लखनऊ के गन्ना संस्थान के हॉल में 2 जुलाई 1990 को ‘पयामे इन्सानियत’ अधिवेशन आयोजित किया गया था। उसमें इस फोरम के संस्थापक और धार्मिक विद्वान मौ. अबुल हसन अली नदवी (अली मियाँ) ने एक भाषण दिया था।
जिसे बाद में ‘पयामे इन्सानियत फोरम’ ने एक पुस्तिका के रुप में प्रकाशित किया था। सामाजिक सौहार्द के जरुरत पर बल देती ये तकरीर कई मायनों में महत्त्वपूर्ण हैं। तीस साल पुराना ये भाषण आज भी प्रासंगिक नजर आता है। ये तकरीर हम आपके लिए दे रहे हैं।
[अध्यक्ष जी और भाइयो, देश एवं विदेश में आयोजित होने वाले अलग-अलग सेमिनारों मे शामिल होने वाले एक शख्स की हैसियत से मेरा यह तर्जुबा रहा है कि जिस सभा में बड़ी तादाद में प्रमुख, प्रतिष्ठित एवं गणमान्य नागरिक हाजिर हों, अलग-अलग नाम लेकर उनको मुबारक बात देना और उनसे मुखातिब होते हुए बात शुरू करना खतरनाक काम है।
यदि एक नाम भी छूट गया तो शर्मसार होना पड़ता है। इसलिए मैं सभी महानुभावों और श्रोताओं को सामूहिक रूम से संबोधित करते हुए कहता हूँ कि इस मजलीस को देखकर मेरा दिल खुशी से झुम उठा हैं।
मैं साफ कहता हूँ कि जब इतने जिम्मेदार और प्रतिष्ठित महानुभाव मानवता के खत्म होते इन्सानियत के दर्द को महसूस करें और इसमे इतनी रूचि लें तो इस देश के बारे में मायूस होने का कोई वजह नहीं। पर इसके बारे में कोई पेशनगोई नहीं की जा सकती है।
हजरात, गलती सबसे होती है। इन्सान ही गलती करता है। पत्थर गलती नहीं करता। पेड़ गलती नहीं करता। बीमार होना भी अस्वभाविक और अप्राकृतिक नहीं होता। कौमों, मुल्कों, हुकूमतों और समाजों का इतिहास गलती के दृष्टांतों से भरा हुआ है, पर जो चीज खतरनाक है वह यह है कि गलती को गलती माना ही न जाये। गलती को महसूस न किया जाये। फिर उसके बाद दूसरी बात यह है कि फिर उस गलती को हिम्मत करके बताया ही न जाये।
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अब उम्मीद बनती है और उम्मीद पैदा होती है कि हम आप सब गलती को गलती समझ रहे है। किसकी गलती? मैं किसी दल किसी गुट का नाम नहीं लूंगा। हम किसी का नाम नहीं लेते। लेकिन कहते हैं गलती हुई। संसार में सर्वश्रेष्ठ मर्तबा धर्मों का है। उसके बाद संस्कृतियाँ, कल्चर, देश और समाज आते हैं। यह सब के सब इसी कारण बचे है कि गलती को गलती कहने वाले लोग वक्त पर पैदा हो गये।
मेरी इस बात पर भी आप ध्यान दें कि वक्त पर पैदा होना भी जरुरी है। समय निकल जाने के बाद तनकीद (आलोचना) और कबुलियत से कुछ ज्यादा फायदा नहीं होता। हजरात मेरे पास समय कम है। मुझे इसके लिए माफ किया जाये कि मैं इतिहास का एक विद्यार्थी हूँ। मेरा ध्यान अतीत की ओर जाता है और पीछे की ओर लौटता है। यह इतिहास के बीते हुए घटनाक्रम के दृष्यों को अपने सामने लाता है।
