकत खानम ने उनसे शादी करने का साहसी फैसला कर लिया।
परिवार की शुरुआती ना-नुकूर के बाद, आखिरकार उनकी शादी कैफी से हो गई। तरक्कीपसंद तहरीक के रहनुमा सज्जाद जहीर के यहां कैफी-शौकत की शादी की सारी रस्में पूरी हुईं। इस शादी में तहरीक से जुड़ी तमाम अजीम शख्सियत मसलन जोश मलीहाबादी, मजाज, कृश्न चंदर, साहिर लुधियानवी, पितरस बुखारी, विश्वामित्र आदिल, इस्मत चुगताई, सरदार जाफरी, सुल्ताना आपा, मीराजी, मुनीष सक्सेना वगैरह शामिल थीं
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अभिनय की शुरुआत
शादी के कुछ अरसे बाद ही शौकत खानम ने अपने आप को कम्युन और कैफी आज़मी के रंग में ढाल लिया। वे अपने शौहर कैफी आज़मी के संग प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की मीटिंगों और प्रोग्रामों में बढ़-चढ़कर शिरकत करने लगीं।
कैफी आज़मी की जिन्दगी का मकसद, उनका मकसद हो गया। बहरहाल जिन्दगी जैसे-जैसे आगे बढ़ी, उनका कठोर सच्चाईयों से साबका पड़ा। पार्टी के फुल टाइमर होने की वजह से कैफी को परिवार चलाने के लिए, काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। पार्टी के काम के अलावा वे और कोई काम नहीं कर सकते थे। ना ही इसके लिए उनके पास वक्त था।
कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी.सी. जोशी की समझाइश, परिवार के भरण-पोषण और उसकी जिम्मेदारी को बांटने की खातिर शौकत कैफी ने भी काम करने का फैसला कर लिया। जब उन्होंने अपना यह फैसला, कैफी को सुनाया, तो कैफी ने भी उनकी मदद की।
शौकत कैफी, अपने स्कूल के जमाने में ड्रामों में काम करती थीं। एक्टिंग उनका शौक था। लिहाजा उन्होंने एक्टिंग के ही क्षेत्र में उतरने का मन बना लिया। रेडियो के लिए ड्रामों में हिस्सा लेने के अलावा उन्होंने फिल्मी गीतों के कोरस में अपनी आवाज दी। शौकत कैफी की मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि कुछ ही दिनों में उन्हें डबिंग वगैरह का काम मिलने लगा। परिवार की माली हालत सुधर गई।
एक रोज लेखक-पत्रकार-स्क्रिप्ट राइटर-फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास की बीबी मुज्जी उनके पास आईं और उनसे ‘इप्टा’ में काम करने का प्रस्ताव रखा। इस पेशकश को वे मना नहीं कर पाईं और खुशी-खुशी उन्होंने इसे मंजूर कर लिया।
उर्दू की मशहूर अफसानानिगार इस्मत चुगताई का लिखा ‘धानी बांके’, उनका पहला नाटक था, जिसमें उन्होंने अभिनय किया। कथाकार-नाटककार भीष्म साहनी द्वारा निर्देशित इस नाटक में उनके साथ जोहरा सहगल, अजरा बट्ट और दीना पाठक ने भी अहम रोल किए। उनका पहला ही नाटक बेहद कामयाब रहा।
नाटक और उनका अभिनय दोनों ही खूब पसंद किया गया। इस तरह से शौकत कैफी की अभिनेत्री के तौर पर एक पहचान बन गई। उनको जिन्दगी के लिए एक नई राह मिल गई। उन्होंने इप्टा के कई अहमतरीन नाटकों में अपने अभिनय के जौहर दिखलाए।
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संघर्षों से रहा वास्ता
मुल्क की आज़ादी के बाद भी शौकत आपा का संघर्ष कम नहीं हुआ। कैफी आज़मी के संघर्ष, उनके संघर्ष थे और वे हमेशा कैफी के कंधे से कंधा मिलाए, उनके साथ खड़े रहती थीं। उन्होंने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा।
पृथ्वी थियेटर में नौकरी की, ट्यूशन पढ़ाई और किसी तरह से परिवार का गुजारा चलाया। लेकिन कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की। जो रास्ता उन्होंने चुना था, उससे कभी विचलित नहीं हुईं। किराए के मकान और पार्टी कम्यून में उन्होंने कई साल गुजारे।
कैफी आज़मी को अपने गांव मिजवां से काफी लगाव था और इसकी तरक्की के लिए उन्होंने लगातार काम किया। इस काम में शौकत आज़मी भी हमेशा उनका साथ देती थीं। गांव में तमाम परेशानियों के बाद भी उन्होंने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। कैफी की खुशियां, उनकी खुशियां थीं।
कैफी हंसते, वे हंसती और उन्हें कोई गम होता, तो वे भी गमजदा हो जातीं। वे एक अच्छी पत्नी और मां थीं। स्टेज हो या जिन्दगी शौकत कैफी को जो भी भूमिकाएं मिली, उन्होंने उसे बेहतर तरीके से निभाया।
कैफी साहब को जब फालिज का अटैक आया, डिप्रेशन का शिकार हुए, तो उन्होंने उनकी खूब खिदमत की। अपनी खिदमत से उन्हें डिप्रेशन से उबारा। शबाना आज़मी और बाबा आज़मी, उनके दोनों बच्चे फिल्मी दुनिया में आज जिस मुकाम पर हैं, उसमें भी उनकी अच्छी तर्बीयत का बड़ा योगदान है।
