हिन्दूकुश बनाने के लिए उनकी छवि जनेऊ तौलकर ही रात में उनके खाना खाने की बात फैलाई गयी। भयग्रस्त लोगों ने तर्क और तथ्य पर इस बात को परखे बिना यकीन भी कर लिया कि “औरंगज़ेब जब तक देढ़ मन जनेऊ नहीं तौल लेता था, रात का खाना नहीं खाता था।”
जबकि यह बहुत साधारण गणित थी कि 1 मन 40 किलो ग्राम का होता है तो देढ़ मन जनेऊ हुआ 60 किलोग्राम जनेऊ अर्थात 60,000 ग्राम जनेऊ।
सामान्यतः एक ब्राह्मणधारी जनेऊ अधिकतम 2 ग्राम का होता है तो 60,000 ग्राम जनेऊ तौलने के लिए 30 हज़ार ब्राम्हण की प्रतिदिन हत्या करते रहे होंगे औरंगज़ेब!
अर्थात 1 महीने में 30,000×30=9 लाख
अर्थात 1 साल में 90,0000×12= 1 करोड़ 8 लाख
औरंगज़ेब ने भारत पर 50 साल शासन किया तो 50 वर्ष में 10800000×50= 54 करोड़ ब्राह्मण मारे गए होंगे। जिनका उस इतिहास में कोई उल्लेख नहीं। मगर यहीं इतिहास कई हजार साल पहले कलिंगा युद्ध में सम्राट अशोक के द्वारा की गए 5 लाख लोगों की हत्या का ज़िक्र करता है।
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एक और भ्रम
ऐसे ही औरंगज़ेब पर हिन्दुओं पर जज़िया कर लगाने की बात को गलत ढंग से प्रचारित किया गया और यह छिपा दिया गया कि औरंगज़ेब 6 तरीके का टैक्स मुसलमानों से लेता था।
खैरात, ज़कात, फितरा, सदका इत्यादि जैसे 6 कर यदि औरंगज़ेब हिन्दुओं पर ‘एक राज्य, एक कर’ की नीति बनाकर थोप देता, तो दरअसल यह उसका किया गया अन्याय होता कि वह किसी और धर्म की व्यवस्था को दूसरे धर्म पर जबरन थोप दिया।
यदि अपने राज्य के हिन्दुओं पर इस्लामिक व्यवस्था थोप भी दिया होता तो कोई उसका क्या कर लेता ? पर नहीं, उसने इसके अतिरिक्त हिन्दुओं के लिए एक ही अलग कर व्यवस्था ‘जज़िया’ लागू किया। मंदिर के पुजारियों समेत तमाम अन्य ब्राह्मणों को इस कर व्यवस्था से मुक्त रखा। मगर जज़िया कर को इतिहासकारों ने अत्याचार का प्रतीक बना दिया।
ऐसे ही उनको अपने भाईयों की हत्या करके सिंहासन प्राप्त करने वाला बताया गया, पिता शाहजहाँ को कैद कर लेने वाला बताया गया। यह छुपा लिया गया कि उनके पिता, उनकी बहन जहाँआरा और अन्य भाईयों ने मिल कर बचपन में ही उनकी हत्या की साजिश रची थी।
दक्षिण से उनको पिता की बिमारी के बहाने बुलावा भेजा और घात लगाकर जमुना नदी के तट पर हमला कर दिया जिसमें औरंगज़ेब को जीत मिली और उनके भाई मारे गए।
यह भी छिपा दिया गया कि अपने पिता को उन्होंने आगरा के लाल किला की सबसे बेहतरीन हवादार जगह रखा जहाँ से ताजमहल साफ दिखाई देता था, शाहजहाँ की देखभाल के लिए नौकरों की जगह अपनी बहन ‘जहाँआरा’ को नियुक्त किया।
इस तथ्य को भी भुला दिया गया कि प्राचीन और मध्ययुग में सत्ता और सिंहासन पर कब्ज़ा सदैव ही रक्तरंजित रहा है। इसमें एक बात क खयाल रखना जरूरी हैं की प्राचीन तथा मध्ययुग ही क्यों ?
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मज़हबी भेदनीति
आधुनिक युग में नेपाल की राजशाही एक ताज़ा उदाहरण है जब एक राजकुमार पारस ने 1 जून 2001 को सिंहासन पर बैठे राजा के सारे परिवार की हत्या करके सत्ता और सिंहासन पर काबिज़ होने की कोशिश की।
इसके कारण में आपको ‘धर्म’ नहीं मिलेगा क्योंकि मरने और मारने वाले दोनों का धर्म ‘इस्लाम’ नहीं है। रक्तरंजित तख्तापलट, साम्राज्य विस्तार या सत्ता हस्तांतरण के लिए युद्ध में ‘धर्म’ तभी एक कारण होगा जब इनमें कहीं ना कहीं ‘इस्लाम’ और ‘मुसलमान’ विजेता होगा।
मुसलमान बादशाह औरंगजेब जंग जीतकर सिंहासन पर बैठा तो वह ज़ालिम, हिन्दुकुश और कट्टर था, जो अपने लोगों को मारकर सिंहासन पर बैठा। मुसलमान बादशाह यदि हार गया तो यह जीतने वाले हिन्दू राजा का पराक्रम और शौर्य की गाथा होगी।
शाहजहाँ और उनके बेटों की हकीकत जानने के लिए आपको यदुनाथ सरकार की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब’ के पृष्ठ संख्या 10 से 11 पढ़ना पड़ेगा।
इसी इतिहास को दो जगह से और प्रमाणित किया जा सकता है, ऐनी मैरी मिशेल की पुस्तक ‘दि एम्पायर ऑफ ग्रेट मुग़ल्स’ में दारा शिकोह और औरंगज़ेब के संबंधों का स्पष्ट चित्रण है, यही नहीं इस घटना का ज़िक्र शाहजहाँ के दरबार के कवि अबू तालिब ख़ाँ ने अपनी कविताओं में किया है। आप उसे भी पढ़ सकते हैं।
हुआ यूँ कि चार बेटों दारा शिकोह, शाह शुजा, औरंगजेब, मुराद बख्श के पिता शाहजहाँ को हाथियों की लड़ाई देखने का बहुत शौक था, लाल किले के सामने से लेकर इत्मादुद्दौला तक ताजमहल के पीछे का पूरा मैदान इसी काम में प्रयोग किया जाता था। शाहजहाँ लाल किले में बैठ कर यह खूनी खेल देखा करता था। इसे इतिहासकारों ने ‘हाथीघाट का इतिहास’ कहा है।
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भाईयों में आपसी रंजीश
शाहजहाँ ने अपने सबसे चहेते बेटे ‘दारा शिकोह’ की शादी का जश्न मनाने का एलान किया। जिस के लिए 28 मई 1633 को लालकिले की परीखा के नीचे ‘हाथी युद्ध’ का आयोजन हुआ। इसमें दो हाथियों ‘सुधाकर’ और ‘सूरत सुंदर’ का युद्ध हुआ।
18 साला दारा शिकोह की यह साजिश थी कि इसी युद्ध में 14 वर्षीय भाई ‘औरंगज़ेब’ की हत्या करा दी जाए और उसने ‘सुधाकर’ हाथी को शराब पिला दी।
जाहिर हैं, युद्ध में यह हाथी सुधाकर भड़क गया और घोड़े पर बैठे औरंगज़ेब की ओर के लोगों को रौदने लगा। और फिर उस हाथी की चपेट में 14 साला औरंगज़ेब और शाहजहाँ के दो बाकी बेटे भी आ गए, जो खतरा देख भाग खड़े हुए। औरंगज़ेब लोगों को बचाने के लिए उस हाथी से भिड़ गए और तलवार से हाथी के साथ युद्ध करने लगे।
इसी सबके बीच मौका देखकर शाहजहाँ के दूसरे सबसे बड़े बेटे शाह शुजा ने हाथी की आँख में भाला मारा जिससे हाथी नीचे गिर गया। इस तरह औरंगज़ेब हाथी और दारा शिकोह की साजिश से अपने पराक्रम से जीत गए। पिता शाहजहाँ ने आगे बढ़कर औरंगज़ेब को गले लगा लिया। फिर डांटा, “तुम भी भागे क्यों नहीं ?”
औरंगजेब ने जवाब दिया, “मर भी जाता, तो कोई शर्म की बात नहीं थी। मौत तो हर किसी को आनी है। शर्म तो मेरे उन भाइयों को आनी चाहिए, जिस तरह वे भागे।”
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अपनों से युद्ध की परम्परा
मज़ेदार बात यह है कि अपनों को मारकर सत्ता पाने का औरंगजेब पर आरोप उस देश में लगा जिसके सामने ‘महाभारत’ अपनों के बीच युद्ध का पूरा इतिहास लिए हुए है।
जहाँ चचाजात और सौतेले भाई एक दूसरे से युद्ध करते हैं, अपनी भाभी को जुए में जीत कर जंघा पर बिठाते हैं। जहाँ कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि “अर्जुन युद्ध में कोई भाई और सखा नहीं होता, उठाओ गांडीव और वार करो।”
उस देश में जिस देश में पिता तुल्य भीष्म पितामह शिखंडी की आड़ लेकर बड़े-बड़े धनुर्धर द्वारा धोखे से मार दिए जाते हैं।
उस देश में औरंगजेब के इक्का-दुक्का शासकीय निर्णय सांप्रदायिक घोषित करके उनको देश का सबसे बड़ा खलनायक बना दिया गया।
इसका परिणाम यह निकला कि जिस इंदिरा गाँधी ने स्वर्ण मंदिर को ध्वस्त कर दिया उन इंदिरा गाँधी के सिख समर्थकों की फौज तो आपको मिल जाएगी पर औरंगजेब को गाली ना देता एक सिख नहीं मिलेगा।
औरंगजेब को इतिहाकारों ने खलनायक बनाने के चक्कर में मंदिरों को तोड़ने वाला बताया, पर उनकी ऐसे ही निर्णय के आधार पर तोड़ी गोलकुंडा मस्जिद छुपा दी। एक बनारस का मंदिर तो दिखाया पर औरंगजेब की मदद से बने चित्रकूट और इलाहाबाद के तमाम मंदिर इतिहास में छिपा दिए गए।
यह इतिहास भी छिपा दिया गया कि एक गरीब ब्राह्मण की बेटी की इज्जत बचाने वह बनारस भेस बदलकर आए और अपने सेनापति आसफ अली खान को हाथियों से चिरवा दिया, यह भी भुला दिया कि उसी स्थान पर घनेड़ा की मस्जिद बना कर पंडितों ने औरंगजेब को उपहार स्वरूप दे दिया।
इतिहासकारों ने उनमें इस्लामिक कट्टर धर्मांधता दिखाने के चक्कर मे यह भी भुला दिया कि उनके दरबार में 50 फिसदी से अधिक महत्वपूर्ण पदों पर ब्राह्मण विराजमान थे।
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लेखक राजनीतिक विश्लेषक और स्वतंत्र टिपण्णीकार हैं।