जनवरी, 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जब मुहंमद रफी ने ‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’ गीत गाया, तो इस गीत को सुनकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आंखें नम हो गईं।
बाद में उन्होंने मो. रफी को अपने घर भी बुलाया और उनसे वही गीत की फरमाइश की। नेहरू उनके इस गाने से इतना मुतास्सिर हुए कि स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ पर उन्होंने मुहंमद रफी को एक रजत पदक देकर सम्मानित किया।
मो. रफी को अपनी जिन्दगानी में कई सम्मान-पुरस्कार मिले, दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसकों ने उन्हें ढेर सारा प्यार दिया। लेकिन नेहरू द्वारा दिए गए, इस सम्मान को वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान मानते थे।
फिल्मी दुनिया के अपने साढ़े तीन दशक के कैरियर में रफी साहब ने देश-दुनिया की अनेक भाषाओं में हजारों गीत गाये और गीत भी ऐसे-ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के कदम वहीं ठिठक कर रह जाते हैं। उनकी मीठी आवाज जैसे कानों में रस घोलती है। दिल में एक अजब सी कैफियत पैदा हो जाती है।
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दिलों पर राज करती शख्सियत
मो. रफी को इस दुनिया से गुजरे चार दशक हो गए, लेकिन फिल्मी दुनिया में उन जैसा कोई दूसरा गायक नहीं आया। इतने लंबे अरसे के बाद भी वे अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करते हैं। हिन्दी गीतों की दुनिया में कई मौसम आए और चले गए, लेकिन मो. रफी का मौसम अभी भी जवां है। वे सदाबहार थे, सदाबहार हैं और आगे भी रहेंगे।
हिन्दी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले मो. रफी की पैदाइश 24 दिसंबर, 1924 को अमृतसर (पंजाब) के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुई थी। उनके परिवार का संगीत से कोई खास सरोकार, लगाव नहीं था। मो. रफी ने खुद इस बात का जिक्र अपने एक लेख में किया था।
साल 1935 में रफी के अब्बा गम-ए-रोजगार की तलाश में लाहौर आ गए। मो. रफी की गीत-संगीत की चाहत यहां भी बनी रही। रफी की गायकी को सबसे पहले उनके घर में बड़े भाई मुहंमद हमीद और उनके एक दोस्त ने पहचाना। इस शौक को परवान चढ़ाने के लिए, उन्होंने रफी को बकायदा संगीत की तालीम दिलाई।
मुहंमद रफ़ी ने अपना पहला नगमा साल 1941 में महज सतरह साल की उम्र में एक पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकोर्ड किया था, जो साल 1944 में रिलीज हुई। इस फिल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘सोनिये नी, हीरिये ने’। संगीतकार श्याम सुंदर ने ही मो. रफी को हिन्दी फिल्म के लिए सबसे पहले गवाया। फिल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो साल 1945 में रिलीज हुई।
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ये ज़िन्दगी के मेले
उस वक्त भी हिन्दी फिल्मों का मुख्य केन्द्र बम्बई ही था। लिहाजा अपनी किस्मत को आजमाने मो. रफी बम्बई पहुंच गए। उस वक्त संगीतकार नौशाद ने फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे। उनके वालिद साहब की एक सिफारिशी चिट्ठी लेकर मो. रफी, बेजोड़ मौसिकार नौशाद के पास पहुंचे।
नौशाद साहब ने रफी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए। फ़िल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने का मौक़ा उन्होंने रफ़ी को काफ़ी बाद में दिया।
नौशाद के संगीत से सजी ‘अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फिल्म थी, जिसके गीत ‘तेरा खिलौना टूटा’ से रफी को काफी शोहरत मिली। इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म ‘मेला’ (1948) का सिर्फ़ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘ये ज़िन्दगी के मेले दुनिया में’, जो सुपर हिट साबित हुआ।
