‘मूकनायक’ सौ साल बाद भी क्यों हैं प्रासंगिक?

भीमराव अम्बेडकर के अखबार मूकनायक’ के प्रकाशन की 31 जनवरी सौवीं वर्षगांठ थीं। उसी दिन मूकनायक का पहला अंक प्रकाशित हुआ था। इसका पहला अंक उन्होंने 31 जनवरी, 1920 को निकाला, जबकि अंतिम अखबार प्रबुद्ध भारतका पहला अंक 4 फरवरी, 1956 को प्रकाशित हुआ। मूकनायक का यह संपादकीय  डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन’ के पुस्तक से लिया गया है..

अभी मैं इच्छायें धारण करके क्या करू,

व्यर्थ ही तोमड़ी बजाकर क्या करूं?

संसार में खामोश लोगों की कोई नहीं सुनता,

अभी कोई लाज हित सार्थक नहीं है।

अगर भारत में सृजित पदार्थों एवं मानव जाति के सिनेमा की ओर एक प्रेक्षक के नाते देखा जाये तो यह देश केवल विषमताओं का मायका है। ऐसा निःसंदेह दृष्टिगोचर होगा।

यहां के सृजित पदार्थों की उपयुक्तता एवं विपुलता और उससे सम्बद्ध विशाल जनसमूह में विद्यमान दरिद्रताजन्य विषमता-यह इतनी मनोबेधी है कि इसकी ओर ध्यानाकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता।

तथापि जैसे ही विषमता की ओर ध्यान जाता है वैसे ही इस देश में रहने वाले मानव समूहों में विद्यमान दरिद्रता को शर्माने वाली उसकी बड़ी बहन विषमता हमारी आंखों के स​​मक्ष रहती है।

भारतीय लोगों में विद्यमान विषमता अनेक रूपी है। सामान्यतः शारीरिक तथा मानव जाति की आदि शाखाओं द्वारा उत्पन्न विषमता यहाँ है। काले, गोरे, लम्बे, ठिगने, छोटे नाक वाले, बड़ी नाक वाले, आर्य-अनार्य, गोझड़ खोपड़, यवनी, द्रविड़, अरब-ईरानी इत्यादि भेदभाव कुछ स्थानों पर जाग्रत रूप में पाये जाते हैं तो कुछ जगह सुप्त (शमित) रूप में।

कुछ स्थानों पर यह भेदभाव स्थिर रूप में। धार्मिक विषमता दैहिक व मानव कोटि शाखाओं द्वारा उत्पन्न विषमता से अधिक ज्वलंत रूप में स्थिर है और कभी-कभी तो यह धार्मिक विषमता चर्मोत्कर्ष पर पहुंच जाती है और वह रक्तपात के लिए आधार बन जाती हैं।

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हिन्दू, पारसी, यहूदी, मुसलमान, ख्रिश्चयन वगैरह धार्मिक विषमता के भेद कतिपय रूपों में यहां पाये जाते हैं परन्तु अधिक बारीक दृष्टि से देखने पर हिन्दू धर्मियों में विषमता का स्वरूप जितना कल्पनातीत है उतना ही निन्दास्पद है।

यह मांग, यह ब्राह्मण, यह शेणवी, यह मराठा, यह महार, यह चमार, यह कायस्थ, यह पारसी, यह कोरी, यह वैश्य, इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियों का हिन्दू धर्म के अन्तर्गत समावेश होता है।

एक-एक धर्मसत्ता की भावना की अपेक्षा भिन्न जातित्व की भावना की जड़ें कितनी गहरी हैं यह बात (विज्ञ) हिन्दू जनों को बताने की जरूरत नहीं है। एकाध यूरोपियन व्यक्ति से पूरें कि आप कौन हैं? इस प्रश्न का अंग्रेज, जर्मन, फ्रेंच, इटालियन इत्यादि प्रकार के उत्तर से किसी की तृप्ति नहीं होती।

उसे अपनी जात क्या है, यह बताना पूर्ण आवश्यक है अर्थात् अपनी निर्दिष्ट वैयक्तिकता व्यक्त करने के लिए प्रत्येक हिन्दू को इसकी विषमता पग-पग पर उजागार करनी पड़ती है।

विद्यमान में यह विषमता हिन्दू धर्मियों में जितनी अनुपम है उतनी ही निंदास्पद भी है। कारण कि इस विषमता के अनुरूप होने वाले व्यवहार का स्वरूप हिन्दू धर्म की शील (नैतिकता) के लिए शोभनीय नहीं है। हिन्दू धर्म में समाविष्ट होने वाली जातियां ऊंच-नीच की भावना से प्रेरित है यह उजागर है।

हिन्दू समाज एक मीनार है और एक-एक जाति इस मीनार का एक-एक तल (मंजिल) है। ध्यान देने की बात यह है कि इस मीनार में सीढ़ियां नहीं हैं, एक तल से दूसरे तल में जाने का कोई मार्ग नहीं है। जो जिस तल में जन्म लेता है वह उस तल (जाति) में मरता है।

