असरारुल हक ‘मजाज’ की खूबसूरत, पुरसोज शायरी के पहले भी सभी दीवाने थे और आज भी उनकी मौत के इतने सालों बाद, यह दीवानगी जरा सी कम नहीं हुई है। मजाज सरापा मुहब्बत थे। तिस पर उनकी शख्सियत भी दिलनवाज थी।
मजाज जब अपनी सुरीली आवाज और खूबसूरत तरन्नुम में नज्म पढ़ते, तो चारों और खामोशी पसर जाती। सामयीन उनकी नज्मों में डूब जाते। बाज आलोचक उन्हें उर्दू का कीट्स कहते थे, तो फिराक गोरखपुरी की नजर में, “अल्फाजों के इंतखाब और संप्रेषण के लिहाज से मजाज, फैज के बजाय ज्यादा ताकतवर शायर थे।”
दीगर शायरों की तरह मजाज की शायराना जिन्दगी की इब्तिदा, गजलगोई से हुई। शुरुआत भी लाजवाब,
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए
इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए।
लेकिन चंद ही गजलें कहने के बाद, मजाज नज्म के मैदान में आ गए। आगे चलकर नज्मों को ही उन्होंने अपने राजनीतिक सरोकारों की अभिव्यक्ति का वसीला बनाया। अलबत्ता बीच-बीच में वे जरूर गजल लिखते रहे।
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नौजवां दिलों की धड़कन
अपनी शायरी से थोड़े से ही अरसे में मजाज नौजवानों दिलों की धड़कन बन गए। उनके शे’र, हर एक की जबान पर आ गए। ऐसे ही उनके ना भुलाए जाने वाले कुछ मशहूर शे’र हैं,
जो हो सके, हमें पामाल करके आगे बढ़
न हो सके, तो हमारा जवाब पैदा कर।
सब का मदावा कर डाला, अपना ही मदावा कर न सके
सबके तो गरीबां सी डाले अपना ही गिरेबां भूल गए।
‘आवारा’ वह नज्म है, जिसने मजाज को एक नई पहचान दी। मजाज का दौर मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था। बरतानवी हुकूमत की साम्राज्यवादी नीतियों और सामंतवादी निजाम से मुल्क में रहने वाला हर बाशिंदा परेशान था। ‘आवारा’ पूरी एक नस्ल की बेचैनी की नज्म बन गई। नौजवानों को लगा कि कोई तो है, जिसने अपनी नज्म में उनके ख्यालों की अक्काशी की है।
‘आवारा’ नज्म पर यदि गौर करें, तो इस नज्म की इमेजरी और काव्यात्मकता दोनों रूमानी है, लेकिन उसमें एहतेजाज और बगावत के सुर भी हैं। यही वजह है कि वे नौजवानों की पंसदीदा नज्म बन गई। आज भी यह नज्म नौजवानों को अपनी ओर, उसी तरह आकर्षित करती है।
शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
ए-गमे-दिल क्या करूं ऐ वहशते-दिल क्या करूं।
‘आवारा’ पर उस दौर की नई पीढ़ी ही अकेले फिदा नहीं थी, मजाज के साथी शायर भी इस नज्म की तारीफ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए। उनके जिगरी दोस्त अली सरदार जाफरी ने लिखा है, “यह नज्म नौजवानों का ऐलाननामा थी और आवारा का किरदार उर्दू शायरी में बगावत और आजादी का पैकर बनकर उभर आया है।”
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जोश और जज्बा पैदा करती शायरी
इस नज्म के अलावा मजाज की ‘शहरे-निगार’, ‘एतराफ’ वगैरह नज्मों का भी कोई जवाब नहीं। खास तौर पर जब वे अपनी नज्म ‘नौ-जवान से’ में नौजवानों को खिताब करते हुए कहते थे,
जलाल-ए-आतिश-ओ-बर्क़-ओ-सहाब पैदा कर