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रचनात्मकता बनी पहचान
शौकत कैफी के अभिनय की शोहरत उन्हें फिल्मों तक ले गई। ‘हकीकत’, ‘हीर राँझा’, ‘लोफर’ आदि फिल्मों में उन्होंने छोटे-छोटे चरित्र किरदार निभाए। निर्देशक एम.एस. सथ्यू और शमा जैदी ने साल 1971 में जब ‘गर्म हवा’ बनाने का फैसला किया, तो इस फिल्म के एक अहम रोल में उन्हें भी चुना। सलीम मिर्जा (बलराज साहनी) की बीबी के किरदार में तो शौकत कैफी ने जैसे जान ही फूंक दी।
उन्होंने इतना सहज और स्वभाविक अभिनय किया कि सत्यजीत राय जैसे विश्व प्रसिद्ध निर्देशक ने भी उनकी अभिनय प्रतिभा का लोहा मान लिया। उन्होंने शौकत कैफी की तारीफ करते हुए यहां तक कहा, ‘‘शौकत को इस फिल्म में अदाकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिलना चाहिए था।’’
‘गर्म हवा’ में खास तौर पर बेटी की मौत पर कफन फाड़ने का जो उन्होंने सीन किया है, वह दिल को हिला देने वाला है। ‘गर्म हवा’ के बाद उन्हें जो महत्वपूर्ण फिल्म मिली, वह थी मुजफ्फर अली की ‘उमराव जान’। इसमें उन्होंने खानम के रोल में कमाल कर दिखाया है। फिल्म में दीगर अदाकारों के साथ-साथ उनकी अदाकारी भी वाकई, लाजवाब है।
कैफी ने जब यह फिल्म देखी, तो उन्होंने कॉस्ट्यूम डिजाइनर सुभाषिणी अली को अपना रद्दे अमल देते हुए कहा, ‘‘शौकत ने खानम के रोल में जिस तरह हकीकत का रंग भरा है, अगर शादी से पहले मैंने इनकी अदाकारी का यह अंदाज देखा होता, तो इनका शजरा (वंशावली) मंगवाकर देखता कि आखिर सिलसिला क्या है !’’
निर्देशक मीरा नायर की ‘सलाम बाम्बे’ एक और ऐसी फिल्म है, जिसमें शौकत कैफी की अदाकारी के दुनिया भर में चर्चे हुए। ‘घर वाली’ के रोल की तैयारी के लिए वे बकायदा तवायफों के बदनाम इलाके कमाठीपुरा गईं। जहां उन्होंने वेश्याओं की जिन्दगी का करीब से अध्ययन किया। जब वे शूटिंग के लिए गईं, तो उनकी अदाकारी को देखकर निर्देशक के साथ साथी कलाकार भी चौंक गए।
फिल्म व्यावसायिक तौर पर काफी कामयाब हुई और अमेरिका के न्यूयार्क जैसे शहर में इसने सिल्वर जुबली मनाई। ‘लोरी’, ‘रास्ते प्यार के’, ‘बाजार’, ‘अंजुमन’ वे और फिल्में हैं, जिनमें शौकत आज़मी ने अपनी अदाकारी के अलेहदा रंग दिखलाए।
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याद की रहगुजर
‘याद की रहगुजर’ शौकत कैफी की आपबीती है। यह उनकी एक मात्र किताब है। लेकिन इस किताब में उन्होंने जिस किस्सागोई से कैफी आज़मी, अपने परिवार और खुद के बारे में लिखा है, वह पढने वालों को एक उपन्यास का मजा देता है। जिसके सारे किरदार, असल जिन्दगी के हैं। किताब पढ़कर, जैसे पूरा बीता दौर जिन्दा हो जाता है।
हर जिन्दगी एक किताब होती है और किस्मत किसी के वश में नहीं। लेकिन शौकत कैफी उन हिम्मती औरतों में शामिल हैं, जिन्होंने अपनी तकदीर खुद लिखी। आगे बढ़कर अपनी तारीख का उनवान बदला। कैफी आज़मी जिस ‘आग’ में जलते थे, उसी ‘आग’ में जलना मंजूर किया। कैफी की मशहूर नज्म ‘औरत’ पर जिन्दगी भर एतमाद किया।
तोड़कर रस्म के बुत बन्दे-क़दामत (प्राचीनता का बंधन) से निकल
ज़ोफ़े-इशरत (आनंद की कमी) से निकल, वहम-ए-नज़ाकत (कोमलता का भ्रम) से निकल
नफ़स (अस्तित्व) के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत (महानता का घेरा) से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे।
पूरी जिन्दगी अपनी शर्तों पर गुजारी और कभी किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं किया। आज़ादी के बाद एक बार फिर इप्टा को खड़ा करने में उनके बहुमूल्य योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
ए. के. हंगल, आर. एम. सिंह, विश्वामित्र आदिल, संजीव कुमार, रमेश तलवार और कैफी आज़मी के संग मिलकर उन्होंने इप्टा को सक्रिय किया। रंगमंच और फिल्मों में उनके अमूल्य योगदान और अपनी यादगार अदाकारी से शौकत कैफी हमेशा याद की जाएंगी।
जाते जाते :
- ‘मशाहिरे हिन्द’ बेगम निशात उन् निसा मोहानी
- विदेश में भारतीय झंडा लहराने वाली भीकाजी कामा
- छोटे भाई टैगोर की मुख़रता से स्वर्णकुमारी रही उपेक्षित लेखिका
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।