इतिहास की सांप्रदायिक बहस से किसका फायदा?

क साल पहले 10 अक्टूबर को आरएसस के मुखिया मोहन भागवत ने कहा था कि भारत में रहने वाले मुसलमान हिन्दुओं के वजह से दुनिया में सर्वाधिक सुखी हैं। अब वे एक कदम आगे बढ़कर कह रहे हैं कि यदि मुसलमान कहीं संतुष्ट हैं तो केवल भारत में। वे इसके आगे एक बात और कहते हैं, “यदि दुनिया में ऐसा कोई देश है जिसमें वह विदेशी धर्म – जिसके मानने वालों ने वहां शासन किया हो – अब फल-फूल रहा है तो वह भारत है।

यही नहीं, वे आगे कहते हैं, “हमारा संविधान यह नहीं कहता कि सिर्फ हिन्दू यहां रह सकते हैं या यहां सिर्फ हिन्दुओं की बात सुनी जाएगी और यदि आपको यहां रहना है तो हिन्दुओं की उच्चता को स्वीकार कर रहना होगा। हमने उन्हें रहने के लिए जगह दी। हमारे देश की यही प्रकृति है और इस प्रकृति का नाम हिन्दू है।

एक इतिहासविद् का मुखौटा पहनते हुए उन्होंने यह भी कहा की अकबर के विरूद्ध लड़े गए युद्ध में राणा प्रताप की सेना में मुसलमान भी शामिल थे। यह इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि जब भी भारत की संस्कृति पर हमला हुआ तब सभी धर्मों के मानने वालों ने एक होकर उसका मुकाबला किया।

उन्होंने राम मंदिर को हमारे देश के राष्ट्रीय मूल्यों और चरित्र का प्रतीक बताया। ये सब बातें आरएसएस, जो देश के अंदर और देश के बाहर भी हिन्दू संप्रदायवाद का संरक्षक है, की आलोचना को भटकाने का प्रयास हैं।

पिछले कई दशकों से मुसलमानों की स्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। इसके लिए राम मंदिर आंदोलन के दौरान निकाली गई यात्रा, गौमांस के नाम पर लिंचिंग, कथुत रूप से लव जिहाद के नाम पर दी जा रही धमकियां और घर वापसी का अभियान जिम्मेदार हैं।

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नुकसानदेह विचारधारा

अभी हाल में लोकतांत्रिक तरीके से चलाए जा रहे दिल्ली के शाहीन बाग आंदोलन का उपयोग मुसलमानों को आतंकित करने के लिए किया गया। इस आंदोलन के बाद हुई हिंसा में बड़ी संख्या में मुसलमानों की जानें गईं और उनके धार्मिक स्थलों और संपत्ति को भारी नुकसान हुआ।

सांप्रदायिकता को आज कमज़ोर वर्गों को नुकसान पहुँचाने वाली विचारधारा के रूप में देखा जा रहा है और इसलिए अब श्री. भागवत भारतीय संविधान को याद कर रहे हैं। भागवत उस संविधान को याद कर रहे हैं जिसकी संघ परिवार के नेताओं ने हमेशा निंदा की है और उसे हमारे देश के लिए इसलिए अनुपयुक्त बताया है क्योंकि उसका आधार विदेशी मूल्य हैं। इसके विपरीत, शाहीन बाग आंदोलन का मुख्य आधार भारतीय संविधान की उद्देशिका थी।

क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि भारतीय संविधान बहुलवादी और लोकतंत्रात्मक भारत चाहता है जबकि आरएसएस भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है। भारतीय संविधान की नजर में कोई धर्म न तो विदेशी और न देशी।

सभी धर्म सर्वव्यापी हैं और इसलिए संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को किसी भी धर्म को मानने और उसका प्रचार करने का अधिकार देता है। हमारा संविधान हमें यह आज़ादी भी देता है कि कि हम किसी भी धर्म को न मानें।

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राष्ट्रीयता में धर्म का संबंध नही

आरएसएस के सरसंघचालक शायद यह नहीं जानते कि आज़ादी के आंदोलन के दौरान राष्ट्रीयता और धर्म के बीच कोई संबंध नहीं था। हमारे देश के आज़ादी के आंदोलन में विभिन्न धर्मों को मानने वालों और किसी भी धर्म को न मानने वालों ने कंधे से कंधा मिलाकर भाग लिया था।

शायद सरसंघचालक यह भी नहीं जानते होंगे कि दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में बुद्ध धर्म, वहां का मुख्य धर्म है। बौद्ध धर्म की उत्पत्ति भारत में हुई थी परंतु आज वह अन्य देशों का मुख्य धर्म है।

