करीब 80 फिल्मों में गीत लिखने वाले क़ैफी आज़मी के गीतों में जिन्दगी के सभी रंग दिखते हैं। फिल्मों में आने के बाद भी उन्होंने अपने गीतों, शायरी का मैयार नहीं गिरने दिया।
सिने इतिहास की क्लासिक ‘कागज़ के फूल’ के उत्कृष्ट गीत उन्ही के कलम से निकले हैं। ‘अनुपमा’, ‘हक़ीकत’, ‘हंसते ज़ख्म’, ‘पाकीज़ा’ वगैरह फिल्मों के काव्यप्रधान गीतों ने उन्हें फिल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया।
फिल्मों से कैफ़ी का संबंध आजीविका तक ही सीमित रहा। उन्होंने अपनी शायरी और आदर्शों से कभी समझौता नहीं किया। क़ैफी, तरक्कीपसंद तहरीक के अगुआ और अज़ीम शायर थे।
वे इन्सान-इन्सान के बीच समानता और भाईचारे के बड़े हामी थे। उन्होंने अपने अदब के जरिए इन्सान के हक, हुकूक और इन्साफ की लंबी लड़ाई लड़ी। मुल्क की सांझा संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाया।
उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ जिले के छोटे से गांव मिजवां में 14 जनवरी, 1919 को एक जमींदार परिवार में जन्मे कैफ़ी बचपन से ही शायरी करने लगे थे। ग्यारह साल की उम्र में लिखी गयी उनकी पहली गजल,
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े।
को आगे चलकर गजल गायिका बेगम अख्तर ने अपनी मखमली आवाज दी। जो कि उस जमाने में खूब मकबूल हुई। कैफ़ी आजमी के घरवाले चाहते थे परिवार में एक मौलवी हो। लिहाजा उन्हें लखनऊ के मशहूर ‘सुल्तानुल मदारिस’ में पढ़ने के लिए भेजा गया। लेकिन कैफ़ी तो कुछ और करने के लिए बने थे।
हुआ क्या?, ये अफसानानिगार आयशा सिद्दकी के अल्फाजों में, “कैफ़ी साहब को सुल्तानुल मदारिस भेजा गया कि फातिहा पढ़ना सीखेंगे। लेकिन कैफ़ी साहब वहां से मजहब पर ही फातिहा पढ़कर निकल आए।”
मौलवी बनने का ख्याल भले ही उन्होंने छोड़ दिया, लेकिन अपनी पढ़ाई जारी रखी और प्राइवेट इम्तिहानात देकर उर्दू, फारसी, और अरबी की कुछ डिग्रियां हासिल की।
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किसानों के संघर्ष से प्रेरणा
अली अब्बास हुसैनी, एहतिशाम हुसैन और अली सरदार जाफरी की संगत मिली तो मार्क्सवाद का ककहरा सीखा। बाद में ट्रेड यूनियन राजनीति से जुड़ गए। ट्रेड यूनियन की राजनीति के सिलसिले में ही कानपुर जाना हुआ। जहां वे मजदूर तहरीक से जुड़े। उनके आंदोलनों में शिरकत की। मजदूर और किसानों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर उन्होंने उस वक्त कई शानदार नज्में लिखीं।
‘कौमी जंग’ और ‘नया अदब’ जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कैफ़ी आजमी की शुरूआती नज्में और गजलें प्रकाशित हुईं। रोमानियत और गजलियत से अलग हटकर उन्होंने अपनी नज्मों-गजलों को समकालीन समस्याओं के सांचे में ढाला।
ये लताफ़त, ये नज़ाकत, ये हया, ये शोख़ी
सौ दिए जुलते हैं उमड़ी हुई ज़ुल्मत के ख़िलाफ़
लब-ए-शादाब पे छलकी हुई गुलनार हँसी
इक बग़ावत है ये आईन-ए-जराहत के ख़िलाफ़
कैफ़ी आज़मी का दौर वह दौर था, जब पूरे मुल्क में आजादी की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर थी। मुल्क में जगह-जगह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन चल रहे थे। किसानों और कामगारों में एक गुस्सा था, जिसे तरक्कीपसंद तहरीक ने एक दिशा प्रदान की।
इस तहरीक से जुड़े सभी प्रमुख शायरों की तरह कैफ़ी ने भी अपनी नज्मों से प्रतिरोध की आवाज बुलंद की। किसानों और कामगारों की सभाओं में वे जब अपनी नज्म पढ़ते, तो लोग आंदोलित हो जाते। खास तौर से जब वे अपनी डेढ़ सौ अश्आर की मस्नवी ‘खानाजंगी’ सुनाते तो हजारों लोगों का मजमा इसे दम साधे सुनता रहता।
