महमूद ग़ज़नवी मध्य अफ़ग़ानिस्तान में केन्द्रित गज़नवी राजवंश के एक महत्वपूर्ण शासक थे। जिसे अपना राजपाट और उसकी व्यवस्था चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती थी, जिसे अफगानिस्तान जैसे बंजर और रेगिस्तानी क्षेत्र से पाना संभव ही नहीं था। इसी धन को पाने के लिए वह आस-पास के राज्यों पर आक्रमण करते थे।
कम लोगों को पता होगा कि अकूत हीरे-जवाहरात से भरपूर सोमनाथ पर हमला करने के पूर्व महमूद ग़ज़नवी ने मुल्तान पर हमला किया था। यह हमला करने के लिए उन्होंने थानेसर के राजा आनंदपाल से मदद माँगी थी। हालाँकि आनंदपाल ने मुल्तान के शासक से अपने संबन्धों के कारण मना कर दिया।
महमूद ग़ज़नवी ने मुल्तान के शासक अबुल फहद दाऊद को परास्त करके मुल्तान की सारी संपदा अपने कब्ज़े में कर ली। बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों की हत्या की और मुल्तान के शासक को गिरफ्तार कर लिया। जिसकी मौत ग़ज़नवी के ही कैदखाने में हुई।
यही नहीं, मुल्तान की लड़ाई के पहले ग़ज़नवी ने घौण के राजा मुहंमद बिन थूरी पर हमला किया और उस राज्य की सारी संपदा पर कब्ज़ा कर लिया।
दरअसल भारत के दक्षिणपंथी और वामपंथी इतिहासकारों की नज़र में महमूद ग़ज़नवी मुख्य रूप से एक अत्याधिक लालची आक्रमणकारी या लुटेरा दिखा। जबकि ना तो वह इस देश में अपने धर्म का प्रचार करने आया ना उसने खिलजी, बलबन और मुगल की तरह यहाँ अपना साम्राज्य खड़ा किया।
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धन प्राप्त करने की मंशा
ग़ज़नवी ने जैसा की अन्य राज्यों पर आक्रमण किया वैसे ही सोमनाथ पर भी आक्रमण किया, उसकी मंशा केवल उस मंदिर में एकत्रित धन प्राप्त करने की थी, वह धन किसी राजा के घर होता, महमूद ग़ज़नवी वहाँ आक्रमण करता।
इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसार “धर्म को तब कोई महत्व नहीं दिया जाता था, जबतक कि वह किसी निश्चित राजनैतिक उद्देश्य की पुर्ति नहीं करता था।”
इतिहास में दर्ज है कि एक बार अलाउद्दीन खिलजी ने काज़ी मुगीज़ से शरियत को लेकर सवाल पूछे, काज़ी ने अलाउद्दीन को बताया कि शरियत के अनुसार एक शासक को क्या-क्या करना चाहिए और क्या नहीं।
अलाउद्दीन बोले, “आपके अनुसार तो मेरे सभी कृत्य शरियत के खिलाफ हैं, मेरे राज के सभी कानून शरियत के खिलाफ़ हैं।”
कहने का मतलब यह है कि उस समय के कोई भी बादशाह तथा राजा की पहली प्राथमिकता धर्म नहीं बल्कि अपने राज सिंहासन और साम्राज्य को सुरक्षित रखना होता था।
एक उदाहरण से इसे समझिए, जब थानेसर के राजा आनंद पाल को पता चला कि महमूद ग़ज़नवी आक्रमण करने आ रहा है, तब उस समय के सबसे मज़बूत राजपूत राजा आनंद पाल ने महमूद को 50 हाथी देने की पेशकश की और कहा कि वह थानेसर पर आक्रमण ना करे।
लेकिन सुलतान महमूद ग़ज़नवी ने अपनी योजना को बदलने से इंकार कर दिया। महमूद ग़ज़नवी की इस खुली घोषणा के बावजूद आनंदपाल ने उनके आगमन पर 2000 सैनिकों का लष्कर भेजा और अपने व्यापारी तथा दुकानदारों से ग़ज़नवी की सेना को रसद मुहैय्या कराने का आदेश दिया।
दरअसल, पहले धर्म को लेकर राजा या बादशाह कभी लड़ाई लड़ते ही नहीं थे, यह लड़ाई तो इतिहासकारों की पैदा की गयी है।
राणा सांगा ने ही अपने मदद के लिए बाबर को भारत बुलाया, आनंदपाल ने ग़ज़नवी को तो तमाम राजा युद्ध जीतने के लिए मुगल शहंशाह अकबर की मदद लेते ही रहे हैं।
तो सवाल यह है कि उस दौर में क्या हिन्दू राजा कमज़ोर थे ? जवाब होगा कि नहीं, बस वह किसी और पर आक्रमण करने की जगह खुद के साम्राज्य को बचाने के लिए युद्ध किया करते थे।
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हिन्दू राजा हारे क्यों ?