भागवत के संगठन का मुख्य वैचारिक आधार इतिहास की सांप्रदायिक विवेचना है। जब वे यह कहते हैं कि भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए मुसलमानों ने अकबर के विरूद्ध महाराणा प्रताप का साथ दिया था तब वे इतिहास की विकृत व्याख्या की पराकाष्ठा कर रहे होते हैं।

राणा प्रताप किस तरह भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते थे? वे तो केवल मेवाड़ के राजा थे। अकबर और राणा प्रताप के बीच हुए युद्ध का भारतीय संस्कृति से क्या लेनादेना है? अकबर क्या सभी मुस्लिम राजा, जिन्होंने इस देश पर शासन किया, वे इस देश का अभिन्न भाग बन गए।

विशेषकर अकबर तो विभिन्न धार्मिक आस्थाओं वाले समाज के हिमायती थे और शायद इसलिए उन्होंने सुलह-ए-कुल अर्थात विभिन्न धर्मों की समरसता के सिद्धान्त का अनुसरण किया। हाकिम खान सूर एक मुसलमान होते हुए भी राणा प्रताप की सेना का हिस्सा थे जो भारतीय संस्कृति की रक्षा कर रही थी! फिर राजा मानसिंह, जो अकबर की फौज का नेतृत्व कर रहे थे, किसकी रक्षा कर रहे थे?

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एक बड़ा मजाक  

इतिहास की संघी विवेचना के अनुसार, राणा प्रताप और शिवाजी हिन्दू राष्ट्रवाद के हीरो हैं। शायद अब उन्हें यह पता चला है कि इन दोनों राजाओं की फौज में मुसलमान थे और उनके प्रतिद्वंद्वी मुस्लिम राजाओं की फौज में हिन्दू योद्धा थे। सच पूछा जाए तो उनके बीच हुए युद्धों का भारतीय संस्कृति की रक्षा से कोई लेनादेना नहीं था।

वास्तविकता तो यह है कि इस दौरान भारतीय संस्कृति खूब फली-फूली जिसका उल्लेख करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने उसे गंगा-जमुनी तहजीबबताया है (नेहरु के अनुसार यह दौर बहुलता एवं समन्वय का शिखर था)। इस दरम्यान भक्ति और सूफी परंपराओं की जड़ें मजबूत हुईं। ये दोनों परंपराएं जीवन के मानवीय मूल्यों पर जोर देती हैं।

जहां तक राम मंदिर को राष्ट्रीय मूल्यों और संस्कृति का प्रतीक बताए जाने का सवाल है, हमें डॉ भीमराव अम्बेडकर की रिडल्स ऑफ़ राम एंड कृष्णको याद करना चाहिए। शूद्र शंबूक की हत्या तब करने जब वह तपस्या कर रहा था, बाली को छिप कर मारने और अपनी गर्भवती पत्नी को सिर्फ संदेह के आधार पर घर से निकलने के लिए पेरियार ने राम की जबरदस्त आलोचना की है।

भारतीय राष्ट्रवाद के वास्तविक प्रतीक आज़ादी का आंदोलन और भारतीय संविधान हैं। भारतीय संविधान धर्म, जाति, क्षेत्र एवं भाषा के भेद के बिना सभी को समान नागरिक अधिकार देता है।

असली समस्या यह है कि सांप्रदायिक चिंतन के अनुसार भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और ईसाई व मुसलमान विदेशी हैं। आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक गोलवलकर अपनी पुस्तक बंच ऑफ़ थाट्समें इन्हें देश का आंतरिक शत्रु मानते हैं।

यह कहना कि भारतीय मुसलमान, हिन्दुओं के कारण दुनिया में सर्वाधिक प्रसन्न और संतुष्ट हैं, मजाक के अलावा और कुछ नहीं है। दिन-प्रतिदिन उनके विरूद्ध बढ़ती हिंसा, उनका अपने मोहल्लों में सिमटते जाना और उनके राजनैतिक प्रतिनिधित्व में सतत कमी दूसरी ही कहानी कहते हैं।

इस सबके चलते मीडिया का एक हिस्सा मुस्लिम समुदाय को कोरोना जिहाद करने वाला कोरोना बम बताता है और इसी तारतम्य में सुदर्शन चैनल सिविल सर्विसेज में उनके चार प्रतिशत प्रतिनिधित्व को जामिया जिहाद और भारत की सिविल सर्विस पर कब्जा जमाने का षड़यंत्र बताता है!

भारतीय मुसलमानों को दुनिया में सबसे सुखी और संतुष्ट बताना मुसीबतों से घिरे इस समुदाय के घावों पर नमक रगड़ने जैसा है। यह समुदाय संवैधानिक मूल्यों के आधार पर अपने जीवन जीने का प्रयास कर रहा है, जैसा कि शाहीन बाग आन्दोलन से जाहिर है। 

 

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