कैफ़ी आजमी आगे चलकर पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता के तौर पर साल 1943 में जब वे मुंबई पहुंचे, तब उनकी उम्र महज तेईस साल थी। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मुंबई इकाई नई-नई कायम हुई थी। वे पार्टी के फुल टाईमर के रूप में काम करने लगे।
पार्टी के दीगर कामों के अलावा उन्हें उर्दू दैनिक ‘क़ौमी जंग’ और ‘मजदूर मुअल्ला’ के संपादन की जिम्मेदारी मिली। इस दरमियान कैफ़ी आजमी ने उर्दू अदब की पत्रिका ‘नया अदब’ का भी सम्पादन किया।
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शायरी के बाग़ में नया फूल
कैफ़ी आजमी का आंदोलन से वास्ता आखिरी सांस तक बना रहा। उनकी सारी शायरी में प्रतिरोध का सुर बुलंद मिलता है। उन्होंने ब्रितानी साम्राजियत, सामंतशाही, पूंजीवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ जमकर लिखा।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भूमिगत जीवन गुजार चुके क़ैफी आजमी ने साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध किया। ‘तरबियत’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं,
मिटने ही वाला है खून आशाम देव-ए-जर का राज़
आने ही वाला है ठोकर में उलट कर सर से ताज।
साल 1944 में महज 26 साल की छोटी सी उम्र में कैफ़ी आजमी का पहला गजल संग्रह ‘झनकार’ प्रकाशित हो गया था। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्य सज्जाद ज़हीर ने उनके इस संग्रह की शायरी की तारीफ में जो बात लिखी, वह उनके तमाम कलाम की जैसे अक्काशी है, “आधुनिक उर्दू शायरी के बाग़ में नया फूल खिला है, एक सुर्ख़ फूल।”
‘आखिर-ए-शब’, ‘इबलीस की मजलिसे शूरा’ और ‘आवारा सज्दे’ कैफ़ी के दीगर काव्य संग्रह है। उन्होंने इंकलाब और आज़ादी के हक में जमकर लिखा। इसके एवज में उन्हें कई पाबंदियां और तकलीफें भी झेलनी पड़ीं। लेकिन उन्होंने अपने बगावती तेवर नहीं बदले।
कैफ़ी कॉलमनिगार भी थे। उनके ये कॉलम उर्दू साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ में नियमित प्रकाशित होते थे। ‘नई गुलिस्तां’ नाम से छपने वाला यह कॉलम राजनीतिक व्यंग्य होता था। जिसमें सम-सामयिक मसलों पर वे तीखे व्यंग्य करते थे।
शादी होने के बाद आर्थिक परेशानियों और मजबूरियों के चलते कैफ़ी ने मुंबई के एक व्यावसायिक अखबार ‘जमहूरियत’ के लिए रोजाना एक नज्म लिखी।
जब वे फिल्मों मे आये तो यहीं मजबुरी उसके पिछे थी, मगर पैसो के लिए उन्हेंने उन से कभी दगा नही किया। कैफ़ी ने फिल्मों के लिए जो गीत लिखे, वे किताब ‘मेरी आवाज सुनो’ में संकलित हैं।
साल 1973 में देश के बंटवारे पर केंद्रित फिल्म ‘गर्म हवा’ की कहानी, संवाद और पटकथा लिखने के लिए उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला। यही नहीं इसी फिल्म पर संवादों के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
कैफ़ी आज़मी बंटवारे और सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे। फिरकापरस्ती और धार्मिक कट्टरता जैसी अमानवीय प्रवृतियों पर प्रहार करते हुए कैफ़ी ने लिखा,
टपक रहा है जो ज़ख्मों से दोनों फिरकों के
ब गौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं
तुम इसका रख लो कोई और नाम मौंजू सा
किया है खून से जो तुमने वो वजू तो नहीं
समझ के माल मेरा जिसको तुमने लूटा है
पड़ोसियों ! वो तुम्हारी ही आबरू तो नहीं।
