दिलीप कुमार यानी भारतीय सिनेमा के महानायक। उनके अवसान से हिन्दी सिनेमा के एक दौर का अंत हो गया है। वह अपने नैसर्गिक अदाकारी के लिए जाने जाते थे।
जब वो कैमरे के सामने अभिनय कर रहे होते थे, तो कभी लगता ही नहीं था कि वह अॅक्टिंग कर रहे हैं। अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान तक सभी की अभिनय में कहीं न कहीं दिलीप कुमार की छाप दिखाई देती है।
With a heavy heart and profound grief, I announce the passing away of our beloved Dilip Saab, few minutes ago.
We are from God and to Him we return. – Faisal Farooqui
— Dilip Kumar (@TheDilipKumar) July 7, 2021
पिछले 40 सालों से अमिताभ बच्चन भारतीय सिने-जगत पर छाए हुए हैं। उनकी पत्नी जया बच्चन, जो खुद एक बेहतरीन अभिनेत्री हैं, से एक बार एक फिल्मी पत्रकार ने पूछा था कि “भारतीय सिनेमा का महानायक कौन है?, अमिताभ बच्चन?” तो उन्होंने कहा था, “नहीं, दिलीप कुमार।” वाकई में एकमात्र महानायक दिलीप कुमार ही हैं।
दिलीप कुमार की पहचान सिर्फ अॅक्टिंग ही नहीं है। ये अभिनय सम्राट उतने ही बेहतरीन इन्सान और उतने ही उत्साही पाठक भी थे। उनके पास किताबों का बहुत बड़ा संग्रह था। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, पंजाबी और मराठी इन पांचों भाषाओं पर उनकी अच्छी पकड़ थी।
दिलीप कुमार का परिवार पेशावर से नासिक आया था। वो देवलाली के पास रहे। नासिक का कोई भी व्यक्ति उनसे मिलता, तो वह ठेठ नासिक की शैली में मराठी बातचीत करते थे। उन्होंने मराठी में कई गाने उन्हें याद थे। तमाशा उन्हें बहुत पसंद था।
कई मराठी लोकगीत लावणियां उन्हें कंठस्थ थीं। एक बार मूड में आकर उन्होंने मुझे ताल-सुर के साथ लावणी गाकर सुनाया भी था। एक बार मुझसे वो बोले, “मैं नासिक वाली मराठी ही बोलता हूं। मुंबई-पुणे की मराठी मुझे नहीं आती।”
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मुस्लिम ओबीसी आंदोलन
बहुत पहले की बात है। उनकी शूटिंग औरंगाबाद में चल रही थी। उन्हें पता चला कि डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर सुभेदारी गेस्ट हाउस आए हैं। वे बाबासाहेब से मिले। बहुत सारी बातें कीं। बाबासाहेब ने उनसे कहा, “मुस्लिम समुदाय के कमजोर वर्गों के लिए कुछ करो।”
दिलीप कुमार ने मुझसे कहा, “मुझे उनकी बात खास जमी नहीं थी। लेकिन मुस्लिम ओबीसी के मुद्दे पर काम करते हुए मेरे मन में अम्बेडकर की वो बातें याद आती थीं।”
इस्लाम में कोई जाति-पाति नहीं होता है। कोई भेदभाव नहीं, लेकिन भारतीय मुस्लिम समाज में जाति-पाति है। बिरादरी है। मुस्लिम समाज जातिगत भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग बन गया है। यहां आनेवाले सभी धर्मों को जाति व्यवस्था ने निगल लिया है।
जाति से कोई संबंध न होने के बावजूद धर्मों को जाति व्यवस्था से समझौता करना पड़ा। धर्मांतरण हुए, लेकिन जाति परिवर्तन नहीं हुए। जातियाँ जस की तस बनी रहीं। इसीलिए मंडल आयोग ने कई मुस्लिम जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल किया।
