हिन्दी सिनेमा ने यूँ तो एक से एक कई शानदार अभिनेता दिए हैं लेकिन दिलीप कुमार एक ऐसे अदाकार थे जिन की बात ही कुछ और थी। बॉलीवुड के साहिब ए आलम कहे जाने वाले दिलीप कुमार का बुधवार सुबह करीब साड़े सात बजे निधन हो गया। वे 98 साल के थे। उन्होंने मुंबई के हिन्दुजा हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली।
Dilip Kumar Ji will be remembered as a cinematic legend. He was blessed with unparalleled brilliance, due to which audiences across generations were enthralled. His passing away is a loss to our cultural world. Condolences to his family, friends and innumerable admirers. RIP.
— Narendra Modi (@narendramodi) July 7, 2021
सांस लेने में दिक्कत होने पर उन्हें यहां 29 जून को भर्ती किया गया था। दिलीप कुमार की तबीयत लंबे समय से ठीक नहीं थी। उन्हें कई बार अस्पताल में भी भर्ती करना पड़ा। उन को पिछले एक महीने में दो बार अस्पताल में भर्ती करवाया गया था।
इससे पहले कोरोना की वजह से पिछले साल दिलीप कुमार के दो छोटे भाइयों का इंतकाल हो गया था। 21 अगस्त को 88 साल के असलम का और फिर 2 सितंबर को 90 साल के अहसान चल बसे। इसके चलते सायरा बानो और दिलीप कुमार ने 11 अक्टूबर को अपनी शादी की 54वीं सालगिरह का जश्न नहीं मनाया था।
दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसंबर 1922 को पाकिस्तान के शहर पेशावर में हुआ था। उन का पहला असली नाम मुहंमद यूसुफ खान था। बाद में उन्हें पर्दे पर दिलीप कुमार के नाम से शोहरत मिली।
उनकी शुरुआती पढ़ाई महाराष्ट्र के शहर नासिक में हुई। बाद में उन्होंने फिल्मों में अभिनय का फैसला किया और 1944 में आई फिल्म ‘ज्वार भाटा’ से बॉलीवुड में डेब्यू किया।
उनकी शुरुआती फिल्में नहीं चलने के बाद अभिनेत्री नूर जहां के साथ उन की जोड़ी हिट हो गई। फिल्म ‘जुगनू’ दिलीप कुमार की पहली हिट फिल्म बनी। दिलीप साहब ने लगातार कई फिल्में हिट दी हैं। उन की फिल्म ‘मुगल-ए-आज़म’ उस वक्त की सब से ज़्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी।
यूँ तो दिलीप कुमार ने 60 से अधिक फिल्मों में काम किया है मगर मुगल-ए-आज़म एकमात्र ऐसी फिल्म है जिस में उन्होंने एक मुस्लिम का किरदार निभाया है।
अगस्त 1960 में रिलीज हुई यह फिल्म उस वक्त की सब से महंगी लागत में बनने वाली फिल्म थी, जिसे के. आसिफ ने बनाया था। यह वही के. आसिफ है जिन्हे पंडित नेहरू से इतनी मोहब्बत थी के नेहरू के निधन की खबर सुन कर इन्हे गहरा सदमा पहुंचा और वह भी दुनिया से चल बसे।
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युसूफ खान से बने दिलीप कुमार
हिन्दी सिनेमा के सब से बड़े इन्फ्लूएंसर दिलीप कुमार माने जाते हैं। इन्हें कई नामों से जाना जाता है। कोई इन्हें भारत का पहला ‘मेथड एक्टर’ कहता है तो कोई ‘ट्रैजडी किंग’, लेकिन आप इन का असली नाम न भूलें। दरअसल, उन का असली नाम मुहंमद यूसुफ खान था।
प्रोड्यूसर के कहने पर उन्होंने अपना नाम बदला था। जिस के बाद उन्हें स्क्रीन पर दिलीप कुमार के नाम से लोग जानने लगे थे। उनकी पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ की प्रोड्यूसर देविका रानी ने उन्हें यह नाम दिया था। उन्होंने ने इस की जानकारी अपनी लिखी किताब ‘दिलीप कुमारः द सब्सटेंड एंड द शैडो’ के जरिए फैन्स को दी हैं।
दिलीप ने बुक में लिखा, “देविका रानी ने मुझ से कहा कि यूसुफ, मैं तुम्हें बतौर एक्टर लॉन्च करने का सोच रही हूं और मैं सोचती हूं कि स्क्रीन पर तुम्हारा नाम बदलना सही आइडिया है। कोई ऐसा नाम तुम्हें दिया जाए जो तुम्हें ऑडियंस से कनेक्ट करे और रोमांटिक इमेज बन सके।
तुम्हारे स्क्रीन पर आते ही लोगों के दिमाग में एक छवि बन जाए। मुझे लगता है कि दिलीप कुमार अच्छा नाम है। यह मेरे दिमाग में अभी आया, जब मैं तुम्हारे लिए सही नाम सोच रही थी। तुम्हें कैसा लग रहा है यह नाम?”
