इस सप्ताह पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने कर्नाटक के ईसाई समुदाय और उनके गिरजाघरों पर हुए हमलों के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसी सप्ताह ही कर्नाटक सरकार ने एक ऐसे कानून का ऐलान किया है जिससे अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता को और सीमित कर दिया गया है। मैंने भी इस रिपोर्ट में योगदान दिया है और उसी को यहां साझा कर रहा हूं।
दरअसल धार्मिक अल्पसंख्यकों और उनके इबादतघरों पर निशाना लगाकर हमले करने की घटनाएं पूरे देश में तेजी से बढ़ी हैं। दिसंबर के पहले 2 सप्ताह के दौरान ही मध्य प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में ईसाइयों पर हमले के मामले सामने आए हैं।
इसके अलावा समुदायों पर हमले और संगठित गड़बड़ी करने के साथ ही नए-नए कानून भी बनाए जा रहे हैं। धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित करने और अंतरधार्मिक विवाहों पर रोक लगाने वाले कानून बीजेपी शासित राज्यों में 2018 से ही बन रहे हैं।
इन कानूनों के जरिए समुदायों को अपने धर्म के प्रचार और उसका पालन करने पर पाबंदियां लगाई जा रही हैं। कर्नाटक में बीजेपी सरकार ने ऐसे ही सर्वे का प्रस्ताव रखा है जिसमें ईसाई समुदाय, उनकी धार्मिक गतिविधियों और इबादतगाहों की सूची बनाई जाएगी।
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झूठे मुकदमे
हेट क्राइम्स यानी नफरत में किए गए अपराधों को सरकारें अलग से किसी श्रेणी में दर्ज नहीं करती हैं, और इनके बारे में ज्यादा सूचना इसीलिए उपलब्ध नहीं हो पाती। इस साल जारी एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में 90 से ज्यादा हेट क्राइम को दर्ज किया गया है और 300 से ज्यादा मामले ईसाइयों और चर्चों पर हुए हमलों से संबंधित हैं।
ये ज्यादातर मामले उत्तर भारत में दर्ज हुए हैं। इस रिपोर्ट में उस थीम को भी रिकॉर्ड किया गया है जो मौजूदा रिपोर्ट को पुष्ट करती है। इनमें इबादत करने से रोकना, पादरियों और इबादत करने वालों की गैरकानूनी हिरासत और उनके खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज करना शामिल है।
इन सबको कानूनी जामा पहनाकर और बीजेपी और इससे जुड़े संगठनों के नेताओं के भड़काऊ भाषणों से और प्रभावी बनाया जाता है।
यह महत्वपूर्ण है कि नागरिक समाज अपनी क्षमता के अनुसार भारत के अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा, दमन और धमकी का दस्तावेजीकरण करे। और अगर इसमें सरकार और सत्तासीन पार्टियों की मंजूरी रहे तो बेहतर होगा।
कर्नाटक में, हमलों का एक पैटर्न है: एक संगठित समूह, जो अक्सर सैकड़ों की तादाद में होता है, चर्च में प्रार्थना के दौरान घुसता है और भजन गाने और नारे लगाने लगता है। वहां क्या हो रहा है या क्या किया जा रहा है, इसे समझे बिना ही वे बिना सबूत के आरोप लगाते हैं कि वहां धर्मांतरण किया जा रहा है।
ये लोग अकसर हिंसक होते हैं और प्रार्थना के लिए आए लोगों पर हमले करते हैं। पुलिस को आमतौर पर ऐसी घटनाओं की पूर्व जानकारी होती है, लेकिन सबकुछ हो जाने के बाद ही वह मौके पर पहुंचती है।
यह उन्मादी भीड़ अपने फोन में अपने द्वारा किए गए हमले और हिंसा को रिकॉर्ड करती है, लेकिन वहां मौजूद लोगों को रिकॉर्ड करने से रोकती है, जिससे कि अपराध का सही रिकॉर्ड हो ही नहीं पाता है।
यह भीड़ अपने धार्मिक मतभेद को झंडे, स्कार्फ और नारों के जरिए सामने रखते हुए ध्रुवीकरण पर जोर देते हैं। उनका इस हरकत को न तो सरकार अपराध के रूप में देखती है और न ही मीडिया इस कथित धर्मांतरण के आरोप की घटना को गहराई से देखने की कोशिश करता है।
