फखरुद्दीन अली अहमद अब से पहले आपातकाल के खलनायक के रुप में जाने जाते थे। इन दिनों उन्हे एक नई पहचान मिली हैं। उनके परिजनों का नाम असम के NRC सूचि से बाहर हैं।
यह वजह हैं कि आजकल सीएए और एनआरसी के खिलाफ चल रहे आंदोलनो में वह एक क्रांतिक्रारी की तरह याद किए जा रहे हैं। वास्तव में भारत का इतिहास उन्हेंं एक शोकात्म नायक रूप में याद करता हैं।
कहते है कि आपातकाल के असल नायकों को छुपाने के लिए या फिर उनके साथ इन्हेंं जोडकर अपनी दिमागी प्रतिभा चमकाने के लिए मीडिया और बुद्धिजिवी उन्हे याद करते हैं।
फखरुद्दीन अली अहमद (Fakhruddin Ali Ahmed) कि पहचान एक स्वतंत्र राजनेता के रूप में शायद ही कभी स्थापित हो पाएगी। क्योंकि उन्हें कोई भी बेदाग पेश करना नही चाहता। हर कोई उन्हें आपातकाल के संबंध में नकारात्मक छवी के लिए स्मरण करना चाहता हैं।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत से ऐसे योद्धा थे जो चमक-दमक से दूर रहकर अपना काम करते रहें। जो कभी अखबारों की सुर्खियां नही बने। ना ही वे कभी स्वाधीनता के इतिहास के किताबी पन्नो के हकदार बने। ऐसे लोगों मे फखरुद्दीन अली अहमद का नाम भी आता हैं।
13 मई 1905 को पुरानी दिल्ली के हौज काजी में जन्मे फखरुद्दीन अली अहमद एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के धनी थें। उनके पिता का नाम जलनूर अली था। उनकी माँ दिल्ली के लोहारी के नवाब की बेटी थीं। जलनूर अली कर्नल के रूप में भारतीय चिकित्सा सेवा से जुड़े थें।
उनकी आरंभिक शिक्षा उत्तर प्रदेश में गोंडा के सरकारी स्कूल से हुई। उसके बाद उन्होंने दिल्ली गवर्नमेंट हाई स्कूल से मैट्रिक कि परीक्षा पास की। जिसके बाद वह उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए और वहाँ कैंब्रिज के सेंट कैथरीन कॉलेज में कानून कि पढाई के लिए दाखिला लिया।
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एक मंझे राजनेता
जब फखरुद्दीन कैंब्रिज में पढ रहे थे, तब वे पंडित नेहरू के संपर्क में आए। पहली मुलाकात में वह नेहरू के आधुनिक विचारों से काफी प्रभावित हुए। नेहरू को उन्होंने अपना मित्र और मार्गदर्शक बनाया। सन् 1928 में लंदन से भारत लौटकर लाहौर उच्च न्यायालय में वकालत शुरु की। इसके साथ उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस से जुडकर स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। यही से वह राजनीति में क्रियाशिल हुए।
एक काँँग्रेसी नेता के रूप में फखरुद्दीन अली अहमद ने कई महत्त्वपूर्ण पदों पर अपनी जिम्मेदारी निभाई। सन् 1935 में असम विधानसभा के लिए उनका चुनाव हुआ। 1938 में वे वित्त, राजस्व एवं श्रम मंत्री भी रहे। इस पद पर रहते हुए राज्य की विकास के लिए उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए।
राजस्व मंत्री रहते हुए उन्होंने भारत में अपने किस्म का पहला ‘असम कृषि आय कर कानून’ लागू किया, जिससे राज्य में चाय बागान पर टैक्स लिया जाने लगा, साथ ही श्रमिकों के पक्ष में कई नीतिगत फैसले किए गए।
ब्रिटिशकाल में काम करते हुए उन्होंंने सरकारी नीती कि कई दफा मुखालिफत भी की। जिसके कारण उन्हेंं कई दफा जेल भी जाना पडा। असमी नेता के रुप महात्मा गांधी के साथ उन्होंने कई सत्याग्रह किए। लेकिन वह चर्चा में आए सन 1940 के सत्याग्रह आंदोलन से। इस आंदोलन के बाद उन्हे गिरफ्तार किया गया। वे तीन साल तक जेल में बंद रहे।