मुझे वह दिन याद आ रहा है कि 17 नवंबर, 1946 की तारिख थी और दिल्ली में मरहूम डॉ. जाकिर हुसैन खान (पूर्व राष्ट्रपति), जो उस समय जामिया मिल्लिया (नई दिल्ली) के शेखुल जामिया (कुलपति) थे, उनके दावत पर भारत की राजधानी दिल्ली में, इतिहास के अपने अध्ययन के बल पर मैं कह सकता हूँ कि उस समय आयोजित समारोह में ऐसी श्रेष्ठ और चयनित विभूतियों डाइस पर नज़र आ रही थी, जो मेरी जानकारी में इससे पूर्व और न इसके बाद देखने में आयीं।
मेरी आँखें देख रही हैं कि सामने एक ओर पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, राजगोपालाचार्य जी बैठे हुये हैं। दूसरी ओर मिस्टर जिनाह, नवाब लियाकत अली खाँ और सरदार अब्दुर्रर नश्तर बैठे हुये हैं।
उनके पीछे डाइस पर भारत की बड़ी प्रसिद्ध विभूतियों, प्रबुद्धजन, लेखक, चिंतक, साहित्यकार और बुद्धिजीवी विराजमान है, जिनमें अल्लामा सैय्यद सुलेमान नदवी, सर शेख अब्दुल कादिर – संपादक मासिक पत्रिका मखजन लाहौर, मुहंमद असद साहब, बाबा-ए-उर्दू अब्दुल हक, प्रसिद्ध शायर हफीज जालंधरी तथा मुस्लिम आलिमों और धर्माचार्यों में मौलाना कारी मुहंमद तैयब साहब, प्राचार्य – दारुल उलूम देवबंद, मौलाना हिफजुर्रहमान साहब – नाजिम जमीयत उलेमा ए हिन्द और अनेक शीर्ष राजनीतिज्ञ तथा स्वाधीनता संग्राम सेनानी बैठे हुये हैं।
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यह भव्य एवं प्रतिष्ठित जनसमूह सामने बैठा हुआ था और स्थिति यह थी कि दिल्ली में (सांप्रदायिक दंगे के कारण) छुरी और चाकूबाजी की घटनाएं हो रही थीं। हम लोग जो बाहर से मेहमान की हैसियत से आये थे, (नसीब से मै भी उनमें शामिल था) हम लो
ग पुलिस और जन-सेवकों के हिफाजत में अपने निवास स्थल तक पहुँचाये गये थे।
मरहूम डॉ. जाकिर हुसैन ने उस समय भव्य जनसमूह को संबोधित करते हुये जो कुछ कहा था, मै समझता हूँ कि उससे बेहतर, उससे अधिक प्रभावी और साहित्यिक भाषा एवं शैली में कहना मेरे लिए कठिन है। मुझे अध्यक्ष जी इजाजत दे कि मैं उनके भाषण का एक उद्धरण (Quotation) आप हज़रात को सुना दू, जैसे लग रहा हो कि इस वर्तमान स्थिति का द्योतक है।
डॉ. जाकिर हुसैन ने कहा, “आप सभी मोअज्जिज सियासी आसमाँ के तारे हैं। लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के दिल में आपके लिए इज्जत रवां है। आप की यहीं मौजूदगी का फायदा उठाकर मैं तालिमी काम करनेवालों की ओर से बड़े ही दुख के साथ कुछ अलफ़ाज कहना चाहता हूँ।”
आज देश में आपसी नफरत की आग भड़क रही है। इसमें हमारा चमनबन्दी का काम दीवानापन मालूम होता है। यह शराफत और इन्सानियत के जमीर को झुलसा देती है। इसमें नेक और संतुलित स्वभाव की विभूतियों के नये फुल कैसे खिला करेंगे?
