आज भी सिने संगीत के शौकिन ये मानते हैं कि ‘मौहब्बत अब तिजारत बन गयी हैं..’ गीत मुहंमद रफी ने गाया हैं। दरअसल ऐसा नही है, ये मशहूर गाना अनवर हुसैन ने गाया हैं। चौंक गये न! जी हाँ बॉलीवूड के अस्सी के दशक के उभरते गायक अनवर ने इस गीत को गाया था।
80 के दशक में कई सुपरहिट गाने देने के बाद 90 का दशक आते आते अनवर गुमनाम हो गए। अब संगीत इंडस्ट्री हो या मीडिया उन्हें कोई याद नही करता। बीते दिनों उनका जन्मदिन था, इस मौके पर उनके एक फैन्स ने फेसबुक पर पोस्ट लिखी, और हमे ये लेख लिखने कि प्रेरणा मिली।
‘हम से का भूल हुई, जो ये सज़ा हम का मिली’ (जनता हवालदार), ‘कोई परदेसी आया’ (हम हैं लाजवाब), ‘जिन्दगी इम्तिहान लेती है’ (नसीब), ‘दिल दिवानो का डोला’ (तहलका), ‘हाथों की चंद लकीरों का’ (विधाता), ‘एक अकेला मन का पंछी’ (सरदार), ‘सोहनी मेरी सोहनी’ (सोहनी महिवाल), ‘ये प्यार तो कुछ कुछ होता है’ (प्रेम रोग) आदी।
ऐसे कितने मुखडों के गिनाये जिसे अनवर ने अपनी मखमली आवाज में गाया था। वैसे उनका पुरा नाम अनवर आशिक हुसैन हैं। मगर संगीत और फिल्म इंडस्ट्री में वे अपने पहले नाम से जाने जाते हैं। उनका का जन्म 1 फरवरी,1949 को मुंबई में हुआ था। राज्यसभा टीवी के मुताबिक उनके पिता हारमोनियम वादक और प्रसिद्ध गुलाम हैदर के सहायक संगीत निर्देशक थे।
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क्लासिकल म्यूजिक की ट्रेनिंग
घर में संगीत का माहोल होने कि वजह से उन्हें बचपन से ही गाने का शौक रहा। उनके वालिद अच्छे संगीतकार थे। वालिद नें अनवर के संगीत शौक को आगे बढ़ाया। वालिद ने उन्हें उस्ताद अब्दुल रहमान खान के पास क्लासिकल म्यूजिक की ट्रेनिंग दिलवाई। उम्र के बीस पड़ाव पार करने से पहले ही उन्होंने स्टेज पर गाना शुरू किया।
मशहूर सिंगरो के गीतों को वे कॉन्सर्ट में गाते थे। मुहंमद रफी के गाने वे ज्यादा गाया करते थे, क्योंकि उन दिनों रफी साहब के गानो को काफी मकबुलियत मिलती थी। ऑर्केस्ट्रा और शादी के फंक्शन्स में गाते रहे। उन दिनों फक्शन्स मे गाने के लिए महज 10 रुपये मिला करते थे।
इस एक प्रोग्रम में आठ-दस गानों से जो रुपया मिलता उससे अपना गुजर चलाते। पर उनकी इच्छा थी, कि वे बॉलीवूड में सिंगर बने। इसी एक कॉन्सर्ट में स्ट्रगलर म्यूजिक डायरेक्टर कमल राजस्थानी ने उन्हें देखा और उनकी दोस्ती हुयी। उन दिनों वे संगीतकार के रुप में काम कि तलाश कर रहे थे। फिर जब उन्हें फिल्म ‘मेरे गरीब नवाज’ मिली तो उन्होंने अनवर हुसैन को गाने का मौका दिया।
ये फिल्म 1973 में आयी थी, और जिसकी उनकी गायी ये ग़ज़ल बहुत मक़बूल हुई, “कसमें हम अपनी जान की खाये चले गए।” इस गीत को याद करते हुये अनवर राज्यसभा टीवी के गुफ्गतु कार्यक्रम में कहते हैं, मेरी ये ग़ज़ल सुनकर मुहंमद रफी साहब भी चौक गये और अपने सेक्रेटरी से बोले, “ये ग़ज़ल मैंने कब गायी?”
