दामोदर धर्मानंद कोसम्बी कि आज 29 जून को पुण्यतिथी हैं। 1966 में उनका निधन हुआ था। उनका जन्म 31 जुलाई 1907 को गोवा के कोसबेन में हुआ था। इनकी पहचान गणितज्ञ, इतिहासकार और राजनैतिक विचारक के रुप में होती हैं। उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति के अध्ययन पर अपनी अमीट छाप छोडी हैं। इसी पर उनका एक नजरिया, राजकमल प्रकाशन के सौजन्य आपके लिए दे रहे हैं।
स्वाधीनता के बाद इन धारणा को बल मिला है कि भारत कभी एक राष्ट्र न था और भारतीय संस्कृति और सभ्यता विदेशी, चाहे मुस्लिम चाहे ब्रिटिश, विजय की ही उपोत्पत्ति हैं। यदि ऐसा ही होता तो भारतीय इतिहास में केवल विजेताओं का, और उन्हीं के द्वारा, इतिहास लिखने योग्य होता।
विदेशी लोग जो पाठ्यपुस्तकें छोड़ गये हैं वे स्वभावतः इसी छाप को गहरा करती हैं। पर जिस समय मकदूनिया का सिकंदर भारत के जादुई नाम और अकल्पनीय वैभव की कहानियों से पूर्व की ओर आकर्षित हुआ था, उस समय इंग्लैंड और फ्रांस अभी-अभी लोह युग में प्रवेश कर रहे थे।
अमरीका का पता भी भारत के लिए नये व्यापार-मार्ग खोजने में ही चला; इसकी छाप अमरीकी आदिवासियों को ‘इंडियन’ कहने में भी मौजूद है।
अरबों ने, जो बौद्धिक दृष्टि से संसार में सबसे प्रगतिशील और सक्रिय लोग थे, बहुत-सा गणित-शास्त्र और अपने चिकित्सा-संबंधी ग्रंथ भारत से प्राप्त किये थे।
एशियाई संस्कृति और सभ्यता के दो प्राथमिक स्रोत चीन और भारत ही हैं। सूती कपड़े (बल्कि कैलिको, छींट, डूंगरी, पजामा, बॉश और गिंगम जैसे शब्दों का उद्गम भी) और शक्कर रोजमर्रा के जीवन को भारत की विशेष देन हैं, जैसे काग़ज, चाय, चीनी मिट्टी और रेशम चीन की हैं।
भारत में जो विविधता मिलती है वह देश की प्राचीन सभ्यता की विशिष्टता को समझने के लिए पर्याप्त नहीं है। अफ्रीका या चीन के केवल एक प्रांत युनान में भी इतनी ही विविधता मौजूद है।
पर मिस्र की महान् अफ्रीकी संस्कृति में वह निरंतरता नहीं है जो हम भारत में पिछले तीन हजार वर्ष से भी अधिक समय से पाते हैं। मिस्र और ईराक की संस्कृतियों का अतीत अरबी संस्कृति से पीछे नहीं जाता। इसी प्रकार अलग से कोई युनानी संस्कृति भी नहीं है।
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चीन का विकास हैन लोगों की दूसरों के ऊपर प्रधानता और बहुत जल्दी ही एक स्थिर साम्राजी व्यवस्था स्थापित करने तक ही सीमित है।
चीन की अन्य बहुत-सी जातियों की अपनी कोई अलग ऐसी देन नहीं रही। इंका और अजटेक स्पेन की विजय के बाद शीघ्र ही नष्ट हो गये। मेक्सिको, पेरू और लेटिन अमरीका की संस्कृतियाँ आमतौर पर यूरोपीय हैं, देशज नहीं। रोमनों ने विश्व-संस्कृति पर अपनी छाप भूमध्यसागरीय क्षेत्र की प्रत्यक्ष विजय द्वारा छोड़ी।
निरंतरता मुख्यत: उन क्षेत्रों में सुरक्षित रही जहाँ लेटिन भाषा और संस्कृति को कैथालिक चर्च ने आगे बढ़ाया। इसके विपरीत, भारतीय धर्म-दर्शन का जापान और चीन में, भारतीय सेना की शक्ति के बिना ही, स्वागत हुआ, यद्यपि शायद ही किसी भारतीय ने इन देशों में पैर रखा हो।
