कोई ‘सरदार’ कब था इससे पहले तेरी महफिल में
बहुत अहल-ए-सुखन उट्ठे बहुत अहल-ए-कलाम आये।
अली सरदार जाफरी का यह शेर उनकी अज़्मत और उर्दू अदब में अहमियत बतलाने के लिए काफ़ी है। अली सरदार जाफरी एक अकेले शख्स का नाम नहीं, बल्कि एक पूरे अहद और तहरीक का नाम है। उनका अदबी काम, सियासी-समाजी तहरीक में हिस्सेदारी और तमाम तहरीरें इस बात की तस्दीक करती हैं। वे न सिर्फ़ एक जोशीले अदीब, इंक़लाबी शायर थे, बल्कि मुल्क की आज़ादी की तहरीक में भी उन्होंने सरगर्म हिस्सेदारी की।
उन्होंने अपनी ज़िंदगी के लिए जो उसूल तय कर रखे थे, उन पर आख़िरी दम तक चले। वे तरक्कीपसंद तहरीक के बानियों में से एक थे और आख़िरी वक़्त तक वे इस तहरीक से जुड़े रहे। मुल्क भर में तरक्कीपसंद तहरीक को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने काफ़ी कुछ किया।
मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर उनकी अज़्मत को कम्युनिस्ट पार्टी की निशानी हंसिया हथौड़ा के तौर पर देखते थे, तो सज्जाद जहीर की नज़र में भी सरदार जाफरी का बड़ा मर्तबा और एहतराम था। उनके बारे में जहीर का ख्याल था, “सरदार हमारी तहरीक की शमशीर-ए-बेनियाम हैं।”
यही नहीं उनका तो यहाँ तक मानना था, “सरदार जाफरी बहस-मुबाहिसे के मैदान के शहसवार हैं।” जाफरी ने अपनी पूरी ज़िंदगी अदब और आंदोलनों के नाम कर दी थी। चाहे आज़ादी का आंदोलन हो, कामगार-मज़दूरों के धरने-प्रदर्शन, स्टूडेंट्स मूवमेंट हो या फिर अदीबों का वे इन सभी आंदोलनों में हमेशा पेश रहते थे।
कृश्न चंदर का जाफरी के बारे में कहना था, “उनसे मिलो, तो मालूम होता है कि किसी तहरीक से मिल रहे हैं।” इस्मत चुगताई उन्हें तरक्की पसंदों का सिपहसालार मानती थीं। और यह बात सच भी है, वह जब तक ज़िंदा रहे, तरक्कीपसंदों की ओर से मोर्चा लेते रहे।
आलम यह था कि कदामतपसंद और तंगनजर जेहनियत वाले उनसे बहस करने से घबराते थे। उनकी शख्सियत में भी एक पुरअसर कशिश थी। वे जब अपनी नज़्म पढ़ते हुए या तकरीर करते वक़्त अपने लंबे बालों को पेशानी से पीछे करते, तो नौजवानों ख़स तौर पर ख्वातीनों के दिल में एक हूक सी उठती।
यह आब व ख़ाक व बाद का जहाँ बहुत हसीन है
अगर कोई बहिश्त है, तो बस यही जमीन है।
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गंगा-जमुनी विरासत
जाफरी का संघर्ष मुल्क की आज़ादी तक ही महदूद नहीं रहा, उस के बाद उन्होंने एक अलग लड़ाई लड़ी। और यह लड़ाई थी देश में लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, राष्ट्रीय एकता और अखंडता कायमगी की। देश की समृद्ध विरासत और गंगा-जमुनी तहजीब को बचाने की।
निदा फाजली ने अपने एक लेख में अली सरदार जाफरी के बारे में क्या खूब कहा है, “सरदार जाफरी, नाम से मुसलमान थे, लेकिन अपने काम से लम्बी तारीख़ के सेक्युलर हिन्दोस्ताँन थे।”
साल 1913 का नवम्बर, अली सरदार जाफरी की पैदाइश का महीना है। अपनी एक नज़्म में वह इस बात का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में करते हैं,
नवम्बर, मेरा गहवारा है, यह मेरा महीना है
इसी माहे-मन्नवर में
मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी
मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी।