जानवर से भी ज्यादा नीच बर्ताव पर हम मानवीय सदाचरण को कैसे संवार सकेंगे? इसके लिए जन – सेवक कैसे पैदा कर सकेंगे? जानवरों की दुनिया में मानवता को कैसे संभाल सकेंगे ये अलफाज कुछ तिखे लगते हों, पर ऐसी हालातों के लिए, जो हमारे चारों ओर फैल रही है, इससे कठोर शब्द भी बहुत नर्म होते हैं।”
“हम जो काम के तकाज़ों से बच्चों का सम्मान करना सीखते हैं, उनको क्या बतायें कि हम पर क्या गुज़रती है? जब हम सुनते हैं कि वहशीयत के इस आफत में बेकसूर बच्चे भी सुरक्षित नहीं है। शायरे हिन्द ने कहा था कि हर बच्चा, जो संसार में आता है, अपने साथ यह संदेश लाता है कि खुदा अभी इन्सान से निराश नहीं हुआ।”
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“लेकिन क्या हमारे देश का इन्सान अपने आपसे इतना निराश हो चुका है कि इन निर्दोष कलियों को भी खिलने से पहले ही मसल देना चाहता है? खुदा के लिए सिर जोड़कर बैठिये और इस आग को बुझाइये।
यह समय इस खोज-बीन का नहीं कि आग किसने लगाई? कैसे लगी? आग लगी हुई है। उसे बुझाइये। यह मसला इस कौम और उस कौम के जिन्दा रहने की नहीं, इन्सानी तहेजीब, इन्सानी जिन्दगी और जानवरों के जिन्दगी के बीच का चुनाव है। खुदा के लिए इस देश में सुसभ्य जीवन की बुनियादों को यू ध्वस्त न होने दीजिये।”
(डॉ. जाकिर हुसैन, रजत जयंती समारोह, जामिया मिलिया, 11 नवम्बर 1948; इस समारोह में भाग लेने वालों में से कुछ लोगों का कहना है कि इस संबोधन के समय मौलाना आज़ाद और अगली पंक्ति में बैठे कुछ प्रतिष्ठित नेताओं की आंखों में आंसू तैर रहे थे।)
हज़रात! मैं महसूस कर रहा हूँ कि जिस अंदाज में यह बात आज कही जा रही है, इससे अच्छे अंदाज में कहनी मुश्किल है। इस समय समस्या यह है कि आप इस देश को संभालिये। इस देश में शराफत से जीवन व्यतीत करने, इस देश के प्रतिभाशाली निवासियों को अपनी प्रतिभा दिखाने और इससे बढ़कर अपनी निष्कपटता, अपनी दयाशीलता, मानव-प्रेम और शराफत व सदाचरण को प्रदर्शित करने का उन्हें अवसर दीजिये।
इस देश में खुदा की कृपा से सब कुछ मौजूद है। मैंने केवल भारत का ही नहीं, बल्कि दुनिया का इतिहास भी पढ़ा है। मैं इसकी रौशनी में कहता हूँ कि कोई ऐसा सरमाया और दौलत नहीं है, जो इस देश में न हो या किसी न किसी रास्ते से यहाँ न आई हो। यहां की भूमि और वातावरण ने इसको तरक्की देने, इसकी कदर करने और इसको आगे बढ़ाने की प्रतिभा दिखाई है। आप इस देश को संभालिये और खुदा की इस नेमत की कदर कीजिए।
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मैं यहाँ तक कहूँगा कि इस देश को संसार का नैतिक नेतृत्व करना चाहिए। संसार की महाशक्तियों और बड़े देशों ने अपने को इस काबिल नहीं रखा कि यह कुदरत का नेतृत्व कर सके, बल्कि एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति यह देखता है कि एशिया के उन देशों में बड़ी पश्चिमी शक्तियों के कारण खराबी पैदा हो रही है। यह देश किसी सदाचारी और किसी योग्य नेतृत्व को या किसी अच्छी लीडरशिप को उभरने नहीं देते।
