सैय्यद अब्दुल्ला (Syed Abdullah Khan) दिल्ली के लोगों के मध्य अपने सौम्य और अच्छे व्यवहार के लिए लोकप्रिय था। वह निर्धनों की मदद करने के लिए हमेशा तत्पर रहता था, इसलिए उसे जनता बहुत चाहती थी। वह विद्वान लोगों को संरक्षण देने के लिए विख्यात था।
बादशाह फ़र्रुखसियर (Farrukhsiyar) की हत्या और पूर्व में उसके साथ किये गए भयानक व्यवहार के लिए उसका नहीं उसके भाई सैय्यद हुसैन अली (Husain Ali Khan Barha) और दीवान रतनचंद का दोष अधिक था। उसका इतना दोष अवश्य माना जा सकता है कि सैय्यद अब्दुल्ला ने उन्हें कड़ाई से नहीं रोका।
ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि सैय्यद अब्दुल्ला भ्रष्ट हो अथवा किसी के प्रति दुर्भावना रखता हो। छोटा भाई सैय्यद हुसैन अली खान कम लोकप्रिय था, क्योकि वह स्वभाव से गुस्सैल था। पर वह निश्चित रूप से अधिक फुर्तीला, त्वरित और संवेदनशील था, जबकि सैय्यद अब्दुल्ला अपेक्षाकृत सुस्त रहा करता था।
अपने गुस्से के साथ-साथ सैय्यद हुसैन अली बहुत अहंकारी और कड़क मिज़ाज था। समय पड़ने पर वह निर्लज्जता की सीमा तक धूर्त भी हो जाता था। तब वह सौम्यता की सभी सीमाएं पार कर जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके सहयोगी तथा आम लोग बराबर रूप से उसको नापसंद करने लगे थे।
सैय्यदों (Sayyid brothers) के इस चर्चित ख़ानदान के तमाम लोगों को सन 1721 में, जब सैय्यद अब्दुल्ला कैद में था, बहुत बुरा वक्त देखना पडा। फिर भी इस वंश के काफी लोग उस समय तक बच गए थे। इनमें से जो अपेक्षाकृत रूप से महत्त्वपूर्ण पदों पर बने रहे, उनमें सैय्यद असद उल्लाह, सैय्यद जां निसार ख़ान, सैय्यद इखलास ख़ान, सैय्यद असद अली ख़ान लंगडा, सैय्यद दिलावर ख़ान और सैय्यद फ़िरोज़ अली ख़ान का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
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नामोनिशान मिटाने कि जुगत
इस पराजय के बाद दोनों सैय्यद भाइयों की यह मुजफ्फरनगर की मुख्य जायदादें मुहंमद अमीन ख़ान को सौंप दी गई थीं जिसने इस जनपद में अपना प्रभुत्व कायम करने में कोई समय नहीं गंवाया। ठीक इसी समय निजाम उल मुल्क (Nizam-ul-mulk) मीर कमरुद्दीन ख़ान सैय्यद भाइयों के बचे-खुचे गौरव का प्रतिरोध करने के लिए लगातार संघर्षरत रहा। बाद में भी उसे इस वंश के एक मजबूत, सक्रिय और दुस्साहसी विरोधी के रूप में जाना गया।
सन 1722 में सैय्यद अब्दुल्ला (Syed Abdullah) के मौत के बाद सन 1724 में उसके जिन्दा बचे भाइयों में से सबसे छोटे नज्म-उद-दीन अली ख़ान को कुछ समय तक गुजरात के गवर्नर सलरबलंद ख़ान के अधीन रोजगार मिल गया था, लेकिन यह अवधि बहुत अल्प थी।
वह इसमें अपना कोई प्रभाव भी नहीं छोड़ पाया था। इस वंश के अन्य लोग साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में किसी न किसी काम-धंधे में लगे रहे। जैसे-जैसे यह जानकारी मिलने लगी, मीर कमरुद्दीन ख़ान, जो इन सैय्यदों का धुर विरोधी था, चिंतित हो उठा। उसने कहा भी कि, “सांप का फन कुचल दिया गया है, पर वह अभी भी मरा नहीं।”
उसने कसम ली कि उसे मौका मिलते ही ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि मुजफ्फरनगर जनपद में हर उस चीज से सैय्यद बंधुओं का नाम मिटा दिया जाए, जिस पर उनका कभी वर्चस्व रहा था। वह बारहा सैय्यदों के नाम को मुजफ्फरनगर के तमाम सरकारी अभिलेखों और अंततः इतिहास से हमेशा के लिए विस्मृत करने के लिए प्रतिबद्ध था।
