आज़ाद भारत में राजद्रोह कानून की किसे जरूरत ?

देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार से जवाब तलब करते हुए कहा है कि आज़ादी के 75 साल बाद क्या राजद्रोह के क़ानून की जरूरत है? अदालत ने कहा कि यह औपनिवेशिक कानून है और स्वतंत्रता सेनानियों के खि़लाफ़ इसका इस्तेमाल किया गया था।

मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने अटॉर्नी जनरल से पूछा, सरकार ने कई पुराने क़ानूनों को निरस्त कर दिया है। फिर सरकार भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 ए को निरस्त करने पर विचार क्यों नहीं कर रही है?

सीजेआई एनवी रमना ने भी विरोध को रोकने के लिए कथित तौर पर 1870 में औपनिवेशिक युग के दौरान डाले गए प्रावधान (आईपीसी की धारा 124 ए) के उपयोग को जारी रखने पर आपत्ति व्यक्त की।

अदालत ने ऐसे क़ानूनों के दुरुपयोग को लेकर चिंता जताते हुए स्पष्ट तौर पर कहाहालात गंभीर हैं। अगर एक पक्ष को पसंद नहीं है कि दूसरा क्या कह रहा हैतो धारा 124-ए का इस्तेमाल किया जाता है। यह कानूनसंस्थाओं के कामकाज के लिए एक गंभीर ख़तरा है।

ज़ाहिर है अदालत की यह चिंता और इस कानून को खत्म करने की उसकी सलाह वाज़िब भी है। बीते कुछ सालों से यह लगातार देखने में आ रहा है कि सरकारें, नागरिकों द्वारा उठाई गई किसी भी आलोचना, सवाल या असंतोष को शांत करने के लिए तेजी से इस कानून का सहारा ले रही हैं। नागरिकों को चुप कराने, डराने और लोकतंत्र का गला घोंटने के लिए राजद्रोह के मामले दर्ज किए जाते हैं।

पढ़े : बच्चे पैदा करना मुसलमान और हिन्दू दोनों के लिए देशद्रोह!

पढ़े : बेकसूरों के बार-बार जेल के पिछे क्या हैं साजिश?

पढ़े : अफगान में तालिबान से हारा अमेरिका, अब आगे क्या!

क्या है फैसला?

मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना और जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस ऋषिकेश राय की पीठ एक पूर्व सैन्य अधिकारी द्वारा राजद्रोह क़ानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

मेजर जनरल एसजी वोमबांटकरे ने अपनी याचिका में राजद्रोह क़ानून की संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी है कि अभिव्यक्ति पर इसका गहरा असर पड़ता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जो कि एक मौलिक अधिकार है, उसमें यह कानून बिना कारण बाधा पैदा करता है। आईपीसी की धारा 124 ए संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए), अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है। जबकि साल 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में दिए गए फैसले में इसी आधार पर इसके कुछ प्रावधानों को खत्म कर दिया गया था।

याचिकाकर्ता का कहना है कि धारा 124-ए पूरी तरह से असंवैधानिक है और इसे स्पष्ट तौर पर समाप्त किया जाना चाहिए। बहरहाल, मामले की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल ने बेंच से कहा, धारा 124-ए को ख़त्म करने की ज़रूरत नहीं है और केवल दिशा-निर्देश निर्धारित किए जाने चाहिए।

ताकि ये धारा अपने क़ानूनी उद्देश्य को पूरा कर सके। केन्द्र सरकार की इस दलील को सुनने के बाद, शीर्ष अदालत ने अटॉर्नी जनरल से कहा, धारा 124-ए के तहत अपराध साबित होने की दर बहुत कम है। अदालत ने धारा 66-ए की मिसाल देते हुए कहा, इस धारा के रद्द किए जाने के बाद भी इसके अंतर्गत मामले दर्ज किए जा रहे थे।

अदालत ने धारा 124-ए के कुछ प्रावधानों पर सवाल उठाते हुए कहा, इन प्रावधानों का दुरुपयोग किया गया है, लेकिन किसी की कोई जवाबदेही नहीं है। हमारी चिंता क़ानून के दुरुपयोग और जवाबदेही की कमी को लेकर है।

