खिलाफ़त आंदोलन में तिलक भी, फिर गाँधी ही बदनाम क्यों?

स विषय की चर्चा करने का प्रमुख कारण संघ महात्मा गाँधी को ‘मुस्लिम परस्त’ कहते थकता नहीं है। जिसमें उन्होंने बटवारे का पुरजोर विरोध नहीं करने से लेकर, खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने के लिए भी गाँधी जी को संघ दोषी मानता है।

हालाँकि महात्मा गाँधी के कांग्रेस के सर्वोच्च नेता बनने के पहले 1916 बाल गंगाधर तिलक और बैरिस्टर मुहंमद अली जिन्ना के बीच में लखनऊ समझौते से मुसलमानों को स्वतंत्र मतदाता संघ देने की शुरुआत को अनदेखा कर के, तिलक ने खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने का निर्णय लिया था।

1919 मे मुंबई में अली भाई और अन्य खिलाफ़त आंदोलन के नेताओं का आगमन हुआ था, तो उनके साथ तिलक की स्वतंत्र बैठक हुई है। और उसी बैठक के नतीजे में खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने के लिए संपूर्ण कांग्रेस तैयार हुईं हैं।

गाँधीजी जलियांवाला बाग हत्याकांड के इंन्क्वायरी के सिलसिले मे पंजाब में थे। तब दिल्ली में मुसलमानों की खिलाफ़त के सवाल पर एक परिषद होने जा रही थी। गाँधीजी को उसमे शामिल होने का निमंत्रण प्राप्त हुआ। वह 24 नवम्बर 1919 के दिन दिल्ली में पहुँचे। उसके पहले प्रथम विश्वयुद्ध की युद्धबंदी हो चुकी थी।

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अधिकार लौटाने का आंदोलन

11 नवम्बर 1918 तुर्की के सुलतान ने भी उस युद्धबंदी के मसौदे पर हस्ताक्षर करने के कारण अपनी पराजय के उपर ठप्पा लगा लिया था। वही सुलतान मुसलमानों का धार्मिक और राज्य का प्रमुख भी था मतलब खलीफ़ा था। इस कारण संपूर्ण दुनिया के मुसलमानों को अपना अपमान लगा।

उसी कडी मे भारत के मुसलमानों को अपना अपमान लगा और उन्होंने खलीफा के अधिकार लौटाने के हेतु से आंदोलन शुरू हुआ। उसमें अली भाई, बैरिस्टर जिन्ना, मौलाना आज़ाद भी खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने वाले लोगों मे शामिल थे। उसी सिलसिले में गाँधीजी दिल्ली की परिषद में शामिल हुए।

इसी परिषद मे हिन्दुओं ने भी बडी संख्या में हिस्सा लिया है। हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई का जमाना था। उस समय गाँधी भी कांग्रेसी अन्य नेताओं की तरह थे। उस सभा में अंग्रेजी कपड़े पर बहिष्कार करने की बात हसरत मोहानी के मुँह से निकली थी। लेकिन कौन से कपड़े इंग्लैंड के, कौन से जापान, जर्मनी के यह सवाल आया।

गाँधी जी की बोलने की बारी आई तो उन्होंने पहली बार विदेशी माल पर बहिष्कार की जगह उन्होंने ‘असहकार’ शब्द का उच्चारण किया। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों को विरोध करना और उनके साथ काम करना यह एक ही समय नहीं चलेगा।

सिर्फ अंग्रेजी माल पर बहिष्कार करने से काम नहीं चलेगा तो अंग्रेजी स्कूल, न्यायालय, अंग्रेजी नौकरियों से लेकर अंग्रेजों ने दिये हुए पुरस्कारों और मान-सम्मानो का भी त्याग करना होगा। गाँधी जी ने ‘सत्याग्रह’ के अलावा भारत के स्वाधीनता संग्राम के लिए और एक औजार दिया है, जिसका नाम था असहकार! उन्होंने दक्षिण अफ्रिका में 1906 में सत्याग्रह नाम का अस्र इजाद किया। तो पंद्रह साल के भीतर असहकार!

भारत में तिलक के अलावा और भी नेता रहने के बावजूद गाँधी जी के पास कांग्रेस का नेतृत्व आया। जिसके प्रमुख कारणों मे से एक, बगैर शस्र से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सामान्य जनता को लडाई में शामिल करना भी था। ऐसे अहिंसक कार्यक्रम अमेरिका तथा दक्षिण अफ्रिका की रंगभेद विरोधी लडाई में इस्तेमाल हुए थे।

फिलिस्तीनियों की लड़ाई का वर्तमान समय में नेतृत्व कर रहे नेता खालीद मिशाल ने मुझे दमास्कस में कहा था, “हम महात्मा गाँधी के मार्ग से फिलिस्तीन मुक्ति का संघर्ष कर रहे हैं।” 1948 से फिलिस्तीन के भीतर जोर-जबर्दस्ती से इस्राइल बनाने के खिलाफ लाखो फिलीस्तीनियों ने सत्याग्रह, धरना प्रदर्शन किया है। यह इतिहास है। जबकि हमें ‘झियोनिस्ट मीडिया’ के द्वारा कुछ और ही सुनने-देखने को मिलता है।

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ब्राह्मण नेताओं को बचाने की कवायद

तिलक के निधन के बाद महात्मा गाँधी के पास कांग्रेस का नेतृत्व आया। फिर भी तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, लजपत राय, मदनमोहन मालवीय इत्यादि दिग्गजों के रहते हुए राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ सिर्फ महात्मा गाँधी को ‘मुस्लिम परस्त’ कहते थकता नहीं है।

भारत का हिन्दू-मुस्लिम सवाल महात्मा गाँधी के भारत आगमन के पहले से गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक यह दोनो समकालीन महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण नेताओं ने मुख्य विभक्त मतदार संघ बनाने की मांग 1906-07 से जारी है। जबकि महात्मा गाँधी उस समय दक्षिण अफ्रीका में थे।

तत्कालीन कांग्रेस मे तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले यह ताकतवर नेताओं मे से थे। 1909 में अंग्रेज सरकार ने पहली बार विभक्त मतदार संघ बनाने की मान्यता देने की शुरुआत की थी। 1916 में लखनऊ समझौते से मुसलमानों को उनकी जनसंख्या से भी ज्यादा मतदाता संघ दिये गये थे।

यह समझौता तिलक और मुस्लिम लीग के नेता बैरिस्टर मुहंमद अली जिन्ना के बीच हुआ था। सिंध नाम का नया प्रांत भी बनने के लिए तिलक ने मान्यता दी थी। अगर सिंध अलग नहीं हुआ होता तो आज के भारतीय राजनीति का चित्र बदलने की पुरजोर संभावना थी। यहीं से बटवारे के बीज अंकुरित होने की शुरुआत भी हुई थी।

इस समय गाँधी की राजनितिक हैसीयत नहीं के बराबर थी। यह सब घटनाओं की जिम्मेदारी गोखले और तिलक यह दोनो समकालीन नेताओं ने निभाई है। लेकिन संघ गोखले-तिलक को छोड़कर गाँधी जी के उपर ‘मुस्लिम अपिज्मेंट’ के आरोप गढते रहता है। सबसे संगीन बात ‘खिलाफ़त आंदोलन’ को समर्थन देने की शुरुआत भी तिलक ने की थी।

लेकिन संघ गाहे बगाहे मुस्लिम परस्त महात्मा गाँधी थे। यह प्रचार उनके जीवितकाल और हत्या के बाद भी लगाया जाता है।

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लाल-बाल-पाल का भी समर्थन

खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने के लिए भी संघ गाँधी को जिम्मेदार ठहराते हैं। जो की अमृतसर कांग्रेस में (1919) खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने के प्रस्ताव पारित करने की मुख्य वजह मुसलमानों का भारत के स्वाधीनता संग्राम में सहभागिता करवाना थी। जो तिलक ने, लजपत राय, बिपिन चंद्र पाल (लाल-बाल-पाल) गाँधी उस समय कांग्रेस के नेता बनने के पहले की बात है।

जब तक खिलाफ़त आंदोलन चरमोत्कर्ष पर था तो भारत के कांग्रेस के सभी शीर्षस्थ नेताओं का समर्थन था। आर्यसमाज के लजपत राय, हिन्दू महासभा के मालवीय, सप्रू, तिलक, राजगोपालाचारी,  मोतीलाल नेहरू और उनके सुपुत्र जवाहरलाल, बंगाल के बिपिन चंद्र पाल मतलब महात्मा गाँधी के कांग्रेस पर पकड़ होने के पहले सब ने खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन दिया था।

सभी घटनाओं की जिम्मेदारी गाँधी के उपर डाल कर संघ इतिहास के बारे मे जिस तरह से तोड़-मरोड़कर पाकिस्तान के बनने से लेकर 55 करोड़ देने के लिए भी गाँधी जी को संघ लक्ष करता रहा है।

मुझे अब तक दो बार पाकिस्तान जाने का मौका मिला है। कराची प्रेस क्लब में एक युवक पत्रकार ने मुझे बात-बात में कहा कि गांधी ने भारत-पाकिस्तान का बटवारा किया है। इससे ज्यादा विरोधाभास का उदाहरण और क्या हो सकता है? क्योंकि बैरिस्टर जिन्ना शुरुआत से ही गाँधी और कांग्रेस को हिन्दुओ की जमात कहा करते थे और संघ ‘मुस्लिम परस्त!’ ऐसा विरोधाभास और किसी नेता के हिस्से में नहीं है।

इसका मेरे हिसाब से महात्मा गाँधी के खुद को सनातनी हिन्दू कहना, अपने राजनैतिक कामों में अध्यात्म, आश्रम पद्धति और सादगी पूर्ण रूप से जीवन जीने के लिए एकादश व्रत-उपवास यही आरएसएस के पैर तले की जमीन हिलने और अपनी हिन्दुत्व की मुख्य घोषणा का औचित्य कमजोर करने के कारण भारत की सबसे बड़ी आबादी को वहीं अपिल करने मे कामयाब रहे।

खिलाफ़त आंदोलन को सौ साल हो गये हैं। केमाल अतातुर्क पाशा नाम के एक तुर्की फौजी अफसर ने बगावत कर के और मार्च के 1924 खिलाफ़त खत्म करने की घोषणा कर के संपूर्ण तुर्की को आधुनिक देश बनाया। महिलाओंको शिक्षा और अन्य अधिकार देकर ऐतिहासिक काम किया।

जो 1300 के इस्लामी इतिहास में क्रांतिकारी कोशिश थी। खिलाफ़त नाम का नामो-निशान तक बचा नहीं। मुझे दस साल पहले तुर्की जाने का मौका मिला था। बदलाव को अपने आँखो से देखा इसलिए यह लिख रहा हूँ। हालाँकि वर्तमान तुर्की शासक अर्दोआन उसे वापस पुरानी ओर ले जाने की कोशिश कर रहे है। यह बात भारत के वर्तमान बीजेपी को भी लागू है।

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ऑटोमन साम्राज्य का इतिहास

सन (1299-1923) ऑटोमन साम्राज्य का लगभग सात सौ साल का शायद दुनिया के लिखित इतिहास का सबसे लंबे समय तक का एक मात्र साम्राज्य था। जिसे ‘उस्मानी साम्राज्य’ भी कहा जाता है। यह सोलहवी और सत्रहवीं शताब्दियों में उत्कर्ष के शिखर पर था। एशिया, यूरोप और अफ्रीका इन तीनों खंडो में फैला हुआ साम्राज्य था।

उसी सम्राट को विश्व के सुन्नी मुसलमानों का खलीफा माना जाता था। जो प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की ने जर्मनी की तरफ से शामिल होने के कारण अलाइड फोर्सेस जिनका नेतृत्व इंग्लैंड कर रहा था। तो उनकी नाराजगी का खामियाजा भुगतना पड़ा।

क्योंकि उसने अलाइड फोर्सेस की जगह जर्मनी का साथ दिया था। केमाल अतातुर्क पाशा नाम के एक तुर्की फौजी अफसर ने बगावत कर के और मार्च 1924 को ऑटोमन साम्राज्य की जगह, तुर्किस्तान नाम का देश बनाते हुए खिलाफ़त समाप्त करने की घोषणा कर दी। इसी के साथ भारत मे चल रहे खिलाफ़त (1919-20) आंदोलन का अस्तित्व भी खत्म हो गया।

लेकिन 1916 के तिलक और मुस्लिम लीग का लखनऊ समझौते से मुसलमानों को अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे आंदोलन मे शामिल करने के उद्देश्य से और खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने के निर्णय की घोषणा कर के कांग्रेस के नेताओं मे तिलक और उसके बाद गाँधी से लेकर सभी प्रमुख नेताओं ने खिलाफ़त आंदोलन को समर्थन देने का उद्देश्य भारत के मुसलमानों को अंग्रेजों खिलाफ चल रहे आंदोलन मे शामिल करना रहा था।

भारत मे 1920 के समय अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लडाई तेज गति पकड़ने की शुरुआत के समय का यह वाकया है। अंग्रेजों ने खलीफा पद देने की वादाखिलाफी करने के कारण पूरे दुनिया ने आंदोलन छेड़ने के कारण भारत के भी मुसलमानों मे खिलाफत को लेकर जबरदस्त विरोध शुरू हो चुका था। उसका नेतृत्व मौलाना शौकत अली और मौलाना मुहंमद अली जिन्हें ‘अली बंधु’ के नाम से जाना जाता था।

अमृतसर कांग्रेस 1919 के बाद भारत के सभी क्षेत्रों में यह आंदोलन आग की तरह फैल गया। जब 29 जनवरी, 1920 के दिन अली बंधु और मौलाना अब्दुल बारी और अन्य नेताओं का मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनस में आगमन हुआ तो ग्रांट रोड स्थित मुजफ्फराबाद  हॉल तक बेशुमार भीड़ थी।

कार्यक्रम के अलावा तिलक के साथ अली बंधु और अन्य नेताओं की स्वतंत्र बैठक हुई। उस समय के सभी कांग्रेस के नेताओं को हिन्दू-मुस्लिम एकता का अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ने के लिए बहुत ही अच्छा मौका लगा।

जून 1920 के एक और दो तारीख को सेंट्रल खिलाफ़त कमिटी की बैठक इलाहाबाद में हुई थी। जिस के बाद हंटर कमिशन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट नें असहकारिता आंदोलन और खिलाफ़त आंदोलन को गतिमान बनाने मे मदद की।

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