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शायरी को हुस्न, इश्क से बाहर निकाला
कै़फी मुबई में अंधेरी के चाल में जिस कमरे में रहते थे, वहीं उनके आस-पास बड़ी तादाद में मजदूर और कामगार रहते थे। मजदूरों-कामगारों के बीच रहते हुये उन्होंने उनके दुःख, दर्द को समझा और करीब से देखा। मजदूरों, मजलूमों का यही संघर्ष उनकी बाद की कविताओं में साफ परिलक्षित होता है,
सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।
कै़फी ने शायरी को हुस्न, इश्क और जिस्म से बाहर निकालकर आम आदमी के दुख-दर्द, संघर्ष तक पहुंचाया। अपनी शायरी को जिन्दगी की सच्चाइयों से जोड़ा। वे अत्याचार, असमानता, अन्याय और शोषण के खिलाफ ताउम्र लड़े और अपनी शायरी, नज्मों से लोगों को भी अपने साथ जोड़ा।
उनकी शायरी में समाजी, सियासी बेदारी साफ-साफ दिखाई देती है। सामाजिक समरसता, सांप्रदायिक सद्भाव को उन्होंने हमेशा अपनी शायरी में बढ़ावा दिया। स्त्री-पुरुष समानता और स्त्री स्वतंत्रता के हिमायती क़ैफी अपनी मशहूर नज़्म ‘औरत’ में लिखते हैं,
तोड़ कर रस्म का बुत बंदे-कदामत से निकल
ज़ोफे-इशरत से निकल, वहमे-नज़ाकत से निकल
नफ़्स के खींचे हुये हल्क़ाए-अज़मत से निकल
यह भी इक कै़द ही है, क़ैदे-मुहब्बत से निकल
राह का खार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे।
कैफ़ी ‘भारतीय जननाट्य संघ’ (इप्टा) के संस्थापक सदस्य थे। राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर वे कई साल तक रहे। इप्टा को वे आम जन तक अपनी बात पहुंचाने का सार्थक और सरल तरीका मानते थे। अपनी नज्मों और नाटकों से उन्होंने सांप्रदियकता पर कड़े प्रहार किये।
साल 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस, एक ऐसी घटना है जिसने देश में सांप्रदायिक विभाजन को और बढ़ाया। हिन्दू-मुस्लिम के बीच शक की दीवारें खड़ी कीं। कैफ़ी जिन्होंने खुद बंटवारे का दंश भोगा था, एक बार फिर सांप्रदायिक सौहार्द के लिए आगे आए और उन्होंने अपनी चर्चित नज़्म ‘दूसरा बनवास’ लिखी,
पांव सरजू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरजू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुये अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फिजा आई नहीं रास मुझे
छः दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे।
क़ैफी आजमी की वैसे तो सभी नज्में एक से एक बढ़कर एक हैं, लेकिन ‘तेलंगाना’, ‘बांगलादेश’, ‘फरघाना’, ‘मास्को’, ‘औरत’, ‘मकान’, ‘बहूरूपिणी’, ‘दूसरा वनबास’, ‘जिन्दगी’, ‘पीरे-तस्मा-पा’, ‘आवारा सज्दे’, ‘इब्ने मरियम’ और ‘हुस्न’ नज्मों का कोई जवाब नहीं।
अदबी और आवामी खिदमात के लिए क़ैफी आज़मी को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का ‘संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार’, ‘महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार’ और विश्व भारती यूनिवर्सिटी से ‘डी लिट्’ की उपाधि के अलावा कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों ‘अफ्रो-एशियन पुरस्कार’, ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ से नवाजा गया। 10 मई, 2002 को यह इंकलाबी शायर हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गया।
जाते जाते :
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- किसान और मजदूरों के मुक्तिदाता थें मख़दूम मोहिउद्दीन
- नामदेव ढ़साल : नोबेल सम्मान के हकदार कवि
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।