हिन्दुओं की पराजय का कारण बतलाते हुए यह कहा जाता है कि हिन्दू राजा इसलिए हारे कि वे गर्म देश में रहते थे और मांस खाना उन्होंने छोड़ दिया था। इसके विपरीत, मुसलमान ठंडे देश से आए थे और मांसाहारी होने के कारण उनमें शारीरिक बल भरपूर था।
दूसरा कारण यह है कि युद्ध में हिन्दू अपने लस्टम-पस्टम हाथियों का भरोसा रखते थे जो फुर्तीले घुड़सवारों के मुकाबले में निकम्मे निकलते थे। दरअसल हर्षवर्द्धन के बाद भारत में कोई राजा नहीं बैठ सका। केन्द्र की शक्ति टूट गयी और कोई किसी को रोकने वाला न रहा।
परिणाम यह हुआ कि सारे देश में छोटे-छोटे राज्य उठ खड़े हुए और वे, आपस में ही, युद्ध करने को अपना परम कर्तव्य मानने लगे। भारत का अर्थ उनका अपना राज्य था। फिर, वे राज्य से बाहर जाकर क्यों लड़ते ? बाहर तो उनका अपना नहीं, किसी दूसरे राजा का राज्य पड़ता था।
प्रायः, प्रत्येक राजा को प्रत्येक दूसरे राजा से कुछ-न-कुछ शिकायत थी, जिसके कारण, कोई भी चार राजे एक राजा का साथ देने को तैयार नहीं थे। पृथ्वीराज और राणा सांगा को कुछ राजाओं का जो सहयोग प्राप्त हो गया था, उसे हिन्दू-स्वभाव के अपवाद का ही उदाहरण समझना चाहिए।
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सहायता से इनकार
‘जय सोमनाथ’ नामक किताब में नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल रहे दक्षिणपंथी विचारक के. एम. मुन्शी ने लिखा है, “जब गज़नी का अमीर सोमनाथ पर चढ़ाई करने चला, तब उसे खबर मिली कि झालोर के राजा वाक्पतिराज अगर दोस्त न बनाये गए तो वे अमीर की सेना को काफी कष्ट दे सकते हैं।
अमीर ने मुलतान के अजयपाल को अपना दूत बनाकर वाक्पतिराज के यहाँ भेजा और उन्हें आश्वासन दिया कि अमीर उनके राज्य पर चढ़ाई करना नहीं चाहता है।
वाक्पतिराज अमीर की बात मान गए और लड़ाई में तटस्थ रहने का उन्होंने वचन भेज दिया। इसके बाद, जब यह तय हुआ कि वल्लभी के राजा भीमदेव के नेतृत्व में राजपूत वीर अमीर का डट कर सामना करेंगे और सोमनाथ के मन्दिर को बचाएँगे, तब भीमदेव ने अपने मंत्री को वाक्पतिराज के यहाँ सहायता की माँग के लिए भेजा।
सोमनाथ की रक्षा के लिए सहायता की माँग की जाने पर वाक्पतिराज ने कहा. “अभी पिछले की ही बात है कि मैं मारवाड़ पर चढ़ाई करना चाहता था और उसके लिए मैंने भीमदेव से मदद माँगी थी किन्तु, भीमदेव ने यह कहकर सहायता देने से इनकार कर दिया कि मारवाड़ उसका नातेदार है। आज मुझसे वह मदद क्यों माँगता है? अपनी विपदा वह आप झेले।”
कहने का मतलब यह है कि सोमनाथ मंदिर जैसे आज सारे बहुसंख्यकों की आस्था का केन्द्र है तब ऐसा नहीं था वरना उसे बचाने सारे हिन्दू राजा एक होकर महमूद ग़ज़नवी का मुकाबला करते।
दरअसल उस काल में हिन्दू राजाओं में राजनैतिक चेतना का अभाव था और हिन्दू राजा जन्मजात अहिंसक थे।
अपनी सीमा के बाहर जाकर लड़ने की उनके यहाँ परम्परा नहीं थी। “सबसे उत्तम रक्षा यह है कि आक्रामक पर उसके घर में हमला करो।”
इस नीति पर हिन्दुओं ने कभी भी अमल नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि रक्षात्मक युद्ध लड़ने की उनकी आदत हो गई।
अपनी और अपने राज्य की रक्षा के लिए उन्होंने शक्तिशाली बादशाहों और मुगलों से मदद माँगी और मदद ली।
जब तब उन्होंने उनका धर्म नहीं देखा तो अब इतिहासकार क्यों उनका धर्म लोगों को दिखा रहे है ? इतिहास के नाम पर क्यों सांप्रदायिकता फैलाई जा रही है ?
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लेखक राजनीतिक विशेषक और स्वतंत्र टिपण्णीकार हैं।