पीठ ने वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिये हुई सुनवाई में कहा कि अगर किसी सुदूर गांव में कोई पुलिस अफसर, किसी शख़्स को सबक सिखाना चाहता है, तो वह ऐसे प्रावधानों का इस्तेमाल करके आसानी से ऐसा कर सकता है। इसके अलावा राजद्रोह के मामलों में सजा का प्रतिशत भी बेहद कम है। ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर फैसला लेने की जरूरत है।

पढ़े : हिन्दू आबादी में कमी और मुसलमानों में बढ़ोत्तरी का हौव्वा

पढ़े : जब एक वोट ने बदल कर रख दिया इतिहास!

पढ़े : कहानी मुस्लिम आरक्षण के विश्वासघात की!

देशद्रोह की धाराएं कब

शीर्ष अदालत ने कहा, राजद्रोह के इस क़ानून को कई याचिकाओं के जरिये चुनौती दी जा चुकी है। इन सब याचिकाओं को अब एक साथ ही सुना जाएगा। यह पहली मर्तबा नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह कानून पर सवाल उठाए हों, बल्कि पिछले कुछ सालों में अलग-अलग मामलों में उसने इस कानून की संवैधानिक वैधता पर सरकार से जवाब मांगा है।

अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है, जब शीर्ष अदालत की एक अलग पीठ ने मणिपुर और छत्तीसगढ़ में काम करने वाले दो पत्रकारों किशोरचंद्र वांगखेमचा और कन्हैयालाल शुक्ला द्वारा दायर देशद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र से जवाब मांगा था।

राजद्रोह एक गंभीर अपराध है और असहमति को दबाने के लिए इससे संबंधित कानून का अत्यंत दुरुपयोग किया जा रहा है। केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था की,

किसी भी नागरिक को सरकार के तौर तरीकों के बारे में कुछ भी बोलने और लिखने का पूरा अधिकार है, जब तक कि वो लोगों को विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ हिंसा करने के लिए नहीं उकसाता और सामान्य जन जीवन को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करता है। देशद्रोह की धाराएं तभी लगाई जा सकती हैं, जब किसी अभियुक्त ने हिंसा करने के लिए लोगों को उकसाया हो या फिर जनजीवन प्रभावित करने की कोशिश की हो।

यही नहीं साल 1995 में एक दीगर मामले में जिसमें दो लोगों पर देश विरोधी और अलगाववादी नारे लगाये जाने के आरोप लगे थे, सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि केवल नारे लगाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता। क्योंकि उससे सरकार को कोई ख़तरा पैदा नहीं होता।

पढ़े : राजनीतिक फैसलों से बारूद के ढेर पर खड़ा ‘शांतिप्रिय लक्षद्वीप’

पढ़े : बीजेपी राज में दलितों का सामाजिक हाशियाकरण

पढ़े : सीएए कोर्ट में विचाराधीन, फिर लागू करने की जल्दी क्यों?

अभिव्यक्ति की आजादी

कहने को हमारे देश में सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का संवैधानिक अधिकार है। बावजूद इसके सरकारें, अपने विरोधियों को डराने या सरकार विरोधी आवाज को दबाने के लिए देशद्रोह कानून का दुरुपयोग करती आई हैं।

अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिए, इस तरह की व्यूह रचना रची जाती है कि उनका विरोध देशवासियों को देशद्रोह दिखाई दे। पिछले कुछ सालों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें साफ दिखाई देता है कि सरकार, जानबूझकर इस तरह के मामलों को बढ़ावा दे रही है। ताकि कोई उसकी नीतियों का विरोध न करे।