उन्हें आरक्षण दिलाने के लिए मुस्लिम ओबीसी आंदोलन की शुरुआत की गई। पहले वरिष्ठ मुस्लिम वर्गों द्वारा इसका विरोध किया गया, लेकिन दिलीप कुमार मजबूती से खड़े रहे, जिससे विरोध समाप्त हो गया। महाराष्ट्र में विभिन्न स्थानों पर सभाएं आयोजित की गईं। लखनऊ, दिल्ली, हैदराबाद। हर जगह खुद दिलीप कुमार गए।
जब शरद पवार ने पहली बार मुस्लिम ओबीसी को रियायत देने का फैसला किया, जब विलासराव ने मुस्लिम ओबीसी की रियायतों और प्रमाणपत्रों के मुद्दे को हल किया और जब गोपीनाथ मुंडे ने गठबंधन के दौरान रद्द की गई रियायतों को दोबारा बहाल किया, तो इन सबके पीछे असली ताकत दिलीप कुमार ही थे।
शब्बीर अन्सारी, हसन कमाल, जहीर काज़ी, मैं, हम सब उस आंदोलन का हिस्सा थे। लेकिन अगर दिलीप कुमार का सपोर्ट न होता, तो मुस्लिम ओबीसी को कभी न्याय नहीं मिल पाता।
हिंदू ओबीसी और मुस्लिम ओबीसी एक समान कैसे हैं, एक जाति, एक बिरादरी के कैसे हैं, इस बारे में तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार को बताते हुए दिलीप कुमार ने कहा, “छगन भुजबल माली हैं और मैं बागबान। मेरा मतलब है, माली। जाति एक ही है। उनको रियायत मिलती है, तो बागबान को क्यों नहीं?”
दिलीप साहब की बातें सुनकर उस समय शरद पवार और छगन भुजबल की आंखें खुली की खुली रह गई थीं।
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अम्बेडकर प्रेरणास्त्रोत
दिलीप कुमार को यह प्रेरणा और हिम्मत मिली कहाँ से? मैंने एक बार उनसे पूछा, तो उन्होंने मुझे सुभेदारी गेस्ट हाउस में डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर से मुलाकात वाला किस्सा सुनाया। उनकी सामाजिक चेतना के पीछे प्रेरणास्रोत थे डॉ. अम्बेडकर।
इससे पहले की एक और घटना है। दिलीप कुमार मुंबई विश्वविद्यालय के अंतर्गत एक फुटबॉल टूर्नामेंट में खालसा कॉलेज के लिए खेल रहे थे। मैच जीतने के बाद टीम के कप्तान बाबू ने शाम को सभी को अपने घर खाने पर बुलाया।
बाबू ने चिकन खुद पकाया था। लेकिन डिनर पर सिर्फ दिलीप कुमार ही पहुंचे। टीम में से कोई और नहीं आया। दिलीप कुमार ने बाबू से पूछा, “अरे कोई और क्यों नहीं आया?”
विजेता टीम के कप्तान बाबू ने कहा, “यूसुफ भाई, मैं दलित महार हूं। वे मेरे हाथ का बना कैसे खा सकते हैं?” इस घटना के बारे में बताते हुए दिलीप कुमार की आंखों में आंसू आ गए। गला भर आया।
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शिष्टता काम आई
एक और प्रसंग है। अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे और नवाज शरीफ पाकिस्तान के। भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के आमने-सामने खड़े थे। मामला गंभीर था। अचानक बांद्रा पाली हिल स्थित दिलीप कुमार के घर पर फोन आया।
श्री. वाजपेयी खुद बोल रहे थे। उन्होंने फौरन उन्हें दिल्ली बुलाया। डॉ. ज़हीर काज़ी के साथ दिलीप साहब सीधे दिल्ली पहुंच गए। ज़हीर काज़ी उनके करीबी डॉक्टर और दौस्त थे। ज़हीर के घर और ससुराल में स्वतंत्रता सेनानियों की समाजवादी परंपरा थी। उनके ससुर मोहिद्दीन हारिस दिलीप कुमार के दोस्त थे, इसलिए दिलीप कुमार को काज़ी पर बहुत ज़्यादा यकीन था।
वाजपेयी ने दिलीप कुमार से पूछा, “आप ये कर सकते हैं?” फोन सीधे नवाज़ शरीफ के पास गया। दिलीप कुमार की आवाज़ सुनकर नवाज़ शरीफ के होश उड़ गए। वे उन के बहुत बड़े फैन थे। उनकी कई फिल्में, डायलॉग और गाने उन्हें कंठस्थ थे।