नीचे के तल का मनुष्य कितना ही लायक हो उसका ऊपर के तल में प्रवेश संभव नहीं। परन्तु ऊपर के तल का मनुष्य चाहे कितना भी नालायक हो उसे नीचे के तल में धकेल देने की हिम्मत किसी में नहीं।

खुली भाषा में कहा जाये तो जाति-जाति में बसी ऊंच-नीच की भावना, गुणो और अवगुणों के आधार पर नहीं। उच्च जाति में जन्मा व्यक्ति कितना भी अवगुणी हो उसे ऊंचा ही कहा जायेगा। इसके साथ ही नीच जाति में जन्मा व्यक्ति कितना भी गुणी हो तो भी नीचे रखा जायेगा।

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दूसरे वह कि परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार न होने के कारण प्रत्येक जाति इन घनिष्ठ संबंधों में स्वयंभू पृथक जाति है। यदि निकट संबंधों की बात अलग कर दें तब भी परस्पर बाह्य व्यवहार अनियंत्रित नहीं है। कुछ का व्यवहार दरवाजे तक है तो कुछ जाति से बाहर अस्पृश्य हैं, अर्थात् इन जातियों के लोगों का स्पर्श होने से दूसरी जातियों के व्यक्ति अपवित्र हो जाते हैं।

अपवित्रता के कारण बहुत कम व्यवहार (संबंधों का आदान-प्रदान) होता है। रोटी-बेटी के व्यवहार के अभाव कायम होने से परायापन स्पृश्यापृश्य भावना से इतना ओतप्रोत है कि वह जाति हिन्दू समाज से बाहर (बहिष्कृत) है ऐसा कहना चाहिए।

इस व्यवस्था के कारण हिन्दू धर्मी, ब्राह्मणेतर व बहिष्कृत-ऐसे तीन वर्ग हो गये हैं। वैसे यह विषमता के परिणाम की ओर ध्यान देने से दिखता है कि उसी आधार पर विविध जातियों पर विविध परिणाम हुए हैं। सबसे उच्च हुए ब्राह्मण वर्ग को हम भूदेव हैंऐसा लगता है, सभी मनुष्यों का जन्म हमारी सेवा के लिए है।

ऐसा मानने वाले भूदेवों के लिए यह रूढ हुई विषमता पोषक है। इसलिए स्वयं निर्मित अधिकार से हमारी सेवाएं लेते हैं, अपने राजरसपन से वे बिना कोई कष्ट उठाये मेवा खाते हैं। इसके लिए उन्होंने कुछ कर्म (करणी) किये हैं। वह उनके ज्ञानसंचय व धर्मशास्त्रलेखन इतना कुछ हैं। परन्तु ये धर्म शास्त्र आचार-विचारों के प्रबल विरोधाभास की गुंथी हैं।

ये उदार विचार और अनुदार आचारों का मिश्रण करने वाले धर्मशास्त्रकार किसी मद में थे, ऐसा लगता है कारण चेतन और अचेतन समस्त वस्तुएं सब ही ईश्वर के रूप हैं ऐसे उपदेशक तत्ववादियों के आचार में इतनी विलक्षण विषमता दिखती है जो किसी (रचनाकार) के होशहवास में रहने के लक्षण नहीं हैं।

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बुरा-भला कुछ भी हो परन्तु धर्म शास्त्रों की छाप लोगों पर कम नहीं। स्वयं अज्ञानी लोग अपने हितशत्रू को भूदेव कहकर उसका पूजन करते हैं, यह कौन कबूल करे? विद्या तक धर्म भावना की श्रृंखला में जकड़े शत्रू को मित्र समझते हुए उसके पैरों में इतर जन लीन हो गये हैं यह तथ्य उजागर करने के लिए हमें अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।

अज्ञानी लोगों से कुछ भी करवाया जा सकता है और इसीलिए ज्ञान संचय, प्रसार नहीं, यह ब्राह्मणों की बपौती है। यह एक धर्म का बड़ा तत्व बनकर रह गया है।

उस महारी (अछूतपन) को प्राप्त करने का पातक अन्य लोग नहीं करें-ऐसे फरमान के बावजूद चोरी-छिपे ज्ञान प्राप्त करने और सज्ञान होने पर परंपरा से चले आ रहे आचार-विचार छोडकर स्वच्छंदता से लिखे गये ये विद्यातक धर्म शास्त्र तलवार के जोर जैसे अधर्मी ब्राह्मणेतर के मत्थे मारने के उदाहरणों की कमी नहीं हैं।

सत्ता व ज्ञान अनुभव अभाव के कारण ही ब्राह्मणेतर जातियां पिछड़ी रहीं व उनकी उन्नति नहीं हुई, यह निर्विवाद है। किन्तु उनके दुख में कम से कम दरिद्रता सम्मलित नहीं है।

कारण खेती, व्यापार, उद्योग अथवा नौकरी करके अपना भरणपोषण करना उसके लिए मुश्किल नहीं। परन्तु यह सामाजिक विषमता का बहिष्कृत समाज पर घोर परिणाम है। दौर्बल्य, दरिद्रता व अज्ञान इस त्रिवेणी संगम में यह अटूट बहिष्कृत वर्ग प्रवाहित हो गया-ऐसा दिखना ही खास है।