लेखक, कलाकारों, सोशल एक्टिविस्टों, राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं और यहां तक कि विद्यार्थियों को भी नहीं बख्शा जा रहा। जो भी सरकार का विरोध करता है या सरकार की नीतियों से असहमति जताता है, उस पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो जाता है। जबकि लोकतंत्र में असहमति एक अनिवार्य तत्व है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 से 2019 के बीच यानी पिछले दस साल में 11 हजार लोगों के खिलाफ 816 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए। जिसमें से 65 फीसदी मामले मोदी सरकार के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद दर्ज हुए हैं।

बीते तीन साल यानी साल 2016 से 2019 के बीच दर्ज हुए राजद्रोह के मामलों का ही यदि आंकलन करें, तो इनमें 160 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।

जहां तक इन मामलों में दोषसिद्धि का सवाल है, तो साल 2019 में राजद्रोह के 30 मामलों में फैसला हुआ, जिनमें 29 में आरोपी बरी हो गए। सिर्फ एक मामले में दोषसिद्धि साबित हुई। बाकी सब या तो बाइज्जत बरी हो गए, या फिर उन पर अदालतों में मुकदमे जारी हैं।

ऐसे ज्यादातर मामलों में आरोप साबित हो ही नहीं पाते, पर अदालती सुनवाई की लंबी प्रक्रिया से गुजरना अपने-आप में किसी सजा से कम नहीं होता। मामला दर्ज होते ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जो चरित्र हनन होता है, वह अलग।

ज्यादातर मामलों में विरोधियों को परेशान करने की नीयत से सत्ताधारी पार्टी, अपने लोगों द्वारा ही इस तरह के मामले दर्ज करवाती है। पुलिस जिसका पहला काम, मामले की अच्छी तरह से जांच करना और फिर उसके बाद मामला दर्ज करने का होना चाहिए, वह बिना सोचे-समझे या सरकार के दवाब में देशद्रोह जैसे गंभीर इल्जाम में मामला दर्ज कर लेती है।

पढ़े : समान नागरी कानून और मुसलमानों की चुनौतीयां

पढ़े : क्यों बढ़ रहे हैं भारत में ईसाई अल्पसंख्यकों पर हमले?

पढ़े : ‘मलियाना नरसंहार’ की कहानी चश्मदीदों की जुबानी

उठती संशोधन की मांग 

हमारे देश में अंग्रेजी हुकूमत ने साल 1860 में स्वतंत्रता सेनानियों के दमन के लिए राजद्रोह कानून बनाया था। जिसे साल 1870 में बकायदा आईपीसी में शामिल कर लिया गया। आईपीसी के सेक्शन 124 (ए) के तहत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर नफरत फैलाने या असंतोष जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है।

इसके तहत मामला दर्ज होने पर दोषी को तीन साल से लेकर उम्र कैद तक की सजा हो सकती है। आजादी के बाद इस औपनिवेशिक कानून को हमारी सरकार ने भी ज्यों के त्यों अपना लिया। तब से इस कानून के औचित्य पर संसद से लेकर सड़क तक चर्चा हो चुकी है।

इस कानून को निरस्त करने या इसमें संशोधन की मांग कई बार उठी, लेकिन जब भी यह मांग उठती है सरकार यह कहकर इस कानून का औचित्य साबित करने की कोशिश करती है कि धारा 124 (ए) आतंकवाद, उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसी समस्याओं से निबटने के लिए जरूरी है।

सरकार बार-बार यह दुहाई भी देती है, “समुचित दायरे में रह कर सरकार की आलोचना करने पर कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन जब आपत्तिजनक तरीकों का सहारा लिया जाएगा, तभी यह धारा प्रभावी होगी।

देशवासियों को इस आश्वासन के बाद भी ऐसे कई मौके आए हैं, जब राजद्रोह कानून का दुरुपयोग हुआ और सरकार महज तमाशाई बनी रही।

अब जबकि एक बार फिर शीर्ष अदालत ने इस औपनिवेशिक कानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए हैं और सरकार को राजद्रोह कानून निरस्त करने की सलाह दी है, तो सरकार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस जनविरोधी और असंवैधानिक कानून को निरस्त करने की दिशा में आगे बढ़े। क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के मूल अधिकार ही सर्वोपरि हैं।

जाते जाते :

Share on Facebook