दिलीप कुमार की बातों ने उन पर जादू कर दिया और इस तरह एक भयानक युद्ध रुक गया। वाजपेयी की महानता यह है कि उन्हें ऐसा करने की बात सूझी। दिलीप कुमार की शिष्टता काम आई।
मुस्लिम ओबीसी आंदोलन के चलते दिलीप कुमार, शब्बीर अंसारी, हसन कमाल, डॉ. ज़हीर काज़ी इन सबसे तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की मित्रता हो गई। राज्यसभा का चुनाव था। अल्पसंख्यक कोटे से कई कांग्रेसी कोशिश कर रहे थे। लेकिन विलासराव चाहते थे कि दिलीप कुमार राज्यसभा जाएं। उन्होंने मुझे दिलीप कुमार से बात करने के लिए कहा।
दिलीप कुमार बोले, “ओह, इन चुनावों में घोड़ाबजार होता है। मेरे पैसे कहां से आएंगे?” मैंने विलासराव जी को फोन लगा कर दिया, वे दिल खोलकर हंसे। उन्होंने कहा, “दिलीप साहब, आपको कुछ नहीं करना है, सारी जिम्मेदारी मेरी है।”
विलासराव जी उसी दिन दिल्ली के लिए जा रहे थे। प्रदेश अध्यक्ष गोविंदराव आदिक भी साथ थे। आदिक अपने ही जुगाड़ में थे। दिलीप कुमार का नाम लेते ही सोनिया गांधी सहर्ष मान गईं।
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सिनियर और जूनियर
विलासराव देशमुख मुख्यमंत्री बन गए। उस समय विधायक हुसैन दलवाई को मंत्रिमंडल में पहले पांच में शामिल किया गया था। लेकिन इसका भी एक बड़ा किस्सा है। सोनिया गांधी ने दिलीप साहब से पूछा, “हुसैन दलवाई नाम कैसा है?”
दिलीप कुमार के दिमाग में वरिष्ठ हुसैन दलवाई थे यानी जो वसंतदादा पाटिल के साथ मंत्रिमंडल में थे। वह दिलीप कुमार के पुराने दोस्त थे। उन्होंने बिना एक भी पल गंवाए सोनिया जी से कहा, “हुसैन दलवाई बहुत अच्छे इन्सान हैं। राष्ट्र एक सेवा दल के साथ ही विकसित हुए हैं। सज्जन हैं। बस उन्हें फाइनल करिए।”
हुसैन दलवाई का नाम पक्का हो गया। लेकिन उस वक्त दिलीप कुमार को पता नहीं था कि हुसैन दलवाई उसी परिवार के एक जूनियर हैं। जूनियर हुसैन दलवाई यूक्रेन से हैं। इसके पहले राज्यसभा में थे, वो हुसैन दलवाई थे। हमिद दलवाई के भाई।
इस पर कांग्रेस के कुछ मुस्लिम नेताओं ने दिल्ली में आपत्ति जताई। तब दिलीप कुमार ने मुझसे पूछा, “अरे, मेरे दिमाग में सेवा दल के हुसैन दलवाई थे। ये हुसैन दलवाई कौन हैं?” मैंने बताया, यह यूक्रेन वाले हैं।
उन्होंने कहा, “मुझे इनके बारे में नहीं पता था। मुझे लगा कि ये सेवा दल के हुसैन दलवाई हैं, तो मैंने सोनिया जी को फौरन हां कर दी।”
मैं हंसा और बोला, पुराने हुसैन दलवाई से आपकी मित्रता कैसे? उन्होंने कहा, वो हुसैन दलवाई मेरे पुराने दोस्त हैं। मैं पुराने सेवा दल के कई लोगों को मैं निजी तौर पर जानता था। इसलिए वो नाम मेरे ज़ेहन में रह गया। वह सीनियर हुसैन इस हुसैन दलवाई के चाचा थे। चिपलून के ही थे और सेवा दल की पहली पीढ़ी के थे।
कोंकण में अधिकांश मुस्लिम समुदाय शुरू से ही सेवा दल में था और दिलीप कुमार उनके और सेवा दल के योगदान के बारे में जानते थे। इसलिए उन्होंने बड़े प्यार से सोनिया जी की सिफारिश की थी। ज्युनिअर हुसैन दलवाई के बारे जानते ही वो खुश हो गये।