सेक्रेटरी ने जवाब दिया कि ये आपने नहीं गायी है, बल्कि एक नया लड़का है अनवर, उसने गायी है। रफी साहब आश्चर्य चकित हुए, बोले, “बहुत मिलती है आवाज़।”
महज 20 साल कि उम्र में उन्होंने ये गीत गाया था। ये गीत काफी हिट साबित हुआ। जिसके बाद उन्होंने कई बड़े संगीतकारों क साथ काम किया।
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जनता हवालदार से मिली पहचान
गुफ्तंगू में अनवर कहते है, “काम के ही सिलसिले में जब संगीतकार जयदेव से मिला तो उन्होंने अपना कोई गीत सुनाने को कहा, मैंने वही ‘कसमें हम अपनी जान की’ सुनाया, तो जयदेव बोले, “ये तो ठीक है पर कुछ अपना सुनाओ!”
तब मैेने कहा, “ये मेरा ही गीत है” जिसके बाद जयदेव भी हतप्रभ रह गए।
कुछ बरस यूं ही बीत गए अनवर काम ढूंढते महमूद के पास पहुँचे। महमूद ने उन्हें सुना और बहुत खुश हुये, और कहा, अरे तुम्हारी आवाज तो मुहंमद रफी से मिलती हैं, उन्होंने कहा अभी मैं ‘कुँवारा बाप’ बना रहा हूँ, बाद ‘जनता हवालदार’ बनाऊँगा उसमें तुमसे गवाऊंगा।
कुछ साल इंतजार करने के बाद जनता हवालदार शुरू हुयी, और अनवर को गाने का मौका मिला। जनता हवालदार के गाने जब रेकॉर्ड हुए और रिलिज हुए काफी पसंद किए गये।
प्रसिद्ध अभिनेता राजेश खन्ना पर ‘तेरी आंखें की चाहत में’, और ‘हमसे का भूल हुयी जो ये सजा हमको मिली’ परदे फिल्माए गये और फिल्म और गीत दोनों सुपरहिट थे; इसी के साथ अनवर को काम और पहचान मिलने लगी।
करीब दो दशक के करियर में उन्होंने फिल्मी, क्लासिकल, कंटेपररी, गजल, भजन, कव्वाली और सूफी गाने गाए।
अनवर ने संगीत निर्देशक खय्याम, राजेश रोशन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी से बप्पी लाहिरी, अन्नु मलिक, दिलीप सेन-समीर सेन के साथ सुमन कल्याणपूरकर, लता मंगेशकर, आशा भोसले, अलका याज्ञनिक के साथ कई युगल गीत गाए।
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एक बडी गलती
मुहंमद रफी के निधन के बाद अनवर हुसैन कि तकदीर चमक गयी, प्रति रफी के आवाज के लिए उन्हें डिमांड मिला। साथ ही शोहरत भी मिली। उन्होंने नवम्बर 2007 के हिन्दुस्थान टाइम्स के इंटरव्यू में बताया हैं की,
“हां, मेरी आवाज मुहंमद रफी जैसी है। अमीन सयानी ने मुझे अपनी शैली बदलने को कहा था, क्योंकि मैं रफ़ी साहब के क्लोन की तरह लग रहा था। मैंने उससे कहा कि मेरी आवाज़ खुदा कि देन है, मैं इसे बदल नहीं सकता।”
रफी से मिलती-जुलती आवाज उनकी पहचान बन चुकी थी। और इसी आवाज ने उन्हें शोहरत दिला दी थी। जिसके चलते उन्होंने अपनी फीस बढ़ा दी। जिसे वे अपनी सबसे बड़ी बेवकुफी मानते हैं।
राज्यसभा टीवी के इंटरव्यू में उन्होंने अपने इस गलती के बारे में बताया। वे कहते हैं, इसकी वजह से उनका करियर पुरी तरह चौपट हो गया। मनमोहन देसाई के नसीब फिल्म के अमिताभ के लिए ‘जिन्दगी इम्तिहान लेती हैं’ गीत गाया था, इसके फीस के रुप में मनमोहन ने पुछा उन्होंने 6 हजार बताई, जिससे मनमोहन देसाई काफी नाराज हुए।
उन्होंने सोचा ये नया लड़का और से 5000 हजार लेता हैं, और मुझसे 6000 मांगता हैं। इसके बाद उन्होंने शबीर कुमार को फिल्म के दुनिया में लाया और प्रति रफी के रुप मे स्थापित कर दिया। देसाई ने ‘कुली’ बनाई तो एक उसके गीत शब्बीर कुमार से गवाये। शब्बीर कुमार को लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से मिलवाया गया और कुली के सारे के सारे गीत उन्हें मिल गए।