हिंदेशिया, हिन्दचीन, थाईदेश, वर्मा, लंका का बहुत-सा सांस्कृतिक इतिहास भारत से प्रभावित है, यद्यपि ये कभी भारतीय अधिकार में नहीं रहे।
भारतीय संस्कृति की स्वयं अपने ही देश में निरंतरता शायद उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। भारतीय संस्कृति ने अन्य देशों को किस भांति प्रभावित किया यह अन्य पुस्तकों की विषय-वस्तु है।
यहाँ हमारा उद्देश्य भारत में उसके प्रारंभ और उसके विकास की मुख्य विशेषताओं का अन्वेषण करना है। किन्तु प्रारंभ में ही हमारे सामने एक ऐसी कठिनाई आती है जिसका कोई हल नहीं। भारत में इतिहास की लिखित सामग्री नहीं के बराबर है।
चीनी साम्राज्यों के इतिवृत्त, प्रदेशों के लेखे, स्सू-मा-चिएन जैसे प्राचीन इतिहासकारों के ग्रंथ, समाधियों और देववाणी की हड्डियों पर अंकित अभिलेख, आदि, से चीन का ईसापूर्व 1400 के बाद का इतिहास बहुत-कुछ निश्चयपूर्वक जाना जा सकता है। रोम और यूनान इतने प्राचीन नहीं हैं, पर उनका कहीं अच्छा ऐतिहासिक साहित्य उपलब्ध है।
मिस्र, बावैरु, असीरियाई और सुमेर के इतिवृत्त भी पढ़े जा चुके हैं। मगर भारत में केवल अस्पप्ट-सी अनुश्रुतियाँ मात्र हैं जिनमें मिथकों और आख्यानों के स्तर से ऊँची कोई लिखित प्रामाणिक सामग्री बहुत कम है।
उससे हम राजाओं की संंपूर्ण सूची तक नहीं तैयार कर सकते। कई तो पूरे-के-पूरे राजवंश विस्मृत हो गये हैं। जो कुछ बचा है वह इतना अस्पष्ट है कि मुसलमानों के युग तक किसी प्रमुख भारतीय व्यक्ति की तिथियां तक ठीक से निर्धारित नहीं हो सकतीं।
यह कहना बहुत ही कठिन है कि अमुक राजा का ठीक इतने प्रदेश के ऊपर राज्य था। राजकीय इतिवृत्त भी नहीं मिलते; इसमें आंशिक अपवाद कश्मीर और चंबा के ही हैं। यही बात भारतीय साहित्य के महान् नामों के विषय में है।
कृतियाँ उपलब्ध हैं, पर लेखक की तिथियाँ कदाचित ही ज्ञात हैं। अधिक सौभाग्यशाली होने पर मोटे तौर पर यह शायद निश्चित हो सके कि रचना किस शताब्दी की है। अधिकांशतः तो केवल यही कहा जा सकता है कि लेखक हुआ अवश्य था।
कभी-कभी यह भी संदिग्ध होता है। बहुत-सी रचनाएँ जो किसी एक लेखक-विशेष के नाम से ज्ञात है, संभवतः एक ही लेखक की रचना नहीं हैं। इस कारण कई बुद्धिमान विद्वान भी यह कहने लगते हैं कि भारत का कोई इतिहास नहीं है।
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निस्संदेह प्राचीन भारत का कोई इतिहास रोम या यूनान के इतिहास-जैसी ब्योरेवार निश्चितता से संभव नहीं। मगर इतिहास है क्या? यदि इतिहास का अर्थ केवल प्रमुख महत्त्वाकांक्षी लोगों के नामों और बड़ी-बड़ी लड़ाइयों की सूची ही है तो भारतीय इतिहास लिखना कठिन होगा।