इस गीत के बाद ही संगीतकार नौशाद और गायक मुहंमद रफी की जोड़ी बन गई। इतिहास गवाह है कि इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपर हिट गाने दिए। अनेक फिल्मों ने नौशाद और मो. रफी ने अपने संगीत-गायन से लोगों का दिल जीत लिया।
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हरफनमौला सिंगर
जिसमें भी साल 1951 में आई फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत तो नेशनल एंथम बन गए। खास तौर पर इस फिल्म के ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द’, ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज’ गानों में नौशाद और मुहंमद रफी की जुगलबंदी देखते ही बनती है।
नौशाद के लिए मो. रफी ने तकरीबन 150 से ज्यादा गीत गाए। उसमें भी उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित जो गीत गाए, उनका कोई मुक़ाबला नहीं। मसलन ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ (फिल्म कोहिनूर)
1950 और 60 के दशक में मुहंमद रफी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों मसलन शंकर जयकिशन, सचिनदेव बर्मन, रवि, रोशन, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, हेंमत कुमार, ओ.पी नैयर, सलिल चौधरी, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, खैयाम, आर. डी. बर्मन, उषा खन्ना आदि के साथ सैंकड़ो गाने गाए।
हीरो हो या कॉमेडियन सब के लिए उन्होंने प्लेबैक सिंगिंग की, लेकिन गायन की अदायगी अलग-अलग। मो. रफी के गीतों का ही जादू था कि कई अदाकार अपनी औसत अदाकारी के बावजूद फिल्मों में लंबे समय तक टिके रहे।
सिर्फ गानों की बदौलत उनकी फिल्में सुपर हिट हुईं। रफी साहब के गाने का अंदाज भी निराला था। जिस अदाकार के लिए वे प्लेबैक सिंगिंग करते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही यह गाना गा रहा है।
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दरियादिल इन्सान
मुहंमद रफ़ी अपने पेशे के लिए बहुत ही समर्पित इन्सान थे। शोहरत की बुलंदियों को छूने के बाद भी कभी कोई बुरा शौक उन्हें कभी छू नहीं पाया। फिल्मों में तरह-तरह के गीत गाने वाले रफी अपनी आम जिन्दगी में कम ही बोलते थे।
इंटरव्यू और फिल्मी पार्टियों से दूर रहते। हँसमुख और दरियादिल ऐसे कि हमेशा सबकी मदद के लिये तैयार रहते थे। कई फिल्मी गीत उन्होंने बिना पैसे लिये या बेहद कम पैसे लेकर गाये थे।
रफी ने सैंकड़ों फिल्मों के लिए गाने गाये लेकिन खुद उन्हें फिल्में देखने का बिल्कुल शौक नहीं था। परिवार के साथ कभी उनकी जिद पर कोई फिल्म देखने जाते, तो फिल्म के दौरान सो जाते। अपने परिवार और खास दोस्तों के साथ बैडमिंटन, कैरम खेलना और पतंग उड़ाना उनके मुख्य शौक थे।
हिन्दी सिनेमा के गीत-संगीत की जब भी बात होगी, मो. रफी उसमें हमेशा अव्वल नंबर पर रहेंगे। 31 जुलाई, 1980 आज ही के दिन यह सदाबहार फनकार हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गया था। जब उनका इंतिकाल हुआ, उस दिन बंबई में मूसलाधार बारिश हो रही थी।
इस बारिश के बावजूद, अपने महबूब गुलूकार के जनाजे में शिरकत करने के लिए हजारों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े थे और उन्हें रोते-सिसकते अपनी आखिरी विदाई दी।
भारत सरकार ने उनके एहतिराम में दो दिन का राष्ट्रीय शोक का एलान किया। यह सारी बातें मो. रफी की अज्मत बतलाने के लिए काफी हैं। वरना उनके गायन और गीतों के बारे में इतने किस्से हैं कि किताबों के हजारों सफहे कम पड़ जाएं।
महज पचपन साल की उम्र में मो. रफी इस दुनिया से रुखसत हो गए। इस अजीम फनकार, की मौत पर उन्हें अपनी खिराजे अकीदत पेश करते हुए, संगीत के सिरमौर नौशाद ने क्या खूब कहा था,
‘कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया
साहिल पुकारता है, समंदर चला गया
लेकिन जो बात सच है कहता नहीं कोई
दुनिया से मौसिकी का पयम्बर चला गया।’
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।