इतिहास में ऐसी नकारात्मक प्रतिबद्धता भी कम ही देखने को मिलती है। दरअसल उसकी यह बदले के भावना की प्रतिबद्धता व्यक्तिगत दुश्मनी से नहीं उभरी थी, बल्कि उसकी जड़ें उन दोनों वंशों की भिन्नता की नफरत में छिपी थी। सैय्यद भाई शिया थे, जबकि मीर कमरुद्दीन संप्रदाय सुन्नी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था।
इस वजीर ने लंबे समय तक मुख्य धारा में रहे इस वंश के बचे हुए लोगों को शहंशाह के नजदीक रहने योग्य कोई रोजगार नहीं मिलने दिया। सन 1737 में उसने एक चाल और भी चली। यह बात सबको पता थी कि सैय्यद अब्दुल्ला की मौत के बाद से सैय्यद सैफ-उद-दीन अली ख़ान जानसठ में अपनी पारिवारिक जायदाद में रहकर अवकाश की ज़िन्दगी बिता रहा था।
उसका इरादा था कि सैय्यद सैफ को अप्रत्यक्ष रूप से इस कदर उकसाया जाए कि उसके विरोध को बादशाह के विरुद्ध बगावत के तौर पर रंग देकर प्रचारित किया जा सके। इस साजिश के लिए मरहमत ख़ान को इस निर्देश के साथ सहारनपुर से जानसठ भेजा गया कि सैय्यद वंश के सभी बचे-खुचे सदस्यों और उनके आश्रितों की सभी जमीनें राज्य के कब्जे में ले ली जाएँ।
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निज़ाम उल मुल्क की भूमिका
मरहमत ख़ान एक निर्दयी, क्रूर और असंवेदनशील व्यक्ति था। उसने इन आदेशों को जरूरत से कहीं अधिक तत्परता की भावना में लिया। उसने भारी संख्या में सैन्य बल के साथ जानसठ पहुँच कर हिंसा का अनावश्यक तांडव करना शुरू किया। इससे खिन्न होकर सैय्यद भाइयों के परिजनों ने एकजुट होकर उसका ऐसा मुकाबला किया कि मरहमत ख़ान के साथ ही उसके साथियों और तमाम सैनिकों को भी अपनी जिन्दगियों से हाथ धोना पडा।
इस खबर से कमरुद्दीन ख़ान को खुशी हुई कि इससे अब उसे सैय्यद भाइयों को नेस्तनाबूद करने का बहाना मिल जाएगा। उसने रोहिल्ला अली मुहंमद के अधीन अफगानों के एक बड़े शक्तिबल तुर्रानियों को इस काम के लिए तैनात किया। साथ ही कटहर, शाहजहाँपुर और शाहाबाद के गवर्नरों को इस युद्ध के लिए तैयार किया गया।
मुग़ल बादशाह के वजीर के इस सैन्य बल ने तिहानपुरी सैय्यदों के जानसठ स्थित मुख्यालय की ओर कूच किया। रास्ते में खतौली मार्ग पर जानसठ से सात मील दूर भैंसी गाँव में सैय्यद सैफ-उद-दीन को परास्त किया गया। उसके बाद जानसठ कस्बे को घेर लिया गया और आगामी तीन दिन-तीन रातों तक लूटमार, हत्याओं तथा बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिया गया।
यह वही रोहिल्ला अली था जिसने एक महत्त्वपूर्ण सैय्यद भाई सैफ-उद-दीन को पूर्व अभियान में अपने हाथों से मार डालने का श्रेय लिया था। इसके लिए उसे सल्तनत की ओर से तमाम इनाम और लाभ तो मिले ही थे, इसे अपनी टुकड़ी के साथ सम्मान में ड्रम बजाने की भी स्वीकृति प्राप्त हुई थी।
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वंशजों का सर्वनाश
सैफ-उद-दीन की मौत से इस जनपद में उस समय तक भी मजबूती से स्थापित सैय्यद भाइयों को बहुत झटका लगा था।