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लम्बे समय से इनके मन-मस्तिश्क पर दासताजन्य हीनता की जो छाप पड़ी वह उन्हें पीछे खींचती है। यथास्थिति ही उचित है इसकी अपेक्षा अच्छी हालत हमें नसीब नहीं, ऐसी समझ के पातकपन की ओर पतितों का ध्यान जाने के लिए ज्ञान सरीखा दूसरा काजल (अंजन) नहीं है

परन्तु ज्ञान भी आज मिर्च-मसालों की तरह बिकता हुआ नजर आता है और दरिद्रता के कारण यह दुर्लभ है। द्वार-द्वार पर बिकते हुए भी यह नहीं मिलता। कारण यह कि ज्ञान मंदिरों (विद्यालयों) में भी अस्पृश्यों को प्रवेश मिलना संभव नहीं है।

दरिद्रता को दरकिनार करने के लिए छुआछूत का धब्बा माथे पर लगा होने के कारण धनार्जन करने के लिए न अवसर हैं और न अनुमति। ये दोनों न होने से व्यापार, उद्यम इत्यादि धंधों के क्षेत्र में उनको विरले ही प्रवेश मिल पाता है।

भाग्य आजमाने के लिए कोई जगह न मिलने के कारण केवल धरती की मिट्टी खाने के लिए वह विवश है। ऐसे अस्पृश्यों व बहिष्कृत लोगों को निश्चित रूप से बुरी हालत में फंसे पड़े हुए देखकर हिन्दुओं के ये 33 करोड़ देवता उनका इलाज (निदान) नहीं करेंगे लेकिन अल्लाह को उन पर दया अवश्य आयेगी।

परन्तु मनुष्य कोटि के अलावा अन्य प्राणियों को उस कारण बहुधा धिक्कार होगा। कारण यह कि मनुष्यता रूपी हीरा प्राप्त करने के लिए जो लोग प्रयत्न नहीं करते वे मनुष्य नहीं जंतु हैं, ऐसा कहना होगा।

परन्तु बन्धनों में जकड़े हुए मनुष्य को जन्तुओं की तरह रहने के अतिरिक्त चारा क्या? ऐसा कहने वाले मौजूदा स्थिति के पक्षधर लोग बहिष्कृत समाज के नहीं हैं ऐसा नहीं। दरिद्रता के कारण ज्ञान नहीं और ज्ञान न होने से बल नहीं, वह युक्तिवाद (सिद्धान्त) सच्चा है परन्तु जुझारू लोगों के लिए यह सिद्धान्त अशोभनीय है।

उनमें मनुष्यतत्व का अभाव है, यह विस्मृत नहीं करना चाहिए। बन्धनों को तोड़-फोड़ कर निकलने में ही जिन्दादिली है। इस मर्दानगी का संचार दलित समाज में हो रहा है। यह सुलक्षण है।

प्रचलित हिन्दू धर्म के अतिघोर अन्याय से हमारे समाज को अस्पृश्य मानने का महापातक, विश्वजनक प्रभु को जुबान पर न लाते हुए करोड़ों वर्ष अविवेकी व दुराग्रही लोग जब तक इस देश में विचरते हैं, तब तक अपना समाज निकृष्ट स्थिति में कटता-खपता रहेगा। यह जानकारी इस बहिष्कृत समाज के लोगों को एक सीमा तक हुई है। (यहाँ के कुछ पॅराग्राफ अपाठ्य़ हैं)

मूकनायक की चर्चा लगातार होती है। परन्तु ब्राह्मणेतर विशाल संज्ञा के दायरे में आने वाली अनेक जातियों का जहां ख्याल होता है वहां बहिष्कृतों के प्रश्नों का सांगोपांग ऊहापोह होने के लिए पर्याप्त स्थान मिलना संभव नहीं हैं।

यह बात भी उतनी ही स्पष्ट है। उनकी अतिविकट स्थिति से जुड़े प्रश्नों की विवेचना करने के लिए एक स्वतंत्र पत्र होना चाहिए। यह कोई भी स्वीकार करेगा। उक्त रिक्ति को भरने के लिए ही इस पत्र (मूकनायक) का जन्म हुआ है।

अस्पृश्यों के हिताहित की खासकर चर्चा करने के लिए ‘सोमवंशीय मित्र’, ‘हिन्द नागरिक’, ‘विटाल विध्वंसक’ इन पत्रों का उदय हुआ और यह बन्द हो गये।

आजकल चल रहा बहिष्कृत भारत’ जैसे-तैसे दिन गुजार रहा है परन्तु यदि चन्दादाताओं की ओर से उचित प्रोत्साहन मिलता रहे तो मूकनायक’ बिना डगमगाये स्वजनोद्धार के महत्त्वपूर्ण कार्य का उचित पंथ दिखायेगा। ऐसा आश्वासन अनुभव के आधार पर गलत सिद्ध नहीं होगा ऐसी आशा के साथ मैं निवेदन को यही विराम देता हूं।

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