सन 1942 के बाद से देश में ‘भारत छोडो’ के रूप में अंग्रेजो के खिलाफ बडी लडाई खडी हुई। फखरुद्दीन अली अहमद जेल से छुटने के बाद इस आंदोलन से जुडे। जिसके कारण उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और इस बार वे लगभग साढ़े तीन साल जेल रहें।
भारत की आजादी के बाद सन् 1952 में फखरुद्दीन असम से राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। इसी दौरान वे असम सरकार के महाधिवक्ता भी रहे। सन् 1957 में उन्होंने असम से विधानसभा का चुनाव लड़ा और 1957-62 तथा 1962-57 तक दो बार विधायक रहे। सन् 1971 में वे असम के बारपेटा से लोकसभा के लिए चुने गए। अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई मंत्रालय संभाले, जिनमें शिक्षा, खाद्य, औद्योगिक विकास एवं कंपनी कानून आदि शामिल हैं।
राजनेता होने के साथ-साथ फखरुद्दीन अली अहमद बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थें। 2012 में प्रकाशित और राजेंद्र कुमार लिखित ‘भारत राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री’ नामक पुस्तक में फखरुद्दीन अली अहमद को लेकर रोचक जानकारी हमे उपलब्ध होती हैं।
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बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी
इस किताब के अनुसार फखरुद्दीन अली अहमद एक अच्छे खिलाड़ी और खेल-प्रेमी भी थे। वे टेनिस से लेकर गोल्फ भी एक मंझे हुए खिलाड़ी कि तरह खेलते थें। किताब बताती हैं कि वे कई बार ‘असम फुटबॉल संघ’ और ‘असम क्रिकेट संघ’ के अध्यक्ष भी रहे। इसी तरह वे असम खेल परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे। ‘दिल्ली गोल्फ क्लब’ और ‘दिल्ली जिमखाना क्लब’ के सदस्य के अलावा वर्ष 1967 में वे अखिल भारतीय क्रिकेट संघ के अध्यक्ष भी रहे।
उनके बारे में कहा जाता हैं कि, वे शालीन और विनम्र इन्सान थें। वह शिष्ट और सौम्य व्यक्ती थें। कहते हैं कि उन्हे शायद ही कभी गुस्सा आया हों या फिर वह पूर्वग्रहों से ग्रसित रहे हों। अनैतिक मुद्दो के साथ उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनका चरित्र बेदाग था। सार्वजनिक जीवन में वे बहुत ही शालीन और नर्मदिल किस्म के इन्सान थें। समाज और परिवार में उन्हें सम्मानजनक स्थिति प्राप्त थीं।
फखरुद्दीन अली अहमद कविता और साहित्य में खास रुची रखते थें। उन्हेंं मिर्जा गालिब खुब भाते थे। वे संगीत को भी काफी पसंद करते थे।
वे एक धार्मिक किस्म के इन्सान थें। हर शुक्रवार राष्ट्रपति भवन से निकलकर जामा मस्जिद तक नमाज के लिए आते। व्यक्तिगत जीवन मे सन्मान और आदर के पात्र थें। वह एक समर्पित पारिवारिक इन्सान थें। 40 साल के उम्र में उन्होंने 9 नवंबर, 1945 को अपने से आधी उम्र की 21 वर्षीय आबिदा बेगम से विवाह किया था।
आबिदा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढी थीं और उत्तर प्रदेश के एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखती थीं। सन 1981 में वे उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए भी निर्वाचित हुई थीं।