अजल भी काँप उठे वो शबाब पैदा कर
तू इंक़लाब की आमद का इंतिज़ार न कर
जो हो सके तो अभी इंक़लाब पैदा कर।
तो यह नज्म, नौजवानों में एक जोश, नया जज्बा पैदा करती थी। उनमें अपने मुल्क के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा जाग उठता था। वे अपने वतन पर मर मिटने को तैयार हो जाते थे। मजाज की जिन्दगानी में उनकी नज्मों का सिर्फ एक मजमुआ ‘आहंग’ (साल 1938) छपा, जो बाद में ‘शबाताब’ और ‘साजे-नौ’ के नाम से भी शाया हुआ।
बर्रे सगीर के मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ ने मजाज की किताब ‘आहंग’ की भूमिका लिखी थी। भूमिका का निचोड़ है, “मजाज की समूची शायरी शमशीर, साज और जाम का शानदार संगम है। गालिबन इसी वजह से उनका कलाम ज्यादा मकबूल भी है।”
मिसाल के तौर पर वे उनका एक शे’र पेश करते हैं, जो किताब की शुरूआत में ही है,
देख शमशीर है यह, साज है यह, जाम है यह
तू जो शमशीर उठा ले तो बड़ा काम है यह।
अपनी इसी भूमिका में फैज़ उनकी शायरी का मूल्यांकन करते हुए आगे लिखते हैं, “मजाज़ इंकलाब का ढिंढोरची नहीं, इंकलाब का मुतरिब (गायक) है। उसके नगमें में बरसात के दिन की सी सुकूनबख्श खुनकी है और बहार की रात की सी गर्मजोश तास्सुर आफरीनी !”
मजाज के कलाम के बारे में कमोबेश यही बात अली सरदार जाफरी ने भी कही है “मजाज की शायरी शमशीर, जाम और साज का इम्तिजाज (मिश्रण) है।”
वहीं सज्जाद जहीर की नजर में “मजाज इंकलाब, तब्दीली और उम्मीद का शायर है।” बल्कि उनका तो यहां तक मानना था, “मजाज ने उर्दू की इंकलाबी शायरी का रिश्ता फारसी और उर्दू की बेहतरीन शायरी से जोड़ा है।” फैज अहमद फैज, मजाज़ की ‘ख्वाबे सहर’ और ‘नौजवान खातून से खिताब’ नज्मों को सबसे मुकम्मल और सबसे कामयाब तरक्की पसंद नज्मों में से एक मानते थे।
फैज की इस बात से फिर भला कौन नाइत्तेफाकी जतला सकता है। ‘नौजवान खातून से खिताब’ नज्म, है भी वाकई ऐसी,
हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था
दिल-ए-मजरूह को मजरूह-तर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।
इस नज्म में साफ दिखलाई देता है कि मजाज औरतों के हुकूक के हामी थे और मर्द-औरत की बराबरी के पैरोकार। मर्द के मुकाबले वे औरत को कमतर नहीं समझते थे। उनकी निगाह में मर्दों के ही बराबर औरत का मर्तबा था।
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शायरी में सामाजिकता
मजाज शाइरे-आतिश नफस थे, जिन्हें कुछ लोगों ने जानबूझकर रूमानी शायर तक ही महदूद कर दिया। यह बात सच है कि मजाज की शायरी में रूमानियत है, लेकिन जब उसमें इंकलाबियत और बगावत का मेल हुआ, तो वह एक अलग ही तर्ज की शायरी हुई।
बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तिरी जुल्फों का पेचो-खम नहीं है
ब-ई-सैले-गमो-सैले-हवादिस
मिरा सर है कि अब भी खम नहीं है।