किन्तु यदि किसी जन समुदाय के राजा का नाम जानने के बजाय यह जानना अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाए कि उसके पास हल था या नहीं, तो भारत का इतिहास है। इस ग्रंथ में मैं यह परिभाषा मानकर चलूंगा – उत्पादन के साधनों और संबंधों में क्रमिक परिवर्तनों का कालक्रम से विवरण ही इतिहास है।
इस परिभाषा में यह लाभ है कि इतिहास को ऐतिहासिक घटनाओं की शृंखला से भिन्न रूप में भी लिखा जा सकता है। तब संस्कृति को भी नृवंशशास्त्र के अर्थ में, संपूर्ण जन-समुदाय की मुख्य जीवन-पद्धतियों के वर्णन के रूप में, समझना होगा। इन परिभाषाओं पर और सूक्ष्मता से विचार करें।
कुछ लोग संस्कृति को नितांत बौद्धिक और आत्मिक मूल्यों की वस्तु, धर्म, दर्शन, कानून-व्यवस्था, साहित्य, कला, संगीत आदि के अर्थ में, मानते हैं।
कभी-कभी उसमें विस्तार करके शासक वर्ग के आचार-व्यवहार में परिष्कार को भी शामिल कर लिया जाता है। इन बुद्धिजीवियों के अनुसार इतिहास ऐसी ही ‘संस्कृति पर आधारित होता है और उसमें केवल इसका ही विवरण रहना चाहिए; और किसी बात का कोई महत्त्व नहीं।
इस प्रकार की संस्कृति को इतिहास की मुख्य चालक शक्ति मानने में कठिनाइयाँ हैं। ऐसी तीन महानतम स्पष्ट संस्कृतियाँ मध्य एशिया में एकत्र हुई भारतीय, चीनी और यूनानी; तथा बौद्ध और ईसाई इन दो महान् धर्मों ने उन्हें पुष्ट किया।
इस क्षेत्र को कुषाण साम्राज्य के अंतर्गत व्यापार में केंद्रीय स्थान और भारी राजनैतिक महत्त्व प्राप्त था। पुरातत्त्वविदों को आज भी मध्य एशिया में खुदाई करने पर सुंदर अवशेष मिल जाते हैं। किन्तु इस सुविकसित मध्य एशिया का मानव संस्कृति और मानव जाति के इतिहास में मौलिक योगदान बहुत छोटा है।
निश्चित रूप से कम ‘संस्कृत’ परिवेश से आने वाले अरबों ने यूनानी और भारतीय विज्ञान के महान आविष्कारों की सुरक्षा, विकास और भावी पीढ़ियों तक उन्हें पहुंचाने के लिए कहीं अधिक कार्य किया।
अल-बेरूनी जैसे इक्का-दुक्का मध्य एशियाई ने भी, जिसने इस प्रक्रिया में योग दिया, अरबी में लिखा, और वह भी इस्लामी संस्कृति के सदस्य के रूप में, मध्य एशियाई नहीं।
जिन ‘असंस्कृत’ मंगोलों के आक्रमणों ने मध्य एशिया के उत्थान को बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट किया, उनका चीनी संस्कृति के ऊपर कोई घातक प्रभाव न पड़ा, बल्कि उसे और भी प्रगति की प्रेरणा मिली।
मनुष्य केवल रोटी पर ही जीवित नहीं रहता, किन्तु अभी तक मनुष्य की कोई ऐसी नस्ल तैयार नहीं हुई जो रोटी के बिना, अथवा किसी-न-किसी प्रकार के आहार के बिना जीवित रह सकती हो।
सच पूछिए तो खमीर-रहित रोटी बाद में नव-पाषाण युग की खोज है, जो भोजन बनाने और सुरक्षित रखने में बहुत प्रगति की सूचक है। ‘हमें हमारी आज की रोटी दो’, आज भी दैनिक ईसाई प्रार्थना का अंग है, यद्यपि ईसाई धर्मशास्त्र आत्मा के जगत् को समस्त भौतिक बातों से ऊपर मानता है।
