मिर्जा ग़ालिब अपने ही शायरी के थे आलोचक

मिर्जा ग़ालिब को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। जन्मदिन और पुण्यतिथी के दिन ऐसे ही कई कहानियो का बखान हम सुनते पढते हैं। ग़ालिब के बारे में जितना भी लिखा जाए और पढ़ा जाए वह कम ही हैं। ग़ालिब का एक-एक अशआर स्वतंत्र फ़लसफ़ा कहा जाता हैं। उन शेरो में जीवन के अध्याय, मौलिकता, नीतिशास्त्र, मुफलिसी, मिन्नतें और इल्तिजा तथा यातनाएं झलकती हैं।

मिर्जा असदुल्लाह खान ग़ालिब का संपूर्ण जीवन बदहाली और आर्थिक दरिद्रता में बिता। उनकी मौत भी भयानक रही। मरने के तीन-चार दिन बाद दुनिया को ग़ालिब के मौत का पता चलां। एक उर्दू अखबार ने सबसे पहले यह खबर प्रकाशित की उसके बाद दुनिया को इस महान शायर के मौत का पता चला। मौत से पहले ग़ालिब ने लिखा था-

मेरा हाल मुझसे क्या पूछते हो

एक आध रोज में हमसायों से पूछना

चचा ग़ालिब के नाम से मशहूर इस शायर की जिन्दगी काफी कशमश में गुजरी। उन्हें जिते जी आदर सम्मान नही मिला, पर मौत के बाद लोगों ने उन्हे सर आँखो पर बैठाए रखा।

आज ग़ालिब का नाम बिका कर कई लोग दौलत कमा रहे हैं। पर आपको एक बात बताता चलूं की ग़ालिब के एक आये दिन फाखा रहता। पैसो के नही होने के कारण ग़ालिब औऱ उनकी बेगम सिर्फ पानी पिकररात गुजार देते थे। दोनो ने कई राते भूख की शिद्दत में बिताये हैं। अपनी मुफलिसी बयां करते हुए लिखते हैं,

है खबर गर्म उनके आने की

आज ही घर में बोरिया न हुआ

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शादी को कहा दूसरी कैद

मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा में 26 डिसेंबर 1869 को हुआ। कहते हैं, जब मिर्ज़ा ग़ालिब साहब सिर्फ 13 साल के थे तब उनकी शादी हो गई थी।

उनकी शादी नवाब इलाही बक्श की बेटी उमराव बेगम से हुई थी। शादी के बाद ग़ालिब अपने छोटे भाई मिर्जा यूसुफ खान के साथ दिल्ली आ गए थे।

अपने एक खत में ग़ालिब ने अपनी शादी को दूसरी कैद कहा है। जबकि दोनों मिया बिवी में मे अच्छी खासी बनती थी। दिल्ली आने के बाद मिर्ज़ा ग़ालिब ने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बेटे को शेर-ओ-शायरी की शिक्षा देना शुरु किया।

ग़ालिब दम्पत्ती को औलाद का सुख भी नसीब नही हुआ। उनके कई बच्चे एक के बात एक दम तोडते गये। कुछ बच्चो ने जिन्दगी का सूरज भी नही देखा था। इसी तरह उनके कुछ बच्चे पैदा होने के कुछ दिनबाद माँ-बाप को छोडकर अलविदा हुए।

ग़ालिब एक चोटी के क्रांतिकारी शायर माने जाते थे। उनेक कई अशआर आज लोगों के जुबान पर हैं। कहते हैं कि उनके यह सारे अशआर बचे-कुचे हैं। क्योंकि उन्होंने अपने जिते जी अपने कई अशआरों को रद्द कर दिया था।

उन्होंने ऐसा इसलिए किया वे खुद अपने आलोचक थे। उन्हें अपनी कई अशआऱ छपने के लायक नही लगे। या फिर यूँ कहो की अंग्रेज ज्यादा दिन उनके शेऱो के तीर से नही बचते।

गौर करो ग़ालिब सारे अशआर और शेऱ अगर प्रकाशित होते तो एक अलग बात होती। उनके व्यक्तित्व से ज्यादा उनके साहित्य पर चर्चा होती।

1857 के विद्रोह में दिल्ली दहकउठा उस आग में ग़ालिब के कई शेर जलकर राख हो गये। इसी तरह उनके कई शेरों ने प्रकाशकों के धुलभरी मेजो पर दम तोड दिया।

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किस्से हुए मशहूर

ग़ालिब के शेऱो को लिखने को लेकर एक किस्सा काफी मशहूर हैं। ग़ालिब को हर रोज रात में सोते समय शेर याद आते। नये नये शेर उन्हे सुझते पर वे फोरन उसे लिखा नही करते। बिस्तर से उठकर लिखने में शायद दिक्कत होती।

