मलिक अंबर के पश्चात छत्रपति शिवाजी महाराज ने दकन के राजनैतिक अस्मिताओं का प्रतिनिधित्व किया। दक्षिण में स्वराज्य के माध्यम से उन्होंने दकन कि राजनिती को स्वतंत्र रखा। दकनी भाषा के लोकप्रिय कवी वली औरंगाबादी ने दकनी संस्कृती अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय पहचान दिलाई। छत्रपति शिवाजी और वली औरंगाबादी सरजमीन ए दकन के दो महान सुपुत हैं।
दिल्ली के उत्तरी संस्कृति का सामाजिक प्रतिनिधित्व कई मुसलमान बादशाहों ने किया हैं। शेरशाह सुरी अपने आपको भोजपूरी संस्कृति का नायक कहलवाता था। मुहंमद तुघलक दकन आने के पहले अपनी उत्तरी अस्मिता को बरकरार रखते हुए, दकन का पानी भी पिना पसंद नहीं करता था।
मुघलिया शासक जहांगिर के दौर में मलिक अंबर ने दकनी अस्मिताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए, मुगल साम्राज्य को दक्षिण भारत में चुनौती दि थी। हसन बहामनी ने जब दक्षिण भारत में पहली मुस्लिम सत्ता कि बुनियाद रखी तो, उस समय उसे जिन्होंने मदद कि थी, वह तेलुगू सरदार उत्तरी राजनीति के विरोधक रहे थे।
ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जिसके द्वारा यह स्पष्ट किया जा सकता है की, दकनी अस्मिता मध्यकाल में हर समय उभर कर सामने आई थी। दकन के कुछ हिंदू राजा सल्तनकाल में अपना उल्लेख ‘सुरत्राण’ के तौर पर किया करते थे। जो उत्तरी राजकीय प्रभुत्व को दि हुई दक्षिणी राजनैतिक अस्मिता की चुनौती थी।
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मध्यकाल में बादशाहों के यहां राजाश्रय पानेवाले कवि उनके हर नीति कि प्रशंसा करते थें। अपने काव्य के माध्यम से बादशाह को समर्थन प्राप्त करवाने कि कोशीश भी करते रहे।
आदिलशाही काल में भी ‘नुसरती’ जैसे कई कवी हुए जिन्होंने बादशाहों के हर कदम कि सरहाना की। मगर नुसरती जैसे शायर उत्तरी बादशाहत का विरोध करने के बावजूद दकनी अस्मिता के सांस्कृतिक प्रतिनिधी के रुप में जाने नहीं जाते।
इसका सबसे बडा कारण उनकी शायरी की भाषा, फारसी हैं। नुसरती के काल में कई फारसी शायर थे जो नुसरती कि तरह दक्षिणी बादशाहत के समर्थन में खडे थें। मगर इनका उत्तरी राजनीति का विरोध धार्मिक आस्थाओं कि वजह से था, जो शिया संप्रदाय से जुडी हुई थी।
मगर दकन में कई शायर ऐसे भी हुए जो सिधे तौर पर दक्षिणी समाज, संस्कृति एवं लोकजीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिनमें एक नाम सिराज औरंगाबादी का है। और दूसरा नाम वली औरंगाबादी का हैं जो वली दकनी के नामसे मशहूर हैं।
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सांस्कृतिक अस्मिताओं के दो नायक
सन 1630 में जन्में छत्रपति शिवाजी, मलिक अंबर के पश्चात दकनी सांस्कृतिक अस्मिताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए, मुघल सत्ता विरोधी राजनैतिक आंदोलन के नेता के रुप में उभर आए।
किसान, काश्तकारों और श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करते हुए शिवाजी महाराज नें दकन में स्वराज्य कि स्थापना की। सन 1680 तक शिवाजी महाराज ने मलिक अंबर के बाद पुनः एक बार सरजमीन ए दकन कि सामान्य जनता में राजनैतिक अस्मिताओं को चेतना दी।
वली औरंगाबादी याने वली दकनी मध्यकाल के वह शायर हैं, जिन्होने कई भाषाओं में कविताएं लिखी। वली कि वजह से ही आधुनिक उर्दू का जन्म हुआ। मगर विद्वानों में इस विषय में काफी मतभेद नजर आते हैं।
कुछ लोग वली कि कविताओं में बस दकनी अस्मिताएं देखतें हैं, तो कुछ का मानना है की, वली ही उर्दू के ‘बाबा आदम’ है। वली का जन्म 1648 में दकन के मशहूर शहर खडकी याने अब के औरंगाबाद में हुआ था।
वली लगातार प्रवास किया करते थें। वली का निधन उम्र की 59 साल में सन 1707 को गुजरात के शहर अहमदाबाद में हुआ। वली नें सेकडो गजलें, मसनवी, मुआम्स, कसीदे लिखे हैं।
दकन कि सांस्कृतिक अस्मिता वली के कविताओं की पहचान है। वली कई कविताओं में दकन के प्रती उनकी मुहब्बत दिखाई देती है –
दकन बहीश्त, कि झलक कुं पावें,
दकन रब की वजूद कुं दिखलावें
इस कविता में दकन का बतौर स्वर्ग के तौर पर उल्लेख मिलता है। दकन के लोकजीवन और संस्कृती का भी वली को विशेष अभिमान था। वली लिखते हैं –
दकन मेरा पियां, दिल्ली नूं झुकाया
दकन मेरा पियां, दुलहन सूं लागेयां
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इसी कारण वली को दकनी राजनैतिक अस्मिता के नायक छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रती भी काफी आदर था। दकनी भाषा के अभ्यासक श्रीधर रंगनाथ कुलकर्णी ने एक कविता अपनी किताब में दी है। कुलकर्णी कहते हैं, ‘‘दकनी भाषा और दकन से वली को विशेष प्रेम था। मराठों का वह आशिक था।’’
वली ने अपनी कविता में लिखा है।
आज माशुक लडका मरहटा है। मिठाई बंद शकरसूं मिठा है।।
सजन है सांवला साजका सजीला। कटीवा होर हटीला लटपटा है।।
वली मराठो कि तारीफ करते थकते नहीं थे, उन्होंने शिवाजी महाराज कि भी इसी तरफ तारीफ की है। वली लिखते हैं –
शिवाजी नूं इश्क करै दिल। उसकी शमशीर नूं लागै जीव।।
उसन कि बात करे लब। उसकी आस करे दकन।।
वली दकनी जिस संस्कृती को अपनी मातृसंस्कृती कहते थें वह दक्षिणी थी। इसी दकनी अस्मिताओं के नायक के तौरपर वह छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रती आदर और सन्मान कि भावना रखते थें।
छत्रपति शिवाजी स्वराज कि स्थापना दकनी संस्कृती रक्षा की और वली औरंगाबादी ने दकनी साहित्य, भाषा, लोकजीवन को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचा कर अतुलनीय सांस्कृतिक योगदान दिया। दकन कि संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते दकन के इन दोनो सुपुतों को इतिहास कभी भुला नहीं सकता
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लेखक युवा इतिहासकार तथा अभ्यासक हैं। मराठी, हिंदी तथा उर्दू में वे लिखते हैं। मध्यकाल के इतिहास में उनकी काफी रुची हैं। दक्षिण के इतिहास के अधिकारिक अभ्यासक माने जाते हैं। वे गाजियोद्दीन रिसर्स सेंटर से जुडे हैं। उनकी मध्ययुगीन मुस्लिम विद्वान, सल्तनत ए खुदादाद, असा होता टिपू सुलतान, आसिफजाही इत्यादी कुल 8 किताबे प्रकाशित हैं।