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किसी भी विधिवत संस्कृति का आधार वास्तविक आहार उत्पादक की अपनी आवश्यकता से अधिक खाद्य की उपलब्धि में ही हो सकता है। ईराक के विशाल शंकु-मंदिर, चीन की दीवार, मिस्र के पिरामिड, अथवा आधुनिक गगनचुंबी भवन बनाने के लिए उस काल में अतिरिक्त आहार को उतनी ही विशाल राशि अवश्य उपलब्ध रही होगी।
अतिरिक्त उत्पादन उपयोग में आनेवाले औजारों और पद्धतियों पर, और यदि सुविधाजनक यद्यपि बहु-प्रयुक्त शब्दावली का प्रयोग करें तो, ‘उत्पादन के साधनों’ पर, निर्भर होता है।
जिस उपाय से अतिरिक्त अंश न केवल अतिरिक्त खाद्य बल्कि अन्य सभी उपज-अंतिम उपयोग करनेवाले के हाथों में पहुंचता है, वह समाज के रुप, ‘उत्पादन के संबंधों’ द्वारा निर्धारित होता है और उन्हें निर्धारित भी करता है।
आदिम आहार-संग्रहकों का नगण्य अतिरिक्त अंश प्रायः संग्रहकर्ता समूह की स्त्रियों में विभाजित होता और बँट जाता है। अधिक विकास होने पर बँटवारे का काम गृहपति, कबीले के मुखिया, कुल के प्रधान द्वारा किया जाने लगता है और प्राय: पारिवारिक इकाइयों के माध्यम से होता है।
अतिरिक्त खाद्य की राशि विशाल और केंद्रीभूत होने पर उसके संग्रह और वितरण का निर्णय पुरोहितों की श्रेणियों अथवा सामंत-सरदारों के माध्यम से बड़े-बड़े मंदिर या फरुन करने लगते हैं।
दास समाज में उत्पादन और विनिमय पर अधिकार दासों के स्वामियों का होता है, पर यह मुमकीन है कि यह वर्ग भूतपूर्व पुरोहितों, सरदारों और कुल के प्रधानों में से ही विकसित हुआ हो जो अब दूसरे कार्य करने लगे हो।
सामंती व्यवस्था में इसका मुख्य साधन कृपिदासों का नियंत्रण करनेवाला सामंती सरदार होता है। उसके प्रतिरूप व्यापारी और महाजन को दस्तकारों की श्रेणियों से भी निपटना पड़ता है।
व्यापारी वर्ग कारखानेदारी के द्वारा अपना रूप बदलकर पूंजीवादी युग का आरंभ करता है जिसमें मनुष्य का श्रम माल या पण्य का रूप ले लेता है, यद्यपि वह स्वयं स्वतंत्र बना रहता है। इस सबमें रूप और सार में विभिन्नता हो सकती है।
ब्रिटेन में सरदारों, भूस्वामियों और जमींदारों का पूरा वर्ग मौजूद है, यद्यपि प्राथमिक उत्पादकों के रूप में कोई कृषिदास अब नहीं है।
इसके बावजूद अंग्रेज समाज पूरी तरह पूंजीवादी है और आधुनिक युग के संपूर्ण पूंजीपति वर्ग का सर्वप्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण रुप है। एडवर्ड सप्तम का राज्याभिषेक भले ही एडवर्ड कन्फैसर के लकड़ी के सिंहासन पर उसी के प्रार्थनाघर में हुआ हो; पर एडवर्ड सप्तम ने जिस इंग्लैड पर शासन किया वह इस बीच इतना बदल चुका था कि पहचानना कठिन था।
अन्तिम बड़े, अर्थात् जर्मनी और जापान के आधुनिक पूंजीपति वगों ने तो सम्राट् के प्रति अटल भक्ति के बहाने सामंतवाद को नष्ट करने के साथ-साथ कुछ सामंती रूपों को और भी हद कर दिया।
विशेषकर भारत के संबंध में विचार करते समय तो यह बहुत ही आवश्यक है कि हमारा दृष्टिकोण यांत्रिक रूप से नियतिवादी न हो, क्योंकि भारत में तो सार की उपेक्षा करके रूप को अधिकतम महत्त्व दिया जाता है।