यही गलती उन्होंने दुबारा प्रेमरोग को लेकर की, जिसके बाद ऋषि कपूर के साथ अनबन हो गयी। और यहां आ गये सुरेश वाड़कर, जो आगे चलकर बड़े गायक बने। पहले शब्बीर कुमार और बाद में सुरेश वाड़कर उनके जगह रिप्लेस हुए और अनवर फिल्म इंडस्ट्री से हमेशा के लिए किनारा हो गए।
ये बात अच्छी हैं, कि अनवर कि गलती के वजह से शब्बीर कुमार और सुरेश वाड़कर की तकदीर चमक उठी। जिसके बाद शब्बीर कुमार का दौर शुरू हुआ। और अमिताभ कि फिल्मी आवाज बनकर वे उभरे।
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राजनीति के हुए शिकार
मनमोहन देसाई और राज कपूर बॅनर से अनबन के बाद उनके बारे मे गॉसिप शुरू हुए। इसमें उनके फीस बढाने को लेकर बात होती। उपरी तौर पर अच्छे से मिलने वाले दोस्त भी उनसे किनारा करते।
नब्बे का दशक आते आते उन्हें फिल्म न के बराबर मिलने लगी। यह दौर नये वेस्ट्र्न संगीत का था, बप्पी लाहिरी के वेस्टर्न पॉप और नदीम श्रवण के मेलेडियस दौर कि शुरुआत हो चुकी थी, फिल्म डिस्को डान्सर और आशिकी के बाद फिल्मी संगीत और उसके शोकिनों रूची बदल गयी। यहां से संगीत क नये युग कि शुरुआत हुयी।
21 नवंबर 2007 में हिंदुस्तान टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में, उन्होंने आशिकी के रिलीज़ होने के बाद कुमार सानू के उदय का हवाला दिया। 1992-93 तक इक्का-दुक्का गीत इन्हें मिलते रहे और फिर वो भी बंद हो गए। इसके साथ दो-दो महिने इंडस्ट्री से दूर रहने कि वजह भी करिअर दांव पर लगने कि वजह बताई।
वे कहते हैं, “अब मैंने महसूस किया कि मुझे फिल्म उद्योग की आवश्यकता नहीं थी। गायन की मेरी शैली पुरानी हो गई थी। मैं केवल रफ़ी साहब के गीत गाता हूँ और अपने।”
राज्यसभा के टीवी में उन्होंने बताया, अब भी वे काम कि तलाश में हैं। इन दिनों वे देश-विदेश में लाइव शो किया करते हैं। आज कल के संगीत के बारे में टिप्पण्णी करते हुये कहते, आज तो संगीत से मेलेडी गायब हुई हैं, और शोर-शराबा और आवाजे आ गयी।
वे कहते हैं, “यदि आप भाग्यशाली हैं, तो आपको एक गायक के रूप में स्वीकार किया जाता है, चाहे आप अपनी नाक या गले से गाएं।”
आज के संगीतकार भी उनसे किनारा करते हैं, इस बारे में वे कहते हैं, “मेरी त्रासदी यह है कि मैं आज किसी भी संगीत निर्देशक को काम के लिए नहीं कह सकता। जब मैं स्टूडियो में रिकॉर्डिंग कर रहा था तो उनमें से ज्यादातर ड्रमर या तबला वादक थे।”
शोहरत और डिमांड बढ़ने का बाद अपनी फीस कौन नहीं बढ़ाता। लता तो उन दिनों एक गाने के दस हजार लिया करती थी। उन्हें तो किसी ने भला-बुरा नहीं कहां, खैर। अनवर हुसैन फिल्मी दुनिया क लॉबिंग के शिकार हो गये और संगीत शौकिनों के लिए एक बेहतरीन गायक खो दिया।
गौरतलब हैं कि, गुमनामी कि जिन्दगी जी रहे अनवर को आज भी अच्छे संगीतकार और गाने कि तलाश हैं। पर अफसोस आज गुफ़्तगू ए मौसिक़ी में न उनकी कहीं चर्चा होती, न उन्हें याद किया जाता। लेकिन जितने गीत उन्होंने गाये हैं, ज़्यादातर सदाबहार हैं।
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हिन्दी, उर्दू और मराठी भाषा में लिखते हैं। कई मेनस्ट्रीम वेबसाईट और पत्रिका मेंं राजनीति, राष्ट्रवाद, मुस्लिम समस्या और साहित्य पर नियमित लेखन। पत्र-पत्रिकाओ मेें मुस्लिम विषयों पर चिंतन प्रकाशित होते हैं।