मजाज ने दीगर तरक्की पसंद शायरों की तरह गजलों की बजाय नज्में ज्यादा लिखीं। उन्होंने शायरी में मोहब्बत के गीत गाये, तो मजदूर-किसानों के जज्बात को भी अपनी आवाज दी। मजाज ने अपनी नज्मों में दकियानूसियत, सियासी गुलामी, शोषण, साम्राज्यवादी, सरमायादारी, और सामंतवादी निजाम, सियासी गुलामी के खिलाफ आवाज उठाई।
उनकी नज्मों में हमें आजादख्याली, समानता और इन्सानी हक की गूंज सुनाई देती है। ‘हमारा झंडा’, ‘इंकलाब’, ‘सरमायेदारी’, ‘बोल अरी ओ धरती बोल’, ‘मजदूरों का गीत’, ‘अंधेरी रात का मुसाफिर’, ‘नौजवान से’, ‘आहंगे-नौ’ वगैरह उनकी नज्में इस बात की तस्दीक करती हैं। यह नज्में कहीं-कहीं तो आंदोलनधर्मी गीत बन जाती हैं।
मिसाल के तौर पर उनकी एक और मशहूर नज्म ‘इंकलाब’ देखिए,
छोड़ दे मुतरिब बस अब लिल्लाह पीछा छोड़ दे
काम का ये वक़्त है कुछ काम करने दे मुझे
फेंक दे ऐ दोस्त अब भी फेंक दे अपना रुबाब
उठने ही वाला है कोई दम में शोर-ए-इंक़लाब
ख़त्म हो जाएगा ये सरमाया-दारी का निज़ाम
रंग लाने को है मज़दूरों का जोश-ए-इंतिक़ाम।
मजाज अंग्रेजी साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद दोनों को ही अपना दुश्मन समझते थे। उनकी नजर में दोनों ने ही इन्सानियत को एक समान नुकसान पहुंचाया है।
मजाज ने अपनी नज्मों में न सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत के हर तरह के जुल्म और नाइंसाफी के खिलाफ आवाज बुलंद की
बोल! अरी ओ धरती बोल !
राज सिंघासन डाँवाडोल
क्या अफ़रंगी क्या तातारी
आँख बची और बर्छी मारी
कब तक जनता की बेचैनी
कब तक जनता की बे-ज़ारी
कब तक सरमाया के धंदे
कब तक ये सरमाया-दारी
बोल ! अरी ओ धरती बोल !
बल्कि जब दुनिया पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद फासिज्म का खतरा मंडराया, तो उसके खिलाफ भी वे खामोश नहीं रहे। ऐसे शिकस्ता माहौल में उन्होंने न सिर्फ एक तफ्सीली बयान दिया बल्कि एक नज्म ‘आहंग-ए-नौ’ भी लिखी।
5 दिसम्बर, 1955 को महज 44 साल की उम्र में मजाज इस बेदर्द दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए।
मजाज को बहुत कम उम्र मिली। यदि उन्हें और उम्र मिलती, तो वे क्या हो सकते थे?, इसके बारे में शायर-ए-इंकलाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में लिखा है,
“बेहद अफसोस है कि मैं यह लिखने को जिन्दा हूं कि मजाज मर गया। यह कोई मुझसे पूछे कि मजाज क्या था और क्या हो सकता था। मरते वक्त तक उसका महज एक चौथाई दिमाग ही खुलने पाया था और उसका सारा कलाम उस एक चौथाई खुले दिमाग की खुलावट का करिश्मा है। अगर वह बुढ़ापे की उम्र तक आता, तो अपने दौर का सबसे बड़ा शायर होता।”
मजाज लखनवी अपनी सरजमीं लखनऊ की ही एक कब्रिस्तान में दफन हैं और कब्र पर उनकी ही मशहूर नज्म ‘लखनऊ’ का एक शे’र लिखा है-
अब इसके बाद सुब्ह है और सुब्हे-नौ मजाज
हम पर है खत्म शामे-गरीबाने-लखनऊ।
जाते जाते :
- भावों को व्यक्त करना हैं ग़ज़ल लिखने की चुनौती
- कैफ़ी ने शायरी को इश्कियां गिरफ्त से छुड़ाकर जिन्दगी से जोड़ा
- कमलेश्वर मानते थे कि ‘साहित्य से क्रांति नहीं होती’
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।