या फिर ग़ालिब बिस्तर से उठना मुनासिब नही समझते होंगे। कोई नया शेर सुझता तो ग़ालिब फौरन अपने सलवार के लंबे से इजारबंद में एक गाठ लगाते। जैसे जैसे उन्हे शेऱ आते वे एक-एक गाठ इजारबंद में लगाते जाते। ऐसे ही हालात में वह सो जाते।

ग़ालिब जब सुबह उठते और अपने रोजमर्रा के कामो से फारीग होते तब वह आराम से बैठकर इजारबंद की एक-एक गाँठ खोलते और उस शेर को लिखते, जो उन्हे वह गाँठ मारते याद किया था। मशहूर शायर निदा फाजली ने इस ग़ालिब के इस इजारबंद के बारे में अपनी आत्मकथा में लिखा हैं। उन्होंने बीबीसी पर लिखे एक लेख में भी इसका जिक्र भी किया हैं।

हर एक बात पर कहते हो तुम कि तो क्या है,

तुम्ही कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ्तगु क्या है?

रगों में दौड़ते-फिरने के हम नहीं कायल,

जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?

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उस लेख में निदा कहते हैं, “इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था। इज़ारबंद दो फारसी शब्दोंसे बना हुआ एक लफ्ज़ है। इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी। हिन्दुस्तानी में इसे कमरबंद कहते हैं।

यह इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे। औरतों के इज़ारबंद मर्दों से अलग होते थे। औरतोंके लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे। लखनऊकी चिकन, अलीग की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़ेकलात्मक होते थे।

ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे। ये छुपाने के लिए नहीं होते थे। पुरुषों केकुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे। पुरानी शायरी में ख़ासतौर सेनवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य केबयान में शामिल होता था।

इजारबंद पर ग़ालिब के कुछ शेऱ

जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी जफ़ा

इज़ारबंद की ढीली से क्या उमीदें वफ़ा।

घरों में दूरियाँ पैदा जनाब मत कीजे

इज़ारबंदी ये रिश्ता ख़राब मत कीजे

पुरानी दोस्ती ऐसे न खोइए साहब

इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब

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दूसरा किस्सा कुछ यूं हैं, गालिब ने दिल्ली के मुशायरे देखे तो 1857 का गदर और दिल्ली में मचे कोहराम को भी न सिर्फ देखा था, बल्कि कलमबंद भी किया था। यह वह दौर था जब उनकी माली हालत बेहद खराब हो चुकी थी।

उनके भाई को मार दिया गया था। दिल्ली में हर तरफ अफरा-तफरी का माहौल था और अंग्रेज हर एक को शक की निगाह से देख रहे थे। इस वजह से उन्होंने कईयो को गिरफ्तार किया तो कईयों को फांसी पर चढाकर जान ले ली।

इसी झड़प में एक दिन गालिब को भी गिरफ्तार कर लिया गया। सिपाहियों ने उन्हें कर्नल ब्राउन के सामने लाया। कर्नल ने गालिब से पूछा, क्या तुम मुसलमान हो?

गालिब ने जवाब दिया, आधा..!” कर्नल उनका जवाब सुनकर समझ नहीं पाया और पूछा आधा किस तरह?” गालिब ने कहां, “शराब पीता हूं, सुअर नहीं खाता।

ग़ालिब के दौर के एक गुमनाम शायर नज़ीर अकबराबादी इस इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनातेथे। चचा ग़ालिब का यह इजारबंद दिल्ली के ग़ालिब म्यूझियममे रखा गया हैं।

म्यूझियममें लागिब के बहुत सी चीज़ों के साथ किसी हस्तकार के हाथ का बना हुआ एक इज़ारबंद भीहै। इसी तरह निजामुद्दीन दर्गाह परिसर में एक सुंदर इमारत हैं। जिसे ग़ालिब अकादमीकहा जाता हैं।इस इमारत में रोजाना मुशारये की महफील सजती हैं।

यह इन्स्टिट्यूट ग़ालिब पर संशोधन साहित्य भी प्रकाशित करता हैं। वहा ग़ालिब के साथ कई नामवरशा।यरो के प्रकाशित कृतीया आपको सस्ते दाम पर मिल जायेगी।

इस अकादमी क ठिक पिठे पिठे बगल में मिर्झा ग़ालिब अपनी कबर में शांती के साथ लेटे हैं। यहा दिनभरसैलानीयो का जमावडा रहता हैं। लोग देश के इस महान शायर को खिराजे अकिदत भेजते हैं।

जाते जाते :

* आन्तरिक विवशता से मुक्ती पाने के लिए लिखते थें ‘अज्ञेय’

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