नवम्बर महीने की 29 तारीख़ को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में मजहब के पाबंद और परहेजगार खानदान में जन्मे अली सरदार जाफरी की शुरुआती तालीम घर में ही हुई। उर्दू, फारसी सीखने के बाद मजहबी तालीम के वास्ते उनका दाखिला लखनऊ के सुल्तानुल मदारिस में करा दिया गया।
इसके पीछे परिवार की यह सोच थी कि वह मौलवी बन जाएँगे। लेकिन वे इसके लिए नहीं बने थे। उन्हें तो अपनी जिंदगी में कुछ और ही करना था। लिखने-पढ़ने का चस्का सरदार जाफरी को बचपन से ही पड़ गया था। खास तौर से उन्हें अनीस के मर्सिये बहुत पसंद थे। पन्द्रह-सोलह बरस की उम्र आने तक उन्होंने मर्सिये लिखने शुरू कर दिए थे।
अली सरदार जाफरी की ज़िंदगी में बड़ा बदलाव तब आया, जब उन्होंने लेनिन की जीवनी पढ़ी। इस किताब ने उनकी पूरी ज़िंदगी बदल दी और उन्हें जीने का एक नया मक़सद दे दिया। बहरहाल, सरदार जाफरी ने जब अपनी पहली नज़्म ‘समाज’ लिखी, तो उसने जैसे उनके अदब की पूरी दिशा तय कर दी।
तमन्नाओं में कब तक जिंदगी उलझाई जाएगी
खिलौने दे के कब तक मुफलिसी बहलाई जाएगी
नया चश्मा है पत्थर के शिगाफों से उबलने को
जमाना किस कदर बेताब है करवट बदलने को।
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वतनपरस्ती का जज्बा
अली सरदार जाफरी की आला तालीम अलीगढ़ मुसलिम यूनीवर्सिटी, एंग्लो-अरेबिक कॉलेज, दिल्ली और लखनऊ यूनिवर्सिटी में हुई। यह वह दौर था, जब मुल्क में अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई अपने उरूज पर थी और मुल्क का हर बाशिंदा ख़ास तौर से नौजवान, अपनी-अपनी तरह से आज़ादी के इस आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे।
जाफरी के दिल में वतनपरस्ती का जज्बा बचपन से ही था। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में वह जब पढ़ने के लिए पहुँचे तो उनको उस समय के मशहूर और उभरते हुए शायरों, अदीबों की संगत मिली। इन अदीबों में अख्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज्बी, मजाज, हयातुल्ला अंसारी, सआदत हसन मंटो, आले अहमद सरूर, जांनिसार अख्तर, इस्मत चुगताई और ख्वाजा अहमद अब्बास वगैरह शामिल थे।
वह मंटो ही थे, जिन्होंने अली सरदार जाफरी का विक्टर ह्यूगो और गोर्की के अदब से पहली बार तआरुफ कराया। यह बात अलग है कि आगे चलकर विचारों में भिन्नता की वजह से इन दोनों के बीच काफ़ी दूरी बढ़ गई, मगर जाती दोस्ती में कोई फर्क नहीं आया।
सरदार जाफरी सियासी और समाजी मसलों को यथार्थवादी नज़रिए से देखते हैं। दुनिया भर के घटनाक्रमों पर उनकी नज़र रहती थी। लिहाज़ा कहीं पर भी कुछ ग़लत होता, किसी के साथ नाइंसाफी और जुल्म होता उनकी कलम आग उगलने लगती।
‘नई दुनिया को सलाम’ नज्म में वह मेहनत और मेहनतकशों की अहमियत का ज़िक्र इन अल्फाजों के साथ करते हैं,
चांद की तरह गोल और सूरज की मानिंद गर्म
आह ये रोटियाँ आसमानों में पकती नहीं हैं
ये हैं इंसान के हाथों की तखलीक
उसकी सदियों की मेहनत का फल।
वहीं ‘जमहूर’ नामक अपनी सियासी मसनवी में वे किसानों और कामगारों को आवाज़ देते हुए लिखते हैं,
मसीहा के होंठों का एजाज हम
मुहंमद के सीने की आवाज़ हम
हमारी जबीं पर है मेहनत का ताज
हमीं ने किया है जमीं से खिराज।
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कर्मकांडो का खुलकर विरोध