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पत्नी और माँ
दिलीप कुमार का प्रेम मेरे लिए बहुत बड़ा खजाना है। भिंडी बाजार में मुस्लिम-तेली समुदाय द्वारा आयोजित ओबीसी सम्मेलन में उनके हाथों द्वारा दिए गए सम्मान को मैं कभी नहीं भूल सकता। लखनऊ में मुस्लिम-ओबीसी सम्मेलन में उन्होंने मेरे बारे में कितनी प्यारी बातें कीं।
दिलीप कुमार होते थे तो औरंगाबाद, जालना में बड़ी-बड़ी सभाएं होती थीं। उनके साथ बिताए गए उन पलों को कभी भुला नहीं सकूंगा।
उम्रभर जिन्होंने दिलीप कुमार का साथ निभाया, वो सायरा बानो थीं। वह उनकी धर्मपत्नी थीं, लेकिन आखिरी दिनों में ऐसा लग रहा था जैसे वह उनकी मां बन गई हों।
वो दिलीप कुमार की बच्चों की तरह देखभाल करती थीं। दिलीप कुमार की कई सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेती थीं। लोगों की मदद करती थीं। सायरा बानो ने अपना पूरा जीवन दिलीप कुमार को समर्पित कर दिया।
एक अभिनेत्री के तौर पर तो वह बड़ी हैं ही, लेकिन एक जीवनसाथी के रूप में उन्होंने जिस तरह साथ निभाया, जो सपोर्ट देते हैं, उससे देखते हुए उनका कद और बढ़ गया है। वह वक्त दिलीप कुमार के साथ, उनके आसपास ही रहती थीं।
एक क्षण भी उनका साथ नहीं छोड़ती थीं। दिलीप कुमार 98 साल के हो गए थे। पिछले कुछ सालों से उनका चलना-फिरना भी बंद हो गया था। वो बिस्तर पर ही रहते थे। उनकी याददाश्त भी लगभग चली गई थी।
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ऑडीटोरियम की स्थापना
आज उनके साथ आखिरी मुलाकात याद आ रही थी। वह ताज एंड में रितेश देशमुख और धीरज देशमुख के रिसेप्शन में आए थे। मुझे देखते ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरे दोस्त कपिल, कपिल कहते रहे।
वो मेरा हाथ छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। बड़ी मुश्किल से मैंने उनका हाथ हटाकर वापस सायराजी के हाथों में दिया। उस घटना को याद करके आज भी मुझे अलग सी तकलीफ होती है, क्योंकि दिलीप कुमार उसी समय खो गए थे।
आज मैं और डॉ. ज़हीर काज़ी दिलीप कुमार के अंतिम दर्शन करने गए थे। तब सायराजी ने डॉ. काज़ी को बताया कि उन्होंने अपनी किताबों का पूरा संग्रह अंजुमन को देने के लिए कहा है।
डॉ. काज़ी ने उनसे कहा, “दिलीप साहब न केवल अंजुमन के पूर्व छात्र थे, बल्कि एक लोकप्रिय फुटबॉलर भी थे। हम जल्द ही अंजुमन के बांद्रा कैम्पस में उनके नाम से एक ऑडीटोरियम शुरू करेंगे।”
दिलीप कुमार सिने जगत के दिग्गज तो थे ही, पर उनके अंदर के इन्सान उनके भीतर जो देशभक्त था, वो उससे भी कहीं बड़ा था। विचारों से वे कट्टर समाजवादी थे। एकदम धर्मनिरपेक्ष और उतने ही आधुनिक भी।
मुस्लिम समुदाय के पसमांदा तबके को दिया गया उनका योगदान अतुलनीय है। उतना ही अतुलनीय हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भी है।
सच पूछिए तो दिलीप कुमार सही अर्थों में भारतरत्न के हकदार थे। बेशक न मिलने से उनकी महानता कम नहीं हो जाती। उस महान व्यक्ति को मेरा आखिरी सलाम।
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लेखक महाराष्ट्र के मुस्लिम ओबीसी आंदोलन के कार्यकर्ता और महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य हैं।