उस समय युसूफ खान के सामने तीन नाम रखे गए थे। युसूफ खान, दिलीप कुमार और वासुदेव। युसूफ साहब ने कहाँ कि युसूफ खान ना रखे बल्कि बाकी दोनों में से आप को जो ठीक लगे वो रख दो।
इस के कुछ दिनों बाद युसूफ साहब ने अख़बार में एक इश्तीहार देखा तब आप को पता चला कि देविका रानी ने उन के लिए दिलीप कुमार नाम चुना हैं।
दिलीप कुमार बताते हैं कि, “एक्टिंग का करियर मैं ने इसलिए चुना, क्योंकि मुझे चार फिगर में सैलरी काफी आकर्षित कर रही थी। मेरे पिता एक्टिंग को ‘नौटंकी’ कहा करते थे। ऐसे में मैं ने स्क्रीन पर अपना नाम बदलना ठीक समझा, लेकिन पिताजी को इस बारे में नहीं बताया, क्योंकि उन से पिटाई होने का डर था।”
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उर्दू से प्यार
गीतकार गुलजार ने क्विंट के साथ खास बातचीत में बताया था कि दिलीप कुमार को उर्दू जबान बहुत प्यारी थी। वो अक्सर नजीर अकबराबादी की नज्में पढ़ा करते थे। उन्होंने कहा, “दिलीप कुमार खूबसूरत उर्दू बोलते हैं। उनका तलफ्फुज बहुत अच्छा हैं।”
गुलजार साहब ने कहा था, “दिलीप कुमार क्योंकि पेशावर से थे तो उस वजह से उनकी जबान में फारसी का भी प्रभाव था। इस के साथ वो फिल्मों के सीन, स्क्रिप्ट भी उर्दू में लिखा करते थे। जब उन्हें किसी सीन के लिए डायलॉग याद करना होता था तो उसके लिए भी वो उसे ऊर्दू में लिखा करते थे।
उन की उर्दू के साथ-साथ पंजाबी भी बहुत अच्छी थी। वो मुझे सेट पर ‘ओ यारा’ बुलाया करते थे और काफी अच्छी पंजाबी भी बोला करते थे।”
दिलीप कुमार की उर्दू और शेरो शायरी से मोहब्बत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी अदाकारी का राज शेरो शायरी को बताया था। एक्टर टॉम अल्टर ने एक कार्यक्रम में दिलीप कुमार के साथ अपना एक किस्सा साझा करते हुए बताया था कि “एक बार मैंने दिलीप साहब से पूछा कि अच्छी एक्टिंग का राज क्या है? दिलीप कुमार ने बेझिझक कहा शेरो शायरी।”
दिलीप कुमार के पसंदीदा शायरों में से एक फैज अहमद फैज थे। एक इंटरव्यू में खुद वो फैज की शायरी पर बात करते हुए कहते हैं, “फैज साहब के चाहने वालो कई ऐसे भी हैं जो उन की शायरी का कुछ हिस्सा समझें और कुछ नहीं। उन में एक मैं भी हूं।”
एक कार्यक्रम में दिलीप कुमार और उर्दू शायर अहमद फराज भी साथ दिख चुके थे। अहमद फराज ने दिलीप कुमार को प्यार से संबोधित करते हुए ‘यूसुफ जान’ बुलाया था। इसके अलावा दिलीप कुमार कई बार मुशायरों में शायरी करते हुए भी नजर आ चुके थे।
दिलीप कुमार के पिताजी ने जब उन की तसवीर एक फिल्म के इश्तीहार में देखी तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ क्योंकि उस समय उपमहाद्वीप में फिल्मों में काम करने को अच्छा नहीं माना जाता था। दिलीप साहब के पिता कई बार उन के पडोसी के बेटे पृथ्वीराज कपूर के फिल्मों में काम करने को लेकर नाराज़गी का इज़हार कर चुके थे।
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रेकॉर्डब्रेक पुरस्कार
दिलीप कुमार को आठ फिल्मफेयर अवार्ड मिल चुके हैं। सब से ज़्यादा पुरस्कार जीतने के लिए दिलीप कुमार का नाम गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। दिलीप कुमार को साल 1991 में पद्म भूषण और 2015 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
1994 में उन्हें दादा साहेब फालके सम्मान से नवाज़ा गया। 1998 में वह पाकिस्तान के सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से भी नवाज़ा गए। 2000 से 2006 तक वह राज्य सभा के सदस्य भी रहे।
दिलीप साहब अपने आप में एक युग थे जिस का इकरार शताब्दी के महानायक अमिताभ बच्चन भी कर चुके हैं। उन का जो अंदाज़ था वो उन से ही शुरू हुआ और उन पर ही खत्म हुआ।
उन सा अंदाज़ सिने जगत में ना उन से पहले देखने को मिलता हैं ना उन के बाद। उन्होंने सिने जगत को एक नई दिशा दी। उन्हें धर्म या प्रदेश की बंदिशों में बांधना बेवकूफी हैं क्योंकि दिलीप साहब इन सब से ऊपर थे। उन्हें बकौल राहुल गाँधी के उन के योगदान के लिए सदीयों तक याद रखा जाएगा।
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लेखक सामाजिक विषयों के अध्ययता और जलगांव स्थित डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज में अध्यापक हैं।