साल 1944 में आए जाफरी के पहले काव्य संग्रह ‘परवाज’ में ऐसी कई रचनाएँ मिल जाएँगी, जिनमें किसानों और मजदूरों की दुर्दशा का ही अकेला चित्रण नहीं है, बल्कि इन रचनाओं के आखिर में वे उन्हें क्रांति के लिए आवाज भी देते हैं।
कर्मकांडो का भी खुलकर विरोध जाफरी यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि मुल्क में यदि जम्हूरियत की कायमगी होगी, तो वह इन्हीं के दम पर मुमकिन होगी। यही नहीं, वे आदमी-औरत में भी कोई फर्क नहीं करते थे। उनकी नजर में ये दोनों ही समान हैं। किसी अहद के बदलाव के लिए दोनों की ही ज़रूरत और अहमियत है। ‘मज़दूर लड़कियाँ’ नज़्म में सरदार जाफरी लिखते हैं,
बेकसी इनकी जवानी मुफलिसी इना शबाब
अपनी नज़रों से ये लिख सकती हैं तारीखों के बाब
इनके तेवर देखती रहती हैं चश्मे इंकलाब।
अली सरदार जाफरी ने अपनी शायरी में धार्मिक आडंबर, रूढ़ियों और कर्मकांडो का भी खुलकर विरोध किया।
लहू चूसा मजे ले ले के मजहब ने खुदाई का
बिछाया जाल पीराने कुहन ने पारसाई का।
जाफरी ने न सिर्फ़ साम्राज्यविरोधी, फासीवाद विरोधी शायरी की बल्कि अपनी शायरी में सामंतवाद और सरमायेदारी की भी पुरजोर मुखालिफत की। ‘जमहूर’ शीर्षक मसनवी में वे सरमायेदारों को यह कहकर खिताब करते हैं,
ये हैं फख्र हैवानित के लिए
ये हैं कोढ़ इंसानियत के लिए।
अली सरदार जाफरी की नज़्मों की कोई भी किताब उठाकर देख लीजिए, उनमें इंकलाबी नज़्में ज़रूर मिलेंगी। यही नहीं सियासी बेदारी की वजह से देश-दुनिया में जब भी कोई बड़ा वाकिआत होता, अली सरदार जाफरी उसे अपनी नज़्म में ज़रूर ढालते।
‘बग़ावत’, ‘अहदे हाजिर’, ‘सामराजी लड़ाई’, ‘इंकलाबे रूस’, ‘मल्लाहों की बगावत’, ‘फरेब’, ‘सैलाबे चीन’, ‘जश्ने बगावत’ आदि नज्मों में उन्होंने अपने समय के बड़े सवालों की अक्कासी की है। सच बात तो यह है कि उन्होंने अपने आसपास की समस्याओं से कभी मुंह नहीं चुराया, बल्कि उसकी आँखों में आँखें डालकर बात की।
बंगाल का जब भयंकर अकाल पड़ा, तो अली सरदार जाफरी की कलम ने लिखा,
चंद टुकड़ों के लिए झांसी की रानी बिक गई
आबरू मरियम की सीता की जवानी बिक गई
गांव वीरां हो गए हर झोंपड़ा सुनसान है
खित्ता-ए-बंगाल है या एक कब्रिस्तान है।
मुल्क की आज़ादी बंटवारा लेकर आई। साम्राज्यवादी साजिशों के चलते मुल्क भारत और पाकिस्तान के बीच बंट गया। तमाम तरक्की पसंद शायरों के साथ अली सरदार जाफरी भी इस बँटवारे के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने अपने तईं इसका विरोध भी किया।
नज्म ‘आंसुओं के चराग’ में वे अपने जज्बात को कुछ इस तरह से पेश करते हैं,
ये कौन जालिम है जिसने क़ानून के दहकते हुए कलम से
वतन के सीने पै खूने नाहक की एक गहरी लकीर खींची
यह क्या हुआ एक दम से महफिल में सारे साजों के राग बदले
कदामतों के खंडहर में माजी के भूत दीवानावार नाचे
बहार के सुर्ख आंचलों से खिजां के बीमार रंग बरसे।
जाफरी ने अपने दौर की कुछ अजीम शख्सियतों पर भी नज्म लिखीं। ‘कार्ल मार्क्स’, पॉल रोबसन’, ‘परवीन शाकिर’, ‘अहमद फराज के नाम’ उनकी ऐसी ही कुछ नज़्में हैं।
‘परवाज’ (साल 1944), ‘जम्हूर’ (साल 1946), ‘नई दुनिया को सलाम’ (साल 1947), ‘ख़ून की लकीर’ (साल 1949), ‘अम्न का सितारा’ (साल 1950), ‘एशिया जाग उठा’ (साल 1950), ‘पत्थर की दीवार’ (साल 1953), ‘एक ख्वाब और’ (साल 1965), ‘पैराहने शरर’ (साल 1966), ‘लहू पुकारता है’ (साल 1978), ‘मेरा सफर’ (साल 1999) अली सरदार जाफरी के नज्मों-गजलों के अहम मजमुए हैं।