पादरी और अन्य इबादत करने वालों को भीड़ द्वारा फंसाया जाता है और पुलिस उनके खिलाफ ही मामला दर्ज कर लेती है जो हिंसा के शिकार हैं। मुकदमा उनके खिलाफ भी दर्ज होता है जो संविधान से मिली स्वतंत्रता के तहत अपनी पसंद के धर्म की इबादत करने आए थे।
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स्वतंत्रता में सरकारी दखल
ऐसे मामलों में सरकार का रवैया भी आमतौर पर निगेटिव ही होता है। पुलिस इबादत करने वालों की निजी जिंदगी में दखल देती है और अकसर उनकी जाति पूछती है। पुलिस पादरियों और इबादत करने और कराने वालों की पर्सनल डिटेल्स लेती है और आमतौर पर उन्हें धमकाती है।
इस धमकी का असर यह होता है कि लोग इबादतघर आना बंद कर देते हैं, और शायद पुलिस और हंगामा करने वालों का मकसद भी यही होता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कई बार सरकार खुद ही पुलिस और अन्य एजेंसियों को ऐसा करने के निर्देश देती है, जैसा कि इस रिपोर्ट में सामने आया है कि चर्च की गतिविधियां और वहां होने वाली प्रार्थना को रोक दिया जाता है, जबकि यह लोगों की स्वतंत्रता में सरकारी दखल है।
एक मामला तो ऐसा सामने आया जब पुलिस सिर्फ इस बात से भड़क गई कि ईसाई उस दिन प्रार्थना करने के लिए क्यों जमा हुए जिस दिन कोई हिंदू त्योहार था। अकसर पुलिस की भूमिका हिंसा या धमकी रोकना नहीं बल्कि उन्हें बढ़ाने की ही होती है।
साथ ही पुलिस हमलावरों और पीड़ितों के बीच कथित सुलह इस तरह कराती है कि उनके हिसाब से व्यवस्था बनी रहे। इस रिपोर्ट में ध्यान इस तरह के हमलों और धमकियों के पीछे और इसके परिणामों की तरफ दिलाया गया है।
जो भी हिंसा होती दरअसल वह जातिवाद और जाति आधारित उत्पीड़न से जुड़ी होती है। हमला करने वाले जब भी प्रार्थना करने वालों को संबोधित करते हैं तो आमतौर पर जाति सूचक शब्दों या गालियों का इस्तेमाल करते हैं। एक बार की हिंसा और हंगामे के बाद प्रार्थना करने वालों को निरंतर निशाना बनाया जाता है।
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तेज होती प्रक्रिया
इस रिपोर्ट में रिकॉर्ड किया गया है कि हिंसा के बाद पीड़ितों में सामाजिक स्तर पर बेचैनी और परेशानी के साथ ही उनकी रोजी-रोटी पर संकट आता है, उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है, उनके हक मारे जाते हैं और कुछ मामलों में उनके सम्मान और उनके घरों को भी निशाना बना दिया जाता है।
पीयूसीएल की रिपोर्ट बताती है कि जो लोग यह हंगामा और हिंसा करते हैं वे हिंदुत्व समूह होते हैं और वे ही इस सबको संगठित तरीके से करते हैं। बीजेपी विधायक और मंत्री भी कई बार इन मामलों में शामिल पाए गए हैं।
हालांकि, सामाजिक बहिष्कार के मामले में आमतौर पर पड़ोसी ही होते हैं जो किसी कारण इनसे खफा थे और फिर पीड़ितों के खिलाफ हो जाते हैं। कभी-कभी पीड़ित और हिंसा के शिकार लोगों को अपनी नौकरी और आजीविका भी खोना पड़ती है। ऐसा लगता है कि घटना के बाद पूर्वाग्रह का प्रसार और हिंसा की तत्काल कार्रवाई ही एकमात्र समस्या नहीं है।
कर्नाटक में जो कानून आ रहा है उससे हिंदुत्व समूहों द्वारा अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की प्रक्रिया तेज ही होगी। इससे सरकार और विशेष रूप से पुलिस को कर्नाटक के ईसाइयों के धर्म की स्वतंत्रता में दखल देने और उन्हें प्रार्थना से रोकने और बाधित करने की छूट मिल जाएगी।
इस तरह कर्नाटक भी उन बीजेपी शासित राज्यों की फेहरिस्त में शामिल हो जाएगा जहां 2018 से धर्म की स्वतंत्रता के खिलाफ कानून बनाए हैं।
(प्रकाशित आलेख में लेखक के विचार अपने हैं।)
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लेखक राजनीतिक विश्लेषक और एमनेस्टी इंटरनेशनल के पूर्व संचालक (भारत) हैं।