कहानी मुस्लिम आरक्षण के विश्वासघात की !

संविधान सभी भारतीयों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की गारंटी देता है चाहे वे किसी भी धर्म, जाति के हों या उनका कहीं भी जन्म हुआ हो। यह सिद्धांत रूप में भले ही सही हो लेकिन व्यवहार में कुछ और ही देखने में आता है, विशेष रूप से मुसलमानों के साथ। कोई भी नेता मुस्लिम आरक्षण की मांग नहीं उठा रहा है, जबकि उच्च न्यायालय ने आरक्षण की उनकी मांग को सही ठहराया है।

मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग नई नहीं है, बल्कि राजनीतिक नेताओं द्वारा उनके साथ किए गए विश्वासघात की एक लंबी कहानी है। 24 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा अल्पसंख्यकों और मौलिक अधिकारों पर एक सलाहकार समिति नियुक्त की गई, जिसके अध्यक्ष सरदार पटेल थे।

8 अगस्त, 1947 को समिति ने विधानमंडलों और लोक सेवा में मुसलमानों के लिए आरक्षण की सिफारिश की तथा अल्पसंख्यक अधिकारों की सुरक्षा के लिए प्रशासनिक तंत्र के निर्माण का प्रस्ताव रखा गया। इसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया।

14 अगस्त, 1947 को राष्ट्र की ओर से संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ। राजेंद्र प्रसाद ने अल्पसंख्यकों को आश्वासन दिया, ‘‘भारत में सभी अल्पसंख्यकों को हम आश्वासन देते हैं कि उन्हें उचित और न्यायपूर्ण व्यवहार मिलेगा और उनके साथ किसी भी रूप में कोई भेदभाव नहीं होगा।’’

दुर्भाग्य से, 25 मई, 1949 को ही इस वादे को तोड़ दिया गया और मुसलमानों को आरक्षण देने की सिफारिश को स्वीकार करने वाले प्रस्ताव को उलट कर उस हिस्से को हटा दिया गया। यह पहला विश्वासघात था।

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धार्मिक आधार पर अन्याय

अनुसूचित जातियों के लिए राष्ट्रपति का आदेश 1950 में केवल हिंदू धर्म को मानने वाले नागरिकों (बाद में बौद्ध और सिख को जोड़ा गया) को लाभ देने के लिए जारी किया गया था और उन समुदायों के जो सदस्य मुस्लिम थे, उन्हें जानबूझकर बाहर रखा गया था। यह धार्मिक आधार पर किया गया अन्याय था।

इस दरम्यान भारत सरकार द्वारा न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया, जिसने 17 नवंबर, 2006 को अपनी स्तब्ध कर देने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत की।

कई क्षेत्रों में मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जनजातियों की तुलना में भी खराब पाई गई। शैक्षिक स्थिति निराशाजनक थी और सरकारी नौकरियों में उपस्थिति न्यूनतम थी।

इसके बाद, न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग को अल्पसंख्यकों के मामलों की जांच के लिए नियुक्त किया गया था, जिसने मई, 2007 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसे दिसंबर, 2009 में लोकसभा में पेश किया गया और वह भी बिना किसी कार्रवाई रिपोर्ट के। न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग ने न्यायमूर्ति सच्चर समिति के निष्कर्षो की पुष्टि की।

दो राष्ट्रीय स्तर की रिपोर्ट और राज्यवार डाटा होने के बावजूद, समुदाय को दिखाने के लिए, महाराष्ट्र सरकार ने 2009 के चुनावों से एक साल पहले मुसलमानों के शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन का पता लगाने और इसे दूर करने के उपाय खोजने के लिए महमूद-उर-रहमान समिति की नियुक्ति की।

इस समिति ने 21 अक्तूबर 2013 को मुसलमानों को 8 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।

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छह महिनों का आरक्षण

अंत में, 9 जुलाई, 2014 को, चुनावों से ठीक पहले मुसलमानों को 5 प्रतिशत आरक्षण देने वाला एक अध्यादेश जारी किया गया। हालांकि राज्य विधानमंडल में सरकार के पास बहुमत था लेकिन कांग्रेस-एनसीपी ने इसे कानून नहीं बनाया।

उसी दिन मराठों को भी आरक्षण देने वाला अध्यादेश जारी किया गया। दोनों अध्यादेशों को उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई। मराठा आरक्षण को अवैध घोषित किया गया लेकिन शिक्षा में मुसलमानों के पक्ष में आरक्षण को सही ठहराया रखा गया।

मुसलमानों को फैसले का फल नहीं मिल सका क्योंकि अध्यादेश छह महीने तक ही प्रभावी रहता है। भाजपा-शिवसेना की नई सरकार ने कानून बनाकर इस अध्यादेश को जारी नहीं रखा, जबकि उच्च न्यायालय के निर्णय के आलोक में ऐसा करना चाहिए था।

मुसलमानों को आरक्षण के मुद्दे के प्रति सरकारों द्वारा लगातार किया गया व्यवहार या तो भेदभाव या विश्वासघात है। ऊपर वर्णित तथ्य इस मुद्दे पर राजनीतिक नेताओं के बीच ईमानदारी की कमी को दिखाने के लिए पर्याप्त हैं।

जिस प्रश्न को संबोधित करने की आवश्यकता है वह यह है कि क्या कोई राष्ट्र अपनी 15 प्रतिशत आबादी को पिछड़ा रखकर प्रगति कर सकता है?’,

दूसरा प्रश्न जो परेशान करता है वह यह है कि क्या सरकार चाहती है कि मुसलमान सड़कों पर आ कर आंदोलन करें?’

यदि वर्तमान सरकार मुसलमानों को न्याय देने और उन्हें आरक्षण देने के अवसर को चूकती है तो यह एक और विश्वासघात होगा।

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