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बहुत अच्छे गद्यकार
साल 1947 में आई उनकी किताब ‘नई दुनिया को सलाम’ एक प्रबंध काव्य है, जो साम्राज्य-मुखालिफ जज्बात से लबरेज है। सच बात तो यह है कि ‘नई दुनिया को सलाम’ एक लंबी नज्म है और उनकी यह नज्म, आज़ादी के आंदोलन के दौरान लिखी गईं बेहतरीन नज्मों में शुमार होती है।
यह नज्म उस दौर के शेरी सरमाये में एक आला मुकाम रखती है। उन्होंने तरक्की पसंद तहरीक पर एक आलोचनात्मक किताब ‘तरक्की पसंद अदब’ लिखी तो ‘दीवाने-गालिब’, ‘दीवाने-मीर’ और ‘कबीर बानी’ वे किताबें हैं जिनमें गालिब, मीर की शायरी पर गंभीर बात है, तो ‘कबीर बानी’ में वे कबीर के 128 प्रमुख पदों का विचारोत्तेजक विश्लेषण करते हैं।
‘यह ख़ून किसका है’ और ‘पैकार’ सरदार जाफरी द्वारा लिखे गए नाटक हैं, वहीं किताब ‘मंजिल’ में उनकी कहानियाँ संकलित हैं। यह जानकर पाठकों को ताज्जुब होगा कि जाफरी के गजल, नज्म के मजमुए से पहले साल 1938 में उनके अफसानों की यह किताब ‘मंजिल’ आ चुकी थी। ‘पैगम्बराने-सुखन’, ‘तरक्की पसंद अदब’ ‘इकबाल शनासी’, ‘गालिब का सूफियाना खयाल’ अली सरदार जाफरी की आलोचनात्मक किताबें हैं।
जाफरी न सिर्फ़ एक बुलंद पाया शायर थे, बल्कि बहुत अच्छे गद्यकार थे। अफसोस!, आलोचकों ने उनके इस पहलू पर कम ही ध्यान दिया। ‘लखनऊ की पाँच रातें’ उनकी शाहकार किताब है। अफसानानिगार सलाम बिन रज्जाक ‘लखनऊ की पाँच रातें’ का तफ्सिरा करते हुए लिखते हैं,
“‘लखनऊ की पाँच रातें’ उर्दू यादनिगारी में एक संगेमील की हैसियत रखती है। जिसमें जाफरी साहब ने मामूली बातों को भी अपने कलम के जादू से ग़ैर मामूली बना दिया है।”
सलाम बिन रज्जाक की यह बात सच भी है। जिन लोगों ने यह किताब पढ़ी है, वे इसका जादू जानते हैं। मिसाल के तौर पर किताब की शुरुआत कुछ इस तरह से होती है,
“मुझे इंसानी हाथ बड़े खूबसूरत मालूम होते हैं। उनकी जुम्बिश में तरन्नुम है और खामोशी में शायरी। उनकी उंगलियों से तखलीक की गंगा बहती है। ये वो फरिश्ते हैं, जो दिल व दिमाग के अर्शे-बरीं से वही-ओ-इलहाम लेकर कागज की हकीर सतह पर नाजिल होते हैं और उस पर अपने लाफानी नुकूश छोड़ जाते हैं। उन कागजों को दुनिया नज्म और अफसाना, मकाला और किताब कहकर आँखों से लगाती है और उनसे रूहानी तसकीन हासिल करती है।”
किताब के इसी अध्याय में वह आगे कहते हैं, “मैंने हमेशा कलम को हाथों का तकद्दुस, जेहन की अजमत और कल्बे-इंसानी की वुसअत समझा है और कलम के बनाए हुए नक्श को सजदा किया है। इसलिए जब कलम झूठ बोलता है, या चोरी करता है तो मुझे महसूस होता है, जैसे मेरे हाथ गंदे हो गए हैं। मैं हर अदीब से ये तवक्को करता हूं कि वह अपने कलम का एहतराम करेगा। क्योंकि उसके नफस की इज्जत और शराफत इसी तरह बरकरार रह सकती है।”
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लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और आलोचक हैं। कई अखबार और पत्रिकाओं में स्वतंत्र रूप से लिखते हैं। लैंगिक संवेदनशीलता पर उत्कृष्ठ लेखन के लिए तीन बार ‘लाडली अवार्ड’ से सम्मानित किया गया है। इन्होंने कई किताबे लिखी हैं।