जब सैय्यदों ने देखा कि स्थिति उनके प्रतिकूल है, और बचाव का कोई रास्ता नहीं है, तब उनमें से अधिकाँश ने खुद ही जानसठ छोड़कर लखनऊ, बरेली, आंवला और नगीना की ओर कूच कर वहाँ बस गए। जानसठ वाले सैय्यद बंधुओं की एक शाखा बंगाल के पूर्णिया जनपद में भी पाई जाती थी। वहाँ के प्रतिष्ठित पीर बीरभूम के सैय्यद अब्दुल्ला किरमानी इन्हीं मुजफ्फरनगर वाले सैय्यद भाइयों के वंशज बताये जाते हैं।
कुछ समय तक छतरुआरियों ने सैय्यदों के वहाँ से चले जाने का फायदा उठाया, पर मुजफ्फरनगर के मोरना कस्बे के पास स्थित शुक्रताल में किला बनाने से फिर से उनके लिए दिक्कतें उत्पन्न होने लगी। पठान भी सैय्यद वंश की बची हुई शाखाओं के वंशजों का सर्वनाश करना चाहते थे।
उधर बहसूमा के गूजर मुखियाओं ने बचे हुए सैय्यद भाइयों के परिवारों के किसी प्रकार का गठजोड़ होने से रोकने के लिए तमाम प्रभावी प्रयास किये। पठान और गूजर अब इस इलाके के पुराने कुलीन सैय्यद बंधुओं के विरुद्ध खुल कर सामने आ ही चुके थे, अब कुछ जाट और राजपूत समुदाय के लोग भी इनके विरुद्ध हो गए।
उत्तरी दिशा में पुर छपार और पूर्व दिशा में भोकरहेडी में लंढौरा के गुर्जर समुदाय के मुखिया का प्रभुत्व हो चला था, जबकि भूमा, खतौली और जानसठ बहसूमा की जगहें नवाब ने कब्जा लीं थीं।
जिन जगहों पर गूजरों ने अपना दावा नहीं ठोका, उन गाँवों के प्रमुख समुदायों ने या तो खुद को आज़ाद घोषित कर दिया अथवा पठानों के अधीन रहना पसंद किया। जाट और राजपूत जो सैय्यदों के अधीन रहते आए थे अब मिलकर उनके विरुद्ध खड़े हो चले थे।
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मराठाओं ने उठाया फायदा
मुजफ्फरनगर के दक्षिण-पश्चिम में एक राजपूत परिवार को रोहिल्ला सरदार नजीबुदौल्ला के बेटे जाबिता ख़ान से कई गाँवों का एक समूह ईनाम के रूप में मिला था। इन गाँवों में ऐसे तमाम गाँव शामिल थे, जो पूर्व में सैय्यद भाइयों की जागीर का भाग रहे थे।
इसी बीच सन 1751 में अहमद शाह अब्दाली (Ahemad Shah Abdali) फिर से पंजाब के परिदृश्य पर आ पहुंचा। उसने सफदर जंग (Safdar Jung) को चुनौती देने के लिए संदेश भेजा। यद्यपि वह इसका मुकाबला करने के लिए तैयार नहीं था परंतु मराठा मित्रों होलकर तथा सिंधिया की सलाह पर उसने इस हेतु पहले पठानों से शांति संबंध स्थापित किए ताकि वह अब्दाली का मुकाबला करने के लिए अपना ध्यान केंद्रित कर सके।
सन 1752 में लखनऊ की संधि के बाद सफदर जंग को दोआब के क्षेत्र में एक बड़ी जागीर मिली थी। तब इसी जागीर में मुजफ्फरनगर जनपद भी शामिल था। यह जागीर सन 1803 तक सफ़दर जंग के पास रही पर बाद में सिंधिया पर लॉर्ड लेक द्वारा विजय करने के बाद उस पर हुए खर्चे का हिसाब करते हुए यह जायदाद ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन गई थी।
मराठों ने अपर दोआब के सहारनपुर के आसपास के क्षेत्रों को जबरदस्ती अपने कब्जे में लिया था और वहाँ से राजस्व की वसूली करना शुरू कर दिया था। होलकर तथा सिंधिया की दिल्ली से रवानगी के बाद पठानों और रोहिल्ला ने फिर से रानी माँ उधम बाई का सफदर जंग के विरुद्ध लड़ाई में साथ दिया और मराठों के इस एजेंट को दोआब क्षेत्र से खदेड़ दिया। इस प्रकार से सफदर जंग पूरी तरह से सत्ता से बेदखल हो गया।
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लेखक आगरा स्थित साहित्यिक हैं। भारत सरकार और उत्तर प्रदेश में उच्च पदों पर सेवारत। इतिहास लेखन में उन्हें विशेष रुचि है। कहानियाँ और फिक्शन लेखन तथा फोटोग्राफी में भी दखल।