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हिन्दू मुस्लिम सौहार्द के हिमायती
फखरुद्दीन अली अहमद हिंदू मुस्लिम सदभाव के हिमायती थें। वह मुसलमानों से ज्यादा हिन्दुओंं का अधिक सन्मान करते। शायद इसीलिए लियाकत अली खान ने उन्हेंं ‘काफिर’ कहा था। इस संबंध में एक घटना का उल्लेख राजेन्द्र कुमार ने उपर उल्लेखित किताब में किया हैं।
वे लिखते है, “सन 1935 में फखरुद्दीन अली अहमद असम में मुस्लिम लीग के उम्मीदवार के विरुद्ध विधानसभा का चुनाव लड़ रहे थें। लीग के प्रचार के लिए उसके सर्वोच्च नेतागण मुहंमद अली जिना, लियाकत अली खान, निजामुद्दीन इत्यादि असम आए।
इस अवसर पर सर मुहंमद सादुल्लाह ने सुझाव दिया कि फखरुद्दीन साहब को शिष्टाचार भेट के लिए बुलाया जाना चाहिए। इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लियाकत अली खान ने रुखाई से कहा कि वह एक काफिर (फखरुद्दीन अली अहमद) से हाथ नहीं मिला सकते।”
फखरुद्दीन अली अहमद सांप्रदायिक नही थें। बल्कि उनका नजरिया देशहित में था। यदि कुछ लोग उनके इस कार्य को सांप्रदायिक समझते हों तो यह उनकी संकुचित सोच और अनुदार दृष्टिकोण कहा जा सकता हैं। वह एक धर्मनिरपेक्ष इन्सान थे। उनकी इस्लाम के प्रति धार्मिक आस्था किसी से छिपी नही थीं।
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बेहद पॉप्युलर नेता
फखरुद्दीन सन 1947 से 1974 तक अखिल भारतीय काँँग्रेस कमेटी के सदस्य रहें। राधेश्याम चौरसिया अपनी किताब ‘हिस्टरी ऑफ मॉडर्न इंडिया’ में फखरुद्दीन अली अहमद के बारे में लिखते हैं, वह काँग्रेस के एक बेहद पॉप्युलर नेता थें।
सन 1969 में कांग्रेस में दो धडे होने पर इंदिरा गांधी ने फखरुद्दीन की नेहरू और उनके परिवार के प्रति निष्ठा के कारण उन्हें अपने खेमे में शामिल कर लिया। पुरस्कार स्वरूप 29 अगस्त, 1974 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें देश का राष्ट्रपति बनवा दिया। इस प्रकार वे डॉ. जाकिर हुसैन के बाद वे देश के दूसरे मुस्लिम राष्ट्रपति बन गए।
परंतु इंदिरा गांधी के कहने पर उन्होंने सन 1975 में अपने संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल कर देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। इस पर उन्हें काफी आलोचना और निंदा भी झेलनी पड़ी।
फखरुद्दीन अली अहमद राष्ट्रपति के रूप में अपना पाँच वर्षीय कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। 71 वर्ष की आयु में 11 फरवरी, 1977 को सुबह घर पर हृदयाघात होने के कारण उनका निधन हो गया।
उनके निधन पर इंडिया टुडे पत्रिका में 28 फरवरी 1977 में एक आब्युचेरी प्रकाशित की थीं, जिसमें उनके नौकर का शोकसंदेश दिया गया था, जिसमें वह कहता हैं “वह (फखरुद्दीन) केवल एक अच्छा गुरु नहीं थे, बल्कि एक अच्छे इन्सान थे। वह हमेशा हमारे बारे में चिंतित रहते थें, हम में से प्रत्येक व्यक्ति को बारे में वह व्यक्तिगत तौर पर फिक्रमंद रहते। यही कारण है कि वह इतने महान थें।”
इसी लेख में आगे तत्कालीन पंतप्रधान इंदिरा गांधी की शोक संदेश था जिसमे उन्होने कहा था, “पूरा देश एक अच्छे इन्सान और महान व्यक्ति को खो चुका है।”
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हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।