पच्चीस जून 1975 का दिन आज़ाद देश के इतिहास में एक काले दिन के रूप में याद किया जायेगा जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी यानी आपातकाल लगा दिया था।
इस दौरान देश भर में एक लाख से अधिक राजनीतिक दलों के नेताओं-कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को जेलों में डाल दिया गया।
प्रेस की आज़ादी पर सेंसर के ज़रिये अंकुश लगा दिया गया और न्यायपालिका को ‘टेम’ कर दिया गया। न कोई अपील, ना कोई दलील, ना कोई वकील। 1978 में प्रकाशित सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ में इमरजेंसी को 21 महीने लंबी रात बताया गया है।
21 महीनों लम्बी वह रात भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में वाक़ई एक ऐसी अंधेरी रात थी जिसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं और जो देश के लोकतांत्रिक चरित्र पर एक बहुत बड़ा बदनुमा दाग़ है।
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मिला जवाब
आपातकाल के नाम पर जनता के मूलभूत अधिकार छीन लिए गए, उनकी स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गई। तानाशाही शासन द्वारा उत्तर भारत के कई राज्यों में जबरन नसबंदी ऑपरेशन चलाये गए और अविवाहित युवकों तक को बधिया बना दिया गया।
राजधानी दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाक़े और उत्तर प्रदेश के कैराना और सुल्तानपुर ज़िलों में पुलिस ने गोली चलाकर दर्जनों लोगों को मार डाला।
मनचाहे तरीके से संविधान को ग़लत ढंग से परिभाषित किया गया और संजय गांधी के नाम से एक ऐसा व्यक्ति अपरोक्ष रूप से देश का शासन चलाने लगा जिसे ‘एक्स्ट्रा कॉन्स्टिटूशनल अथॉरिटी’ (इसीए) के नाम से जाना जाता था।
फ़रवरी 1976 में पांचवीं लोक सभा का कार्यकाल ख़त्म हो रहा था जिसे एक साल के लिए बढ़ा दिया गया। इसके विरोध में सोशलिस्ट पार्टी के तत्कालीन नेता मधु लिमये और उनके युवा सहयोगी शरद यादव ने लोक सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
एक साल बाद जब मार्च 1977 में लोक सभा चुनाव हुए तो देश की ग़रीब जनता ने आपातकाल लगाने वालों के ख़िलाफ़ भारी मतदान किया और निरंकुश तानाशाह को वोट के ज़रिये सत्ता से हटा दिया।
उत्तर भारत के कई राज्यों में तो कांग्रेस पार्टी एक सीट भी नहीं जीत पायी और ख़ुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रायबरेली में समाजवादी नेता राजनारायण से पचास हज़ार से भी अधिक मतों से चुनाव हार गयीं।
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पिछे कि कहानी
दरअसल आपातकाल लगाए जाने की दास्तान 1971 में हुए लोक सभा के मध्यावधि चुनावों से शुरू होती है। इन चुनावों में राजनारायण संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में रायबरेली से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े और हार गए।
लेकिन उन्होंने इस चुनाव में प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार करने और अवैध रूप से चुनाव जीतने के आरोप लगाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक चुनाव याचिका दायर कर दी।
राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया की प्रधानमंत्री ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी अधिकारियों, मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया है, इसलिए उनका चुनाव निरस्त कर दिया जाए।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस पूरे मामले की लम्बी सुनवाई की। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इस मुक़दमे में प्रधानमंत्री को अदालत में तलब किया। भारत के इतिहास में ये पहला मौका था, जब किसी मुक़दमे में प्रधानमंत्री को पेश होकर अदालत के कटघरे में खड़ा होना पड़ा था।
राजनारायण ने अपनी चुनाव याचिका में जो सात मुद्दे इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ गिनाए गए थे, उनमें से पांच को तो जस्टिस सिन्हा ने ख़ारिज कर दिया और इंदिरा गांधी को राहत दे दी थी, लेकिन भ्रष्टाचार के दो मुद्दों पर उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दोषी पाया।
12 जून 1975 को अपना ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत प्रधानमंत्री के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। साथ ही अगले छह सालों तक इंदिरा गांधी को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया।
पर साथ ही जस्टिस सिन्हा ने अपने फ़ैसले पर बीस दिन का स्थगन आदेश देते हुए प्रधानमंत्री को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार दे दिया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के बाद देश में कई जगहों पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए।
उसी समय गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन और बिहार में जेपी आंदोलन चल रहा था और इंदिरा गांधी तथा उनकी कांग्रेस पार्टी के खिलाफ देश भर में माहौल बनना शुरू हो गया था।12 जून 1975 को ही गुजरात विधान सभा के चुनाव परिणाम आये और वहां कांग्रेस पार्टी की हार हुई और संयुक्त विपक्ष की जनता मोर्चा सरकार बनी।
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इंदिरा गांधी गई सुप्रीम कोर्ट
इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले के बाद इंदिरा गांधी की तरफ से एक अपील सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई। 22 जून 1975 को वैकेशन जज जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर के सामने ये अपील सुनवाई के लिए आई। इंदिरा गांधी की तरफ से पैरवी करने के लिए मशहूर वकील एन पालखीवाला को लाया गया।
बाद में जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने एक टीवी इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि उनपर इस केस को लेकर दवाब बनाने की कोशिश की गयी और तत्कालीन कानून मंत्री गोखले ने उनसे मिलने के लिए फ़ोन किया था।
24 जून, 1975 को वैकेशन जज, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले पर स्थगन आदेश (स्टे) तो दे दिया, लेकिन ये पूर्ण स्थगन आदेश न होकर आंशिक स्थगन आदेश था।
जस्टिस अय्यर ने फ़ैसला सुनाया था कि इंदिरा गांधी संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं लेकिन वोट नहीं कर सकतीं। यानी सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के मुताबिक, इंदिरा गांधी की संसद की कार्यवाही में हिस्सा ले सकती थी। सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद विपक्ष ने इंदिरा गांधी पर अपने हमले तेज़ कर दिए।
25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली की जिसमें सेना, पुलिस और अर्ध सैनिक बलों से सरकार का हुक्म न मानने की अपील की गई। इसके तत्काल बाद प्रधानमंत्री की ओर से आधी रात को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई।
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विरोधीयों पर मुकदमे
आपातकाल की घोषणा होते ही जयप्रकाश नारायण और विपक्ष के कई प्रमुख नेताओं मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राजनारायण, पीलू मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मधु लिमये, मधु दंडवते, जॉर्ज फ़र्नांडिस, सुरेंद्र मोहन और कांग्रेस पार्टी के दो प्रमुख नेताओं चंद्र शेखर और मोहन धारिया को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
आपातकाल के उन काले दिनों में सुप्रीम कोर्ट का रवय्या बहुत ही निंदनीय रहा। नागरिक स्वतंत्रता के सवालों पर तो सुप्रीम कोर्ट करीब-करीब खामोश रहा। फ़र्ज़ी मुक़दमों के तहत बंद किये गए राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं की बंदी प्रत्यक्षीकरण या हेबीयस कॉर्पस याचिकायें ख़ारिज कर दी गयीं।
अगस्त, 1976 में जबलपुर एडीएम बनाम शिवकांत शुक्ला का एक बेहद चर्चित मुक़दमा हुआ, जिसे हेबीयस कॉर्पस के तौर पर जाना जाता है।
इसमें तत्कालीन महाधिवक्ता (अटॉर्नी जनरल) नीरेन डे ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि अगर एक पुलिस वाला किसी व्यक्ति पर, चाहे आपसी रंजिश की वजह से ही क्यों न हो, गोली चला कर उसकी हत्या कर दे तो भी कोर्ट में अपील नहीं की जा सकती।
निश्चित तौर पर वे किसी और का नहीं बल्कि शीर्ष अदालत के सामने तत्कालीन केंद्र सरकार का विचार रख रहे थे। अदालत में हर कोई अवाक रह गया। लेकिन केवल जस्टिस एच. आर. खन्ना ने इस पर असंतोष ज़ाहिर किया जबकि बाक़ी सभी चार जज केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत नहीं कर सके।
आपातकाल के उन काले दिनों में जस्टिस खन्ना को संविधान द्वारा प्रदत नागरिकों के मौलिक अधिकारों के समर्थन में खड़ा होने का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा, उनकी वरीयता की उपेक्षा करते हुए तत्कालीन केंद्र सरकार ने आज्ञाकारी जस्टिस एच. एम. बेग को सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया।
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बुरा सपना
आपातकाल एक बुरे सपने की तरह है और कामना करनी चाहिए की उस बुरे सपने की पुनरावृत्ती न हो लेकिन मशहूर इतिहासकार प्रो. रोमिला थापर मानती हैं की आपातकाल की स्थिति आज की तुलना में माइल्ड यानी ‘कम ख़तरनाक’ स्थिति थी, क्योंकि आज जो लोगों में डर और भय का माहौल है, वो आपातकाल में नहीं था।
बक़ौल उनके हो सकता है इसकी वजह ये रही हो कि आपातकाल कम समय के लिए रहा और मौजूदा स्थिति पिछले कई सालों से चल रही है और ये स्थिति कब तक बनी रहेगी, हम नहीं जानते।
पांच-छः साल पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। बीते सालों में डर, भय और आतंक का माहौल बढ़ा है। सरकार का रवैया ज़्यादा अथॉरिटेरियन हो गया है। अल्पसंख्यक, दलित और मुसलमानों के प्रति जिस तरह का बर्ताव हो रहा है, वह चिंतित करने वाला है।
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लेखक त्रिभाषी (हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी) पत्रकार हैं, जिनके पास सभी पारंपरिक मीडिया जैसे टीवी, रेडियो, प्रिंट और इंटरनेट में 35 से अधिक सालों का अनुभव है। वह पीआईबी, भारत सरकार और भारत की संसद द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं।