महाराष्ट्र में दलित साहित्य की शुरुआत करने वालों में अन्नाभाऊ का नाम अहमियत के साथ आता है। वे दलित साहित्य संगठन के पहले अध्यक्ष रहे। इसके अलावा भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) ने उन्हें जो जिम्मेदारियां सौंपी, उन्होंने उनका अच्छी तरह से निर्वहन किया।
लोकनाट्य ‘तमाशा’ के मार्फत अन्नाभाऊ ने दलित आंदोलन के संघर्षों को अपनी आवाज दी। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने लाल झंडे के गीत, मजदूरों के गीत लिखे, तो दलित आंदोलन के संघर्षों को भी अपनी आवाज दी। अपने गीतों के मध्यम से वे गरीबों और वंचितों की कहानी कहते थे। जिसका जनमानस पर गहरा असर होता था।
साल 1945 में अन्नाभाऊ साठे साप्ताहिक अखबार ‘लोकयुद्ध’ से जुड़ गये। यह अखबार साम्यवादी विचारधारा को समर्पित था। अखबार से जुड़कर, उन्होंने आम आदमी की समस्याओं और सवालों को प्रमुखता से उठाया। इस दौरान ही उन्होंने अपनी बात और विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य की सभी विधाओं का सहारा लिया।
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साहित्यिक परिप्रेक्ष्य
अन्नाभाऊ का समूचा लेखन यदि देखें, तो यह यथार्थवादी लेखन है। उनके लेखन में कल्पना, फैंटेसी सिर्फ उतनी है, जितनी जरूरी। वे रूसी लेखक गोर्की से बेहद प्रभावित थे। गोर्की की तरह ही उन्होंने भी अपने साहित्य में हाशिये के पात्रों को जगह दी। ऐसे लोग जो साहित्य में उपेक्षित थे, उन्हें अपने साहित्य का नायक बनाया। वे खुद कहते थे, ‘‘मेरे सभी पात्र, जीते-जागते समाज का हिस्सा हैं।’’
वैसे लोकयुद्ध में काम करने के दौरान अन्नाभाऊ ने लिखना शुरु किया था। उन्होंने कथा और उपन्यासों के साथ लोकनाट्य तशा शाहिरी गीतों कि भी रचना की। उन्होंने 40 के आसपास उपन्यास और कथासंग्रह लिखे जिनमें ‘वैजयंता’, ‘माकडीचा माळ’, ‘चिखलातील कमल’, ‘वारणेचा वाघ’, ‘अमृत’, ‘राणबोका’, ‘कुरूप’, ‘चंदन’, ‘अहंकार’, ‘आघात’, ‘वारणेच्या काठी’, ‘रानगंगा’ और ‘फकीरा’ शामिल हैं।
उन्होंने 300 के आस-पास कहानियां लिखीं। ‘चिरागनगरची भुतं’, ‘कृष्णाकाठच्या कथा’, ‘फरारी’, ‘निखारा’, ‘भानामती’, और ‘आबी’ समेत अण्णाभाऊ के कुल 14 कहानी संग्रह हैं। वहीं ‘इनामदार’, ‘पेद्याचं लगीन’, ‘देशभक्त घोटाळे’ और ‘सुलतान’ उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।
अन्नाभाऊ साठे ने ‘तमाशा’ के लिए कई लोकनाट्य भी लिखे मसलन ‘देशभक्ते घोटाले’, ‘पुढारी मिळाला’, ‘बेकायदेशीर, ‘माझी मुंबई’ और ‘मूक मिरवणूक’, शेठजीचे इलेक्शन आदि। उनके कई कविताएं भी प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने लगभग 250 लावणियां लिखीं। यात्रा वृतांत लिखा। यहां तक कि उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएं भी लिखीं, जिनमें ‘फकीरा’, ‘अशीही साताऱ्याची तऱ्हा, (सातारा की करामात), ‘टिला लावते मी रक्ताचा (तिलक लागती हूं रक्त से), ‘डोंगरची मैना’ (पहाड़ीं मैना) प्रमुख हैं।
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फकीरा का संघर्ष
साल 1959 में आया उपन्यास ‘फकीरा’ अन्नाभाऊ साठे की प्रमुख किताब है। यह किताब साल 1910 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाले ‘मांग’ जाति के क्रांतिवीर ‘फकीरा’ के संघर्ष पर आधारित है।
इस उपन्यास में अन्नाभाऊ ने ‘फकीरा’ के किरदार को शानदार ढंग से लिखा है। ‘फकीरा’ अपने समुदाय को भुखमरी से बचाने के लिए ग्रामीण रूढ़िवादी प्रणाली से तो संघर्ष करता ही है, ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी, विभेदकारी नीतियों का भी विरोध करता है।
अवाम को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इकट्ठा कर, उन्हें संघर्ष के लिए आवाज देता है। उस दौर में भारतीय ग्रामीण समाज के अंदर सामाजिक असमानता, छुआछूत और भेदभाव चरम पर था। सामाजिक रूढ़ियां, इंसान की तरक्की में बाधा थीं। उपन्यास, इन सब इन्सानियत विरोधी प्रवृतियों पर प्रहार करता है। इस उपन्यास में अन्नाभाऊ, अछूत जातियों की एकता पर भी जोर देते हैं।
‘फकीरा’ मराठी भाषा में तो लोकप्रिय हुआ ही, आगे चलकर इस उपन्यास का 27 देशी-विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ। साल 1961 में महाराष्ट्र सरकार ने इस उपन्यास को अपने शीर्ष पुरस्कार से सम्मानित किया।
अन्नाभाऊ के लेखन की शोहरत जब चारों और फैली, तो उनकी इस रचना का अनुवाद अनेक भारतीय भाषाओं मसलन हिन्दी, गुजराती, बंगाली, तमिल, मलयालम, उड़िया आदि में तो हुआ ही अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, चेक, जर्मन आदि कई विदेशी भाषाओं में भी उनका साहित्य पहुंचा।
अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि अन्नाभाऊ के निधन के पांच दशक बाद भी, उनका समग्र साहित्य राजभाषा हिन्दी में उपलब्ध नहीं है। साहित्य जगत के लिए ये चिंता का विषय होना चाहीए कि ये मौलिक साहित्य अब तक मराठी से बाहर क्यो नहीं निकल पाया!
अन्नाभाऊ का साहित्य गरीबी तथा सामंती व्यवस्था पर प्रहार करता हैं। उसी तरह पूंजीवादी व्यवस्था शरण में गये समाज का यथार्थवादी चित्रण करता हैं। वारणेचा वाघ, रत्ना, रानबोका, चित्रा, गुलाम, आवडी आदी उपन्यास भौतिक समस्याओं मे लिप्त एक ऐसे समाज का चित्रण करता हैं, जो महज ऐशोआराम और भोगवादिता में लिप्त हैं।
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यथार्थवादी लेखन
अन्नाभाऊ ने अपनी जिन्दगी में जो देखा-भोगा, उसे ही अपनी आवाज दी। उसे लिपिबद्ध किया। अपने एक कहानी संग्रह की भूमिका में वे लिखते हैं, “जो जीवन मैंने जिया, जीवन में जो भी भोगा, वही मैंने लिखा। मैं कोई पक्षी नहीं हूं, जो कल्पना के पंखों पर उड़ान भर सकूं। मैं तो मेडक की तरह हूं, जमीन से चिपका हुआ है।”
अन्नाभाऊ के साहित्य में हाशिये पर धकेले समाज का चित्रण मिलता हैं। खासकर महार, मांग, रामोशी, बलुतेदार और चमड़े का काम करने वाली निम्न जातियों के किरदार बार-बार आते हैं।
इन अछूत जातियों की समस्याओं और उनके संघर्ष को वे अपनी आवाज देते हैं। उनकी एक मशहूर कहानी ‘खुळंवाडा’ का एक किरदार बगावती अंदाज में कहता है, ‘‘ये मुरदा नहीं, हाड़-मांस के जिन्दा इन्सान हैं। बिगडै़ल घोड़े पर सवारी करने की कूबत इनमें है। इन्हें तलवार से जीत पाना नामुमकिन है।’’
ऐसे विद्रोही किरदारों से अन्नाभाऊ का साहित्य भरा पड़ा है। वे, वामपंथी विचारधारा से तो प्रेरित थे ही, दलित समाज के दीगर लेखक, कवि और नाटककारों की तरह वे अम्बेडकर और उनकी विचारधारा को भी पसंद करते थे। उनका विश्वास दोनों ही विचारधाराओं में था। वे इन विचारधाराओं को एक-दूसरे की पूरक समझते थे। जो आज भी वक्त की मांग है।
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सोवियत रूस कि यात्रा
अन्नाभाऊ ने अपने सपनों के देश सोवियत रूस की यात्रा भी की थी। ‘इंडो-सोवियत कल्चर सोसायटी’ के रूस बुलावे पर उन्होंने इस साम्यवादी देश की यात्रा की। यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने एक सफरनामा ‘माझा रशियाचा प्रवास’ (मेरी रूस यात्रा) लिखा। जिसमें इस यात्रा का तफ्सील से ब्यौरा मिलता है। इसे दलित साहित्य का पहला यात्रा-वृतांत होने का गौरव प्राप्त है।
अन्नाभाऊ को रूस यात्रा की बड़ी चाहत थी और उनकी यह चाहत क्यों थी? इस बात का खुलासा उन्होंने अपने इस सफरनामे में किया है,
“मेरी अंतःप्रेरणा थी कि अपने जीवन में मैं एक दिन सोवियत संघ की अवश्य यात्रा करूंगा। यह इच्छा लगातार बढ़ती ही जा रही थी। मेरा मस्तिष्क यह कल्पना करते हुए सिहर उठता था कि मजदूर क्रांति के बाद का रूस कैसा होगा?
लेनिन की क्रांति और उनके द्वारा मार्क्स के सपने को जमीन पर उतारने की हकीकत कैसी होगी! कैसी होगी वहां की नई दुनिया, संस्कृति और समाज की चमक-दमक! मैं 1935 में ही कई जब्तशुदा पुस्तकें पढ़ चुका था। उनमें से ‘रूसी क्रांति का इतिहास’ और ‘लेनिन की जीवनी’ ने मुझे बेहद प्रभावित किया था। इसलिए मैं रूस के दर्शन को उतावला था।”
जाहिर है कि साम्यवाद, रूस में किस तरह से जमीन पर उतरा? समाजवाद में इन्सान-इन्सान के बीच किस तरह से बराबरी आई? यह सब देखने के लिए ही वे एक बार रूस जाना चाहते थे।
अन्नाभाऊ साठे रूस में बहुत लोकप्रिय थे। उनके जाने से पहले उनकी रचनाएं जिसमें उपन्यास ‘फकीरा’, ‘चित्रा’ और अनेक कहानियां ‘सुलतान’ आदि, नाटक ‘स्टालिनग्राड’ के रूसी भाषा में अनूदित होकर रूस पहुंचकर चर्चित हो चुकी थीं।
लिहाजा रूस में उनका भरपूर स्वागत हुआ। रूसी अवाम ने उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया। अन्नाभाऊ की 40 दिनों की रूस यात्रा अनेक तजुर्बों से भरी थी। समानता पर आधारित समाज का सपना, जो सालों से उनके दिलो दिमाग पर छाया हुआ था, रूस में उन्होंने इस विचार को हकीकत में बदलते हुए देखा।
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बेबाक और स्पष्टवादी
15 अगस्त, 1947 को देश को आज़ादी मिली। लेकिन आज़ादी के बाद भी अन्नाभाऊ का संघर्ष खतम नहीं हुआ। जिस समतावादी समाज का उन्होंने ख्वाब देखा था, वह पूरा नहीं हुआ। लिहाजा उन्होंने लाल बावटा (वामपंथी कला मंच) के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का काम जारी रखा। जिसके एवज में सरकार ने उनके इस संगठन और ‘तमाशा
’ पर कुछ समय के लिए पाबंदी लगा दी। सरकार की इस पाबंदी से वे बिलकुल नहीं घबराए और उन्होंने अपनी इस कला को लोगों तक पहुंचाने के लिए ‘तमाशा’ को लोक गीत में ढाल दिया।
अन्नाभाऊ ने ‘लाल बावटा’ के लिए लिखे गए नाटकों को आगे चलकर लावणियों और पोवाड़ा जैसे लोकगीतों में बदल दिया। गरीब-मजदूरों का दुख-दर्द देख अन्नाभाऊ का संवेदनशील मन परेशान हो उठता था। अपनी रचनाओं के माध्यम से वे इन्हें आवाज देते। उनका समूचा लेखन वंचितों, शोषितों की आवाज है।
वे जितने अपने लेखन में बेबाक और स्पष्टवादी थे, उतने ही सार्वजनिक जीवन में भी। वे उस वर्णवादी व्यवस्था और पूंजीवाद के घोर विरोधी थे, जो इन्सान को इन्सान समझने से इंकार करती है।
साल 1958 में मुंबई में आयोजित पहले ‘दलित साहित्य शिखर संमेलन’ में उद्घाटन भाषण में जब उन्होंने यह बात कही, “यह पृथ्वी शेषनाग के मस्तक पर नहीं टिकी है। अपितु वह दलितों, काश्तकारों और मजदूरों के हाथों में सुरक्षित है।” तो कई यथास्थितिवादियों की भुकूटी उनके प्रति टेड़ी हो गई। लेकिन वे कभी अपने वि से नहीं डिगे। जो उनकी सोच थी, उस पर अटल रहे। उनका सरोकार हमेशा आम आदमी से रहा।
18 जुलाई, 1969 को 49 वर्ष की छोटी सी उम्र में जन-जन का यह लाड़ला लोक शाहीर, क्रांतिकारी जनकवि हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गया। साल 2020, अन्नाभाऊ साठे का जन्मशती साल है, उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि भारत को उनके विचारों का देश बनाएं। जहां इन्सान-इन्सान के बीच समानता हो और शोषण, उत्पीड़न, गैरबराबरी के लिए कोई जगह न हो।
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।