यहाँ आर्थिक नियतिवाद से काम नहीं चल सकता। यह अनिवार्य नहीं, सत्य भी नहीं है, कि अमुक परिमाण में संपत्ती होने पर अमुक प्रकार का विकास होगा। वह संपूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया भी परम महत्त्व की है जिसके द्वारा कोई सामाजिक रूप प्राप्त होता है।
अमरीका के जिस सोने-चांदी ने वहां के मूल निवासीयों को बर्बरता की स्थिति में रखा था उसने स्पेन के हाथों में पड़कर सामंती और धार्मिक प्रतिगामिता को ही दृढ़ किया।
उसी संपत्ती का जो छोटा-सा भाग ड्रेक तथा अन्य अंग्रेज समुद्री कप्तानों द्वारा लूटा गया, उससे इंग्लैंड को सामंती युग से निकलकर व्यापारी और पूंजीवादी युग में पहुंचने में बड़ी सहायता मिली।
प्रत्येक चरण में ऊपरी वर्गों के पूर्ववर्ती रूपों और विचारधारा के अवशेषों का चाहे परंपरा से चाहे परंपरा के विरुद्ध विद्रोह से-किसी भी सामाजिक आंदोलन पर भारी प्रभाव पड़ता है।
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स्वयं भाषा भी विनिमय की प्रक्रिया में ही बनी जिसमें नई वस्तुएँ, नये विचार और तदनुरूप नये शब्द सब साथ-साथ आये। उत्पादन के साधनों में महत्त्वपूर्ण प्रगति होते ही तुरंत आबादी में बड़ी वृद्धि होती है, जिसके फलस्वरूप अनिवार्यतः उत्पादन के संबंधों में परिवर्तन हो जाता है।
जो मुखिया एक सौ लोगों की व्यवस्था अकेले कर सकता था उसके लिए एक लाख लोगों की व्यवस्था किसी सहायता के बिना चलाना संभव नहीं होता। इससे सामंती वर्ग अथवा बुजुर्गों की परिषद बनाने की आवश्यकता पैदा हुई।
दो आदिम प्रकार के पुरबोंवाले जिले के लिए किसी प्रशासन की आवश्यकता नहीं होती; पर उसी जिले में 20,000 बड़े गाँव हों तो उसके लिए प्रशासन की आवश्यकता भी है और वह उसका भार उठा भी सकता है। इस भाँति एक विचित्र टेढ़ी-मेढ़ी प्रक्रिया, विशेप कर भारत में, दिखाई पड़ती है।
उत्पादन की नई अवस्था किसी-न-किसी प्रकार के रूपगत परिवर्तन में प्रकट होती है। जब उत्पादन आदिम प्रकार का हो तो परिवर्तन प्रायः धार्मिक होता है। नया रूप यदि उत्पादन में वृद्धि करने वाला हो तो उसका स्वागत होता है और वह जम जाता है। किंतु इससे निश्चित रूप से जनसंख्या में भी वृद्धि होती है।
यदि ऊपरी ढाँचे का वृद्धि के दौरान समायोजन न हो सके तो संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। कभी-कभी पुराना रूप सुधार के रूप में क्रांति द्वारा टूट जाता है।
कभी-कभी पुराने रूप से लाभ उठानेवाले वर्ग की विजय होती है तो रुकाव, ऱ्हास अथवा क्षय होने लगता है। भारतीय समाज की प्रारंभिक प्रौढ़ता और विदेशी आक्रमणों के सामने विचित्र असहायता से इस सामान्य प्रवृत्ति की पुष्टि होती है।
*संदर्भ : प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, राजकमल प्रकाशन, 1966 (प्रथम संस्करण–पहला अध्याय, तिसरा चैप्टर)
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