अगर ऐसा नेतृत्व वहाँ पैदा हो जाता है तो वे उसे ज्यादा समय तक बने रहने का मौका नहीं देते और वे वहाँ की राजनीति में हस्तक्षेप करते हैं। वहाँ की आर्थिक एवं नैतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करते हैं।
मैं आपसे साफ तौर पर कहता हूँ कि आज संसार में वह सिंहासन खाली है, जिस पर एक बड़ा देश बैठे और दुनिया को नैतिकता और सच्ची दयाशीलता का पाठ पढ़ाए (वह भी मात्र खुदा के नाम पर लाभ उठाने और प्राणियों पर अत्याचार करने तथा स्वार्थ के लिए नहीं) वरन् खुदा से सही तौर पर डरकर और खुदा की मुहब्बत में (जो कुदरत, कायनात और इन्सान को पैदा करने वाला है) रंग और नस्ल के मतभेद के बिना इन्सानों को सीने से लगाये और उनसे मुहब्बत करे और उनकी खिदमत करे।
आज यह सिंहासन खाली है। मुझे माफ किया जाये, रूस ने इस बारे में अपनी अकर्मण्यता सिद्ध कर दी। वह असफल हो गया। अमरीका असफल हो रहा है। ब्रिटिश असफल हो चुका है।
यूरोप की दूसरी बड़ी शक्तियों सब असफल हो गई। जब कोई कौम, कोई देश अपनी निष्कपटता और नि:स्वार्थता अपनी प्रतिभा और दक्षता, अपनी दयाशीलता और अपने मानव-प्रेम को सिद्ध कर देता है तो उसे जंग की जरुरत नहीं पड़ती। इसके लिए अधिक प्रचार की आवयकता नहीं। इसके लिए तथ्य, निष्कपटता और सच की जरुरत है।
वास्तव में नैतिकता, मानव-प्रेम, स्नेह और निःस्वार्थ सेवा तथा आध्यात्मिकता इस देश की परंपरा रही है और इसने इतिहास के विभिन्न युगों में यह उपहार बाहर भी भेजा है और अब भी भेज सकता है। मैं अपने मुसलमान भाइयों से विशेषरूप से कहूंगा कि इस बारे में उन पर बड़ी जिम्मेदारी है।
कयामत (महाप्रलय) के दिन उनसे पूछा जायेगा कि दुनिया लज रही थी, नैतिकता का कत्ल किया जा रहा था, सतीत्व बरबाद हो रहा था, मान-मर्यादा खत्म हो रही थी और इन्सान का खून सबसे अधिक सस्ता हो चुका था।
तुम बैठे क्या कर रहे थे? तुम्हारी जिम्मेदारी थी कि तुम इस हालात को बदलने की कोशिश करते। तुम्हारी यह जिम्मेदारी सिर्फ भारत ही तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे संसार में बदलाव लाने की तुम पर जिम्मेदारी थी। डॉ. इकबाल ने इस सच्चाई को इस प्रकार वर्णित किया है, हकीकत जिसके दी की एहतिसादे – कायनात
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हजरात! मैं आपसे साफ कहता है कि पयामे- इन्सानियत का CREDIT मैं खुद नहीं लेता। इसका सेहरा मेरे सिर पर बंधा हुआ नहीं है। मेरी प्रतिभा, मेरा अनुभव, मेरी व्यस्थता, मेरी अभिरूचि और मेरा स्वास्थ्य, कोई भी चीज़ इसे बरदाश्त करने योग्य नहीं थी, मगर दिल में एक खटक थी, जिसने मुझे इस पर तैयार किया।
कभी कभी ऐसा होता है कि आग लगती है और आग बुझाने वाले भी होते हैं, पर उन्हें आवाज़ देने वाला कोई नहीं होता। उस समय एक बच्चा भी खड़े होकर आवाज लगाये कि आग लगी है, आग लगी है। उस समय यह नहीं देखा जाता कि किस उम्र के शख्स ने आवाज लगाई।
किसी काबिल शख्स ने आवाज लगाई अथवा किसी नाकाबिल और अनपढ़ शख्स ने। जब आग लगी हो और गाँव या बस्ती जल रही हो तो फिर जो बोल सकता है, उसको बोलना चाहिए। जो दौड़ सकता है, उसे दौड़ना चाहिये। जो दुहाई दे सकता है, उसको दुहाई देना चाहिए।
जिम्मेदारी की इसी अनुभूति ने मुझे मजबूर किया कि इतने बड़े देश में और इतने बड़े-बड़े लोगों की मौजूदगी में यह आवाज लगाऊँ। मुझे इस बात पर फख्र नहीं कि मैने यह आवाज लगाई और मैं यह दावा भी नहीं करता कि सबसे पहले मैंने ही आवाज लगाई। आवाज़ बराबर लगाई जाती रही है। यह हमारे देश का अपमान है और इसके इतिहास को अनदेखा करना है कि यह कहा जाये कि यह आवाज पहली बार लगाई गई है।
मैं नहीं समझता कि कोई सदी खाली गई हो कि यहाँ ऐसा हिम्मतवाला शख्स मौजूद न रहे हों जिन्होंने आवाज लगाई। मैं आपके सामने साफ तौर से कबूल करता हूँ। मुझे यह अंदाजा नहीं था कि मेरी यह कमजोर आवाज इतने बड़े लोगों और इतने पढ़े-लिखे व्यक्तियों को यहाँ संघठित करेगी। यह इस देश की प्रतिभा और उदारता का घोतक है।
मैं अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री (मुलायम सिंह यादव) की इस बात के लिए प्रंशसा करूंगा कि उन्होंने एक ऐसे समय में जब केवल राजनैतिक उद्देश्य, राजनैतिक भाषा और राजनैतिक शैली का चारों ओर बोलबाला है, उन्होंने सैद्धान्तिक एवं नैतिक आवाज़ उठाई और कहा कि “हम कानून को इस प्रकार ध्वस्त होते नहीं देख सकते।
यदि कानून खेल बन गया, न्यायालय के निर्णय खेल बन गये, यदि शांति-व्यवस्था बच्चों का मजाक बन गई तो इस देश में न तो पढ़ा जा सकता है और न लिखा जा सकता है, न मानवता की सेवा हो सकती है और नही इल्मो-अदब की। यह तो बड़ी चीजें है, घर में आदमी आराम से बैठ भी नहीं सकता।”
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आज इस मस्जिद के मामले में, कल उस मंदिर को मामले में इतिहास को जगाया जा रहा है और हज़ार दो हजार साल पहले काफिला जहाँ से चला था, फिर काफिले को वहीं से सफर शुरू करने पर तैयार किया जा रहा है। अगर यह काम भारत में शुरू हो गया तो समस्त निर्माण एवं रचनात्मक कार्य तथा देश के विकास के कार्य बंद हो जायेंगे।
इसलिए मैंने जैसे पहले कहा था, आज फिर कहता हूँ कि इतिहास एक सोया हुआ शेर है। इसको जगाना नहीं चाहिए। आप इसके पास से निकल जाइये। इसको सोता-छोड़ दीजिये। यदि आपने इसको जगा दिया तो फिर इस गलती की कीमत चुकानी पड़ेगी।
इतिहास को पिछले युग में वापस ले जाना और वहाँ से सफर शुरू करना ठीक नहीं है। क्योंकि जब भारत में बाहर से नस्लें आ रही थीं, संस्कृतियां और धर्म आ रहे थे तो हम तत्कालीन परिस्थितियों का उल्लेख करके आज कोई काम, जो इस देश के काम आ सकता है, नहीं कर सकते।
मैं आपके इस प्रकार ध्यान देने, सुनने और आदर व मुहब्बत से पेश आने के लिए शुक्रिया अदा करता हूँ और खुदा से दुआ करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि सांप्रदायिक सौहार्द तथा सह-अस्तित्व के श्रेष्ठ सिद्धान्त के लिए जो कदम उठाया गया है और कोशिशें शुरू की गयी है, वह फलदायक, परिणामकारक और सम्मानजनक हो।
शुक्रिया!]
जाते जाते :
* बिस्मिल्लाह खान देश के वह ‘मुनादी’ जो हर सुबह हमें जगाते हैं
* वतन और कला से मक़बुलियत रखनेवाले एम. एफ. हुसैन