शाहजहाँ का उदय नूरजहाँ की हिमायत के वजह से नही बल्कि उसकी काबिलियत और कारनामों के वजह से हुआ था। शाहजहाँ की अपनी महत्वाकांक्षाएं थी जिनसे जहाँगीर बेखबर नही था।
उन दिनों कोई शासक ये जोखिम नही उठाता था कि कोई अमीर या राजकुमार शक्तिशाली बने, जिससे वह सत्ता को चुनौती देने लगे। जहांगीर और शाहजहाँ के टकराव की बुनियादी वजह यही थी।
शाहजहाँ के बगावत की तात्कालिक वजह शाहजहाँ का कंदहार जाने से इंकार थी जिसे ईरानियों ने घेर रखा था। शाहजहाँ को डर था कि यह अभियान लंबा और मुश्किल होगा। इस बिच दरबार से उसकी गैरहाजिरी में उसके खिलाफ षड्यंत्र रचे जाएंगे।
उसने एक तरकीब सोची और कई माँगें पेश की, जिसमें दकन के अनुभवी जंग के सिपहेसालारों समेत सेना पर पूरा नियंत्रण, पंजाब पर पूरा वर्चस्व, अनेक महत्त्वपूर्ण किलों पर नियंत्रण इस तरह की माँगे उसमें थी।
शाहजहाँ के इस रवैये से जहाँगीर आग बबूला हो उठा। शहज़ादा बगावत करने की सोच रहा है, इस बात का भरोसा करके जहाँगीर ने उसे तिखे खत लिखे और दंडात्मक कदम उठाए, जिसके कारण स्थिति और बिगड़ी तथा खुले रूप में आपसी रिश्तों मे खटास आयी।
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ससूर ने बाहर खदेड़ा
शाहजहाँ मांडू से (जहाँ वह ठहरा हुआ था) एकाएक आगरा की ओर वहाँ के खजाने पर कब्जा करने के उद्देश्य से बढ़ा। उसे दकनी सेना का और वहाँ नियुक्त सभी अमीरों का पूरा-पूरा समर्थन मिला था।
गुजरात और मालवा ने उसकी तरफ़दारी का ऐलान कर दिया था। उसे अपने ससूर आसफ़ खान का और दरबार के अनेक महत्त्वपूर्ण अमीरों का समर्थन था।
लेकिन दिल्ली के पास हुई लड़ाई में महाबत खान के नेतृत्व वाली सेना ने शाहजहाँ को मात दे दी। मेवाड़ के दस्ते के शौर्यपूर्ण रवैये के कारण वह पूरी हार से बच गया।
शाहजहाँ से गुजरात छीनने के लिए एक और सेना भेजी गई। शाहजहाँ का पीछा करके उसे मुगल क्षेत्रों से बाहर भगा दिया गया और उसे पिछले शत्रुओं यानी दकनी राजाओं के यहाँ शरण लेने पर मजबूर होना पड़ा।
लेकिन शाहजहाँ दकन पार करके उड़ीसा में जा पहुँचा। एकाएकी हमला कर वहाँ के सुबेदार को हरा दिया और जल्द ही बंगाल और बिहार उसने अपने कब्जे में ले लिए। यहाँ बादशाह कि और से महाबत खान की सेवा फिर से ली गई। उसने जोरदार कदम उठाए और शाहजहाँ को फिर दकन में शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया।
इस बार शाहजाहाँ ने मलिक अंबर के साथ गठजोड़ कर लिया। मलिक एक बार फिर मुगलों से जंग कर रहा था। ज्यादा वक्त बितने से पहले जल्द ही शाहजहाँ ने जहाँगीर को माफीनामे भेजे। माफी की गुहार लगाते हुए कई खत लिखे। जहाँगीर को भी लगा कि अपने सबसे काबिल और बहादूर बेटे को माफ करने का और उससे सुलह करने का समय यही है।
बादशाह ने एक समझौते के तहत शाहजहाँ को माफी दे दी। तय हुए समझौते के अंतर्गत शाहजहाँ ने अपने दो बेटे दारा और औरंगजेब को बंधक के तौर पर में जहाँगीर के दरबार में भेजा दिया। जिसके बाद शाहजहाँ को खर्च के लिए दकन का एक भाग दिया गया। यह ईसवीं सन 1626 की बात रही हौंगी।
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बगावत का संदेश
शाहजहाँ के बगावत ने सल्तनत को चार सालों तक अस्तव्यस्त रखा। इस वजह से कंदहार हाथ से निकल गया। इधर दकनी सुलतानों को भी अकबर के काल के और बाद के अभियानों के दौरान मुगलों को सौंपे गए सभी इलाके वापस लेने का मौका मिल गया।
इससे मुगल साम्राज्य की एक बुनियादी कमजोरी भी जाहिर हो गयी। जैसे एक राजकुमार सत्ता को चुनौती दे सकता हैं। जब बादशाह सत्ता के अनुरूप व्यवहार करने में समर्थ नहीं है या इच्छुक नहीं है, तब बादशाह के खिलाफ बगावत हो सकती हैं।
जहाँगीर के बिगड़ते स्वास्थ्य के वजह से दरबार की पूरी शक्ति नूरजहाँ बेगम के हाथों में चली गई थी। वैसे शाहजहाँ ने यह इलजाम लगाया भी था। बादशाह के लिए इस इलजाम को कबुल करना मुश्किल था। क्योंकि शाहजहाँ का ससूर आसफ खान सल्तनत का दीवान था।
बुरे सेहत के बावजूद जहाँगीर दिमागी रूप से सजग था और उसकी इजाजत के बिना सल्तनत में कोई फैसला नहीं लिया जा सकता था।
जहाँगीर की बीमारी ने एक और खतरा भी पैदा कर दिया था कि सर्वोच्च सत्ता अपने हाथों में लेने के लिए कोई महत्त्वाकांक्षी अमीर हालात का फायदा उठा सकता हैं।
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दीवान ने जहाँगीर को बनाया बंदी
महाबत खान, जिसने शाहजहाँ के बगावत से निबटने में एक अग्रणी भूमिका निभाई थी, खामोश बैठा था। क्योंकि शाहजादे की बगावत खत्म होने के बाद दरबार में कुछ लोग उसके पर कतरने की कोशिश कर रहे थे।
हालात साफ करने के लिए दरबार में बुलाए जाने पर महाबत खान राजपूतों के एक विश्वसनीय दल के साथ आया। जब शाही लश्कर काबुल जाते हुए झेलम को पार कर रहा था तभी मौका देखकर उसने बादशाह जहाँगीर को बंदी बना लिया।
इसी बिच नूरजहाँ बेगम नदी पार करके निकल भागी। जवाब में महाबत खान पर हमला किया गया जो बुरी तरह नाकाम रहा। नूरजहाँ ने अब दूसरी कोशिश का सहारा लिया। जहाँगीर के करीब रहने के लिए उसने महाबत खान के आगे हथियार डाल दिये।
महाबत खान कोई कूटनीतिज्ञ या प्रशासक नहीं, एक सैनिक था। जल्द ही उसकी गलतियों जल्द फायदा नूरजहाँ ने उठाया। महाबत खान के प्रति राजपूत सैनिकों में नाराजगी बढ़ रही थी। इसका फायदा उठाते हुये नूरजहाँ ने महाबत के हिमायती और अमीरों को अपनी ओर कर लिया।
अपनी नाजुक हालात को महसूस करके महाबत खान ने जहाँगीर को छोड़ दिया और खुद दरबार से भाग खड़ा हुआ। कुछ समय बाद महाबत खान दकन में शाहजहाँ से जा मिला। शहजादा वहाँ अपना समय आने का इंतजार कर रहा था।
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और शाहजहाँ को मिला तख्त
महाबत खान की हार नूरजहाँ की सबसे बड़ी जीत थी। लेकिन ये सफलता कम समय तक ही रही। क्योंकि साल भर से कम समय में लाहौर से कुछ ही दूरी पर जहाँगीर ने (1627 में) दम तोड़ दिया।
आसफ खान धूर्त और चालाक था। उसे जहाँगीर ने अपना ‘वकील’ मुकर्रर किया था। पर वह अपने दामाद शाहजहाँ की तख्तनशीनी के लिए सावधानी के साथ जमीन तैयार कर रहा था। जहाँगीर के मौत के बाद खुलकर सामने आ गया।
दीवान, प्रमुख अमीरों और सेना के समर्थन से उसने नूरजहाँ को लगभग कैदी बनाकर रख दिया और शाहजहाँ को फौरन बुला भेजा। शाहजहाँ आगरा पहुंचा और भारी जश्न के बीच तख्त पर बैठा। इससे पहले शाहजहाँ के इशारे पर उसके गिरफ्तार भाई, रिश्ते के चचेरे भाई आदि समेत उसके सभी प्रतिद्वंद्वी मौत के घाट उतारे जा चुके थे।
इस मिसाल ने आगे चलकर और भी इतिहास बनाए। पहले बाप के खिलाफ़ बेटे के बगावत की मिसाल, जिसे जहाँगीर ने कायम किया था और शाहजहाँ ने अपनाया था, आगे चलकर मुगलिया खानदान के लिए बड़े डरावने नतीजे पैदा हुये। शाहजहाँ ने जो पौधा लगाया था उसके कड़वे फल उसे भी चखने पड़े।
रही नूरजहाँ, तो तख्त पर बैठने के बाद शाहजहाँ ने उसके खर्चे के लिए एक तयशुदा रकम का बंदोबस्त कर दिया। अपने मौत तक यानी 18 साल तक वह एकांत जीवन जीती रही और लाहौर में दफ़नाई गई।
*सतीशचंद्र के ‘मध्यकालीन भारत’ कीताब के आधार पर ये